शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009

कौन रचयिता

भगवान ने इन्सानों को बनाया ,
या इन्सानों ने भगवान को,
अनुत्तरित यह प्रश्न सदियों से ।

रविवार, 6 दिसंबर 2009

आज ६ दिसम्बर है तो सोचो ज़रा

आज ६ दिसम्बर है । यह दिन भारत के इतिहास मे एक ऐसी जगह बना चुका है कि इसे इग्नोर नहीं किया जा सकता । अनेक तरह के राजनैतिक व अन्य संस्थाएं इस दिन को अपनी तरह से विचार व भाव प्रकट कर के मनाते हैं । लेकिन मैं इस दिन एक समझदारी की बात सामने रखना चाहता हूं ।

पिछले रविवार अमर उजाला अखबार के रविवार संस्करण में मौलाना वहीद्दुदीन खान का इंटरव्यू छपा था । मैं उसी इंटरव्यू का जिक्र करना चाहूंगा । उसे पढ़ कर मैने सोचा कि हमारे बीच में ऐसे उत्तम विचार वाले बुजुर्ग मौजूद हैं लेकिन उनकी बात न ध्यान से सुनी जा रही है और न ही संचार माध्यम उन्हे तरजीह दे रहे हैं । मैं तो सबसे, चाहे वे मुसलमान हों या हिन्दू, यही प्रार्थना करूंगा कि वे ऐसे विद्वानों को अपने समाज का नेतॄत्व दें और उनकी राह पर चलें । फ़साद खड़ा करके लाभ लेने वालों से बचें क्यों कि उसमे पड़ कर हम बिल्कुल गर्त में पहुंच जायेंगे । सारा इंटरव्यू तो यहां पुन:प्रकाशित करना उचित नहीं होगा लेकिन मैं कुछ हिस्से जरूर उद्धरित कर रहा हूं :

प्र. लिब्रहन आयोग ने पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंहराव को एक तरह से बरी कर दिया है । इसे आप किस तरह देखते हैं ? जबकि उनके प्रति मुसलिमों मे काफ़ी आक्रोश रहा है।

उ. नरसिंह राव को लेकर शिकायत गलत थी । प्रधानमंत्री रहते वह जिस पूजास्थल कानून को लेकर आये थे, वह पूरी तरह न्याय संगत था । बाबरी मस्जिद को छोड कर हर पूजा स्थल १९४७ से पहले जिस स्थिति मे था , उसी तरह रखे जाने की व्यवस्था उसमे कही गयी थी । वह अच्छी व्यवस्था थी , मुस्लिमों को कहना चाहिए था कि वह बाबरी मस्जिद के मसले पर कोर्ट मे लडेगें , तब किसी तरह का विवाद नही होता । पर उन्होने इस पर अपना रिएक्सन दिखाया । इससे मामला और उलझ गया ।

प्र. पिछले दिनों वंदे मातरम पर विवाद हुआ । ऐसी समस्यायों का क्या समाधान है ?

उ. मुस्लिम समाज अगर पिछड़ा है तो अपनी अज्ञानता के कारण । जब जरूरत आधुनिक शिक्षा की थी तब हमने बच्चों की तालीम संकीर्ण बना दी । यह कहां की बात हुई कि स्कूल न जाओ क्योंकि वहां वन्दे मातरम गाया जाता है ? पहले बच्चों को अंग्रेजी पढ़ने से रोका गया अब वंदे मातरम का विवाद खड़ा करते हैं । अगर मुसलमान समझते हैं कि वंदे मातरम गैर इस्लामी है तो उन्हे इक़बाल के इस शेर की भी मुखालफ़त करनी चाहिए , " खाके वतन तेरा हर ज़र्रा देवता है" । ऐसे विवादों से हम कौम और देश को पीछे कर रहे हैं । मुस्लिम नेतृत्व को कौम की शिक्षा के प्रचार प्रसार के लिए सक्रिय होना चाहिए । जरूरत इस बात की है कि जब इस तरह के विवादों को हवा देने की कोशिश हो, लोग उसके विवाद में न फसें । यह इस देश की मुस्लिम कौम का दुर्भाग्य है कि विभाजन के बाद ज्यादा तर पढ़े लिखे लोग पाकिस्तान चले गये और वहां से अमेरिका जाकर उनकी सेवा करने लगे । उनकी योग्यता का लाभ कौम को नहीं मिला । न वे हमारे काम आये न पाकिस्तान के ।

प्र. बाबरी मस्ज़िद प्रकरण का जिन्न क्या यों ही देश की आबोहवा खराब करता रहेगा ? आखिर इसका समाधान क्या है ?

उ. मैने बाबरी मस्ज़िद में १९४७ से पहले नमाज़ पढ़ी है । मेरे मन में कौतूहल था कि उस जगह को देखूं जहां के बारे में कहा जाता है वहां मस्ज़िद है और उसके अन्दर मन्दिर है । तब मैने गौर किया था कि वहां मन्दिर नहीं बल्कि एक चबूतरा सा था , जिसमे खड़ाऊं, बेलन आदि के निशान बने थे । सही मायनों मे यह सीताजी का रसोई घर थी । मीर बाकी के समय के किसी सूफ़ी संत को लगा था कि अगर इस जगह के पास मस्जिद भी बना दी जाए तो दोनो समुदाय मे आपसी सौहार्द बढ़ेगा । यह गलत सोच थी । नवाब की हुकुमत और अंग्रेजों के समय मे भी कभी यह विवाद का विषय नहीं बना । लेकिन नेहरु के प्रधानमंत्री काल में जब उस जगह तीन मूर्ती या फोटो रखे गये तो यह विवाद का विषय बन गया । आप इसके समाधान की बात कहते हैं तो वह यही है कि एक मस्ज़िद पर मुसलमान चुप हो जाएं और एक के बाद दूसरी मस्ज़िद पर हिंदू चुप हो जाएं । अब इससे बाहर आइए । बहुत हो गया । दुनिया के साथ जो विकास की होड़ है उसमे अपने लिए सार्थक रास्ता निकालिए । ऐसे मसलों पर घिरे मत रहिए । गावों में टेलीफोन, बिजली, स्कूल नहीं हैं, उनके बारे में सोचिए । आतंकवाद जिस तरह सिर उठा रहा है, उससे लड़ने के लिए सबल हो जाइए ।

प्र.दुनिया मुस्लिम जगत को किस तरह से देख रही है ? खासकर तब जबकि अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा भी एक ’मुस्लिम’ हैं ?

उ. अमेरिका को इस्लाम और हिंदुत्व से लेना देना नहीं । वह ’बिजनेस आफ अमेरिका इज बिजनेस’ की थ्योरी पर चलता है । अभी देखिए, ओबामा ने हमारे प्रधानमंत्री का स्वागत करते हुए कहा, उनके लिए १५० अरब डालर के निवेश की संभावना बनती है । यह सब क्या है ? यह भूल जाइए कि उसे इस्लाम शब्द से दिक्कत है । वह बस कमाना चाहता है ।

प्र. क्या मुसलिमों ने कांग्रेस को माफ़ कर दिया है ?

उ. देखा जाए तो कांग्रेस से मुस्लिमों की नाराजगी नहीं रही है । बाबरी मस्ज़िद प्रकरण के बाद आक्रोश जरूर उभरा लेकिन धीरे धीरे थम भी गया । कांग्रेस अगर मुस्लिमों का अभी पूरा साथ नही ले पा रही है तो उसके कारण दूसरे हैं ।

प्र. मुस्लिम समाज की बेहतरी के लिए आप क्या सोचते हैं ?

उ. मुस्लिम समाज को अपनी नकारात्मकता से बाहर आना चाहिए । मुसलमान गलत लीडरशिप की वजह से पिछड़ गए । अब मुसलमान चुनाव के समय निगेटिव वोटिंग से बचें । यानी यह सोच कर वोट न दें कि मुसलमानों के हिसाब से कौन सही है और कौन गलत । वे देखें कि उनके क्षेत्र का असल विकास कौन कर सकता है । मुस्लिम समाज को जानना चाहिए कि आज की दुनिया की तरक्की माडर्न एजुकेशन से हुई है , ’संस्कृत’ या ’अरबी’ से नहीं। माडर्न शिक्षा नहीं लेगे तो पिछड जाएगें । दर असल मुसलमान अपने पिछडेपन की कीमत चुका रहा है । डेढ़ सौ साल मे हम ठहर गए । ’हाला’ का एक शेर है - बस अब वक्त का हुक्म नातिक यही है, कि दुनिया में जो कुछ है तालीम ही है ।


अंत में यही प्रार्थना करूंगा कि सभी जिम्मेदार लोग थोड़ा स्वार्थ से उपर उठ कर पूरे समाज को अगर तालीम और तरकी के रास्ते पर ले जाएं ।

बुधवार, 2 दिसंबर 2009

साथ

न उदात्त प्रेम,
न अतिसय घृणा ,
न मिलन की उत्कट अभिलाषा,
न वियोग का अत्यन्त क्लेश,
फ़िर भी हम सब हैं सहयात्री ,
इस काल खंड में,
यह नियति का है आर्शीवाद ,
या है अभिशाप,
यह तो निर्धारित होगा ,
यात्रा में हमारे आचरण पर |

मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

एक बार फिर कोडा

यह लेख मैने १० नवम्बर को प्रकाशित किया था, आज फिर कोडा की गिरफ़्तारी के संदर्भ में प्रासंगिक प्रतीत होता है इसलिए इसे पुन: प्रकाशित कर रहा हूं । यद्यपि कुछ नये तथ्य सामने आये हैं परंतु इस लेख मे कोई परिवर्तन नहीं किया गया है। अन्य बातों को एक अलग लेख में कवर किया जावेगा।

कांग्रेस, कोडा ,राजा और राजनीति


यह अजीबोगरीब बात है की जब तीन राज्यों के चुनाव घोषित हुए तो झारखंड में चुनाव नहीं करवाया गया | अब तीन राज्यों में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद तुंरत यहां चुनाव की घोषणा की गयी | लेकिन उसके साथ ही एक और नाटक की शुरुआत हुई , वह है यू पी ऐ के पूर्व मुख्यमंत्री श्री मधु कोडा पर भ्रष्टाचार के आरोप और कई हज़ार करोड़ के घपले में इनकम टैक्स और प्रवर्तन निदेशालय द्वारा छापेमारी | इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ कार्यवाई होनी चाहिए परन्तु इस तरह चुनाव प्रक्रिया के दौरान अपने पुराने पाप को धोने का प्रयास नाटक ही है | नाटक से भी आगे बढ़कर एक प्रहसन मात्र |

कुछ बातें सोचने पर मन मज़बूर होता है ।

पहली बात यह कि मधु कोडा को मुख्य मंत्री बनाया किसने ? यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि वे यूपीए के मुख्यमंत्री थे और बहुमत के लिए कांग्रेस, राजद और झामूमो पर निर्भर थे, वरना तीन चार निर्दलीय विधायकों की सरकार का अजूबा देखने को यह देश विवश नहीं होता । जब यह सरकार चलायी जा रही थी तो क्या केन्द्रीय सरकार सोयी थी और जब पैसा बाहर जा रहा था तो मधु कोडा को हटाना नहीं था । इससे तो यही लगता है कि यह लूट मिल जुल कर हुई है और इस चुनाव में इस पैसे को खर्च किया जाना था मगर लगता है कि मधु कोडा अपने पूर्व सहयोगियों से उनकी शर्तों पर समझौते के लिए राज़ी नही हैं और इस दशा को प्राप्त हो रहे हैं । साथ ही यूपीए की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस की क्या जिम्मेवारी नहीं बनती है नैतिक व राजनैतिक दोनो, खासकर तब, जब कि यूपीए की कोई सरकार घोटाला करें । आखिर जो वोट जनता ने इन्हे दिया था उसकी ताकत को मधु कोडा के हाथों मे किसने सौंपा । क्या इस पाप से कांग्रेस बच जायेगी और एक मोहरा शहीद करके झारखंड की जनता को झांसे मे ले लेगी और सत्ता पर कब्जा कर लेगी ।

दूसरी बात क्या झारखंड के पूर्व राज्यपाल श्री सिब्ते रज़ी इस तरह की कार्यवाई मे केन्द्र सरकार का सहयोग नहीं कर पा रहे थे इसलिए उनके बदलाव के बाद ही ये छापे मारी और नोटिस का सिलसिला चालू किया गया । इसलिए झारखंड का चुनाव भारी मांग के बावजूद बिना किसी कारण के टाला गया वैसे भी राजभवन के अपने शुरुआती दिनो मे रज़ी साहब ने बहुत सा सहयोग कर चुके थे, अब शायद उतना माद्दा नही दिखा पा रहे होगें । सब को श्री बूटा सिंह बिहार के राज्यपाल और रज़ी साहब की झारखंड मे कार्यगुजारियां याद ही होंगी ।

तीसरी बात, हंगामा तो चल रहा था चालीस हज़ार करोड के स्पेक्ट्रम घोटाले का जो कहा जा रहा था भारत के इतिहास का सबसे बडा महाघोटाला । राजा साहब बंधते नज़र आ रहे थे, लोग उनके इस्तीफ़े और बर्खास्तगी की चर्चा शुरू ही कर रहे थे कि अचानक सब पर विराम लग गया । मीडिया द्वारा ’राजनैतिक चालबाज़ियों से परे’ का तमगा पाये प्रधानमंत्री जी ने सर्टिफिकेट दिया मिस्टर राजा ने कुछ भी गलत नही किया है और बात खत्म हो गयी । या तब तक खत्म जब तक डीएमके सहयोग करती रहेगी वरना कोडा वाला अंजाम हो सकता है, या एक और पहलू भी हो सकता है कि कांग्रेस के चुनावी फंड मे उनके हिस्से का सहयोग इधर से भी मिल गया होगा। कारण जो भी हो हालात अति संसयपूर्ण हैं ।

आज मीडिया सरकार व सरकारी पार्टी से कठिन प्रश्न पूछने से गुरेज़ करता है । वरना ऐसा पहले नही होता था कि मीडिया का एजेंडा भी सरकार इतनी आसानी से सेट कर रही है और मीडिया पूरे ज़ोर शोर से सरकारी लाइन पर चल रहा । मैं एक ही गुज़ारिश करूंगा कि जिस तरह नोट के बदले वोट के समय आंख कान बंद करके तमाशा होने दिया गया वैसा लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को इस बार नहीं होने देना चाहिये ।

जागो अब तो जागो, वरना ये हज़ारों करोड की लूट करेंगे और हम सौ रूपये किलो दाल खरीदेंगे, आखिर पैसा तो आम आदमी की ही जेब से जायेगा ।

शनिवार, 28 नवंबर 2009

भेद

क्यों कभी कभी ऐसा है लगता,
पीठ से मेरे यह लहू सा टपकता,

लहू जो किसी घाव से है निकला,
घाव जो किसी खंजर से है मिला,

खंजर जो किसी हाथ ने था चलाया,
हाथ जो मेरे किसी अपने ने बढ़ाया,

मेरे अपने जो मेरे गले से लिपटे,
गले से लिपटे क्योंकि प्रिय थे मेरे,

प्रिय थे मेरे तभी तो हमने मिलकर,
विश्वास का एक पुल किया था निर्मित,

इस पुल पर खड़ा मैं मैत्री का बोझ उठाये,
हूं अचम्भित सोचता कोई यह भेद तो बताये,

क्यों हमेशा विश्वास के पुल से होकर,
मैत्री के बदले रक्त होता है प्रवाहित,

क्यों कभी कभी ऐसा है लगता,
पीठ से मेरे यह लहू सा टपकता ।

रविवार, 15 नवंबर 2009

हे बेटियों के पिता

बेटियों की किल्कारियों से है आंगन हरा भरा,
इनकी नन्ही शरारतों पर सबका मन रीझ रहा,
इनके इरादों के आगे हर अवरोध हारेगा,
मुश्किलें छोड़ कर राह करेंगी किनारा।

इनके हाथों मे जब जब किताबें होगीं,
ये आगे बढ कर कल्पना चावला बनेगीं,
इनके हाथों मे जब होगा टेनिस रैकेट,
बनेगीं सानिया मिर्ज़ा पार कर हर संकट।

इन्हे एक मौका देने मे ही है बस देर हुई,
कोई नहीं रोक सकता बनने से इन्द्रा नूई,
जिन्हे वोट देने का कभी अधिकार भी न था,
उन्होने आज लहरा दिया है हर क्षेत्र में झंडा।

वो दर्जी की बेटी देखो पुलिस अफ़सर हो गयी,
दूधवाले की बेटी कर रही है पी एच डी,
ठाकुर की बेटी भी तो करने जा रही एम बी ए,
इनके पांव को न बांध सक रही घर की दहलीज।

हे पिता इनको सहेजना जब पड़े मुश्किल घड़ी,
न डिगना कर्तव्य से याद कर उनकी कोई गलती,
कुछ भूल हो जाये तो भी मत छोडना इनका हाथ,
ये पत्थर नही इनमे भी है मज्जा और रक्त की धार।

बेड़ियां जो इज्ज़त के नाम से है इनके पांव में पड़ी,
पिता हो काट सकते हो यदि तुम करो हिम्मत थोड़ी,
बहुत बांध कर रख लिया इन्हे रिवाजों के बन्धन में,
दो मुक्ति अब ये भी उड़ें पंख पसार कर गगन में।

मंगलवार, 10 नवंबर 2009

श्री प्रभाष जोशी को एक पाठक की श्रद्धांजलि




उस दिन मै आफ़िस जा रहा था, जैसा अक्सर होता है सुबह की भागम्भाग में टीवी नहीं देखा था, रास्ते में एफ एम पर समाचार सुना जोशी जी के निधन का समाचार । मुझे एक ही बात याद आयी

" सबको खबर दे सबकी खबर ले" ।

यह नारा या कहें प्रचार का बोर्ड जब जनसत्ता की शुरुआत दिल्ली में हुई थी अस्सी के दशक के शुरू में, तब दिल्ली में जगह जगह दिखाई पड़ता था । मैं उन दिनो दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ता था। इस टैग लाइन का दूसरा भाग - सबकी खबर ले, का बहुत अच्छा लगता था खास कर अखबार भी अच्छें अच्छों की खबर सच - मुच बहुत अच्छी तरह से लेता था । सभी लोग कहा करते थे भैया जनसत्ता पढ़ो उसका सम्पादकीय जोरदार होता है । इस टैग लाइन में एड एजेन्सी के कापी राइटर का रोल हो सकता है परन्तु उसे हक़ीकत का जामा जोशी जी कलम ने ही पहनाया था।

उन्ही दिनों ’काक’ के चुटीले कार्टून भी जनसत्ता की तरफ़ आकर्षित करते थे। बाद में काक नवभारत टाइम्स में छपने लगे । फ़िर पता नही कहां गये, कम से कम मुझे नहीं पता । वैसे कार्टून का इन्तज़ार हमेशा रहेगा ।

खैर, असली बात जोशी जी की कलम की धार ने उन दिनों दिल्ली में नवभारत टाइम्स और हिन्दुस्तान के एक क्षत्र राज को तोड कर जनसत्ता का पाठक वर्ग पैदा किया । उन में से एक मैं भी था जबकि मेरे पिताजी ’टाइम्स’ मे कार्यरत थे और घर में सिर्फ़ टाइम्स के ही प्रकाशन आते थे ।

मैं पत्रकार नहीं, उनसे मेरी पर्सनल मुलाकात नही थी मगर एक पाठक के रूप में अवश्य जानता था । उनकी कमी खलेगी । उन्हे श्रद्धांजलि ।

कांग्रेस, कोडा ,राजा और राजनीति

यह अजीबोगरीब बात है की जब तीन राज्यों के चुनाव घोषित हुए तो झारखंड में चुनाव नहीं करवाया गया | अब तीन राज्यों में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद तुंरत यहां चुनाव की घोषणा की गयी | लेकिन उसके साथ ही एक और नाटक की शुरुआत हुई , वह है यू पी ऐ के पूर्व मुख्यमंत्री श्री मधु कोडा पर भ्रष्टाचार के आरोप और कई हज़ार करोड़ के घपले में इनकम टैक्स और प्रवर्तन निदेशालय द्वारा छापेमारी | इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ कार्यवाई होनी चाहिए परन्तु इस तरह चुनाव प्रक्रिया के दौरान अपने पुराने पाप को धोने का प्रयास नाटक ही है | नाटक से भी आगे बढ़कर एक प्रहसन मात्र |

कुछ बातें सोचने पर मन मज़बूर होता है ।

पहली बात यह कि मधु कोडा को मुख्य मंत्री बनाया किसने ? यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि वे यूपीए के मुख्यमंत्री थे और बहुमत के लिए कांग्रेस, राजद और झामूमो पर निर्भर थे, वरना तीन चार निर्दलीय विधायकों की सरकार का अजूबा देखने को यह देश विवश नहीं होता । जब यह सरकार चलायी जा रही थी तो क्या केन्द्रीय सरकार सोयी थी और जब पैसा बाहर जा रहा था तो मधु कोडा को हटाना नहीं था । इससे तो यही लगता है कि यह लूट मिल जुल कर हुई है और इस चुनाव में इस पैसे को खर्च किया जाना था मगर लगता है कि मधु कोडा अपने पूर्व सहयोगियों से उनकी शर्तों पर समझौते के लिए राज़ी नही हैं और इस दशा को प्राप्त हो रहे हैं । साथ ही यूपीए की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस की क्या जिम्मेवारी नहीं बनती है नैतिक व राजनैतिक दोनो, खासकर तब, जब कि यूपीए की कोई सरकार घोटाला करें । आखिर जो वोट जनता ने इन्हे दिया था उसकी ताकत को मधु कोडा के हाथों मे किसने सौंपा । क्या इस पाप से कांग्रेस बच जायेगी और एक मोहरा शहीद करके झारखंड की जनता को झांसे मे ले लेगी और सत्ता पर कब्जा कर लेगी ।

दूसरी बात क्या झारखंड के पूर्व राज्यपाल श्री सिब्ते रज़ी इस तरह की कार्यवाई मे केन्द्र सरकार का सहयोग नहीं कर पा रहे थे इसलिए उनके बदलाव के बाद ही ये छापे मारी और नोटिस का सिलसिला चालू किया गया । इसलिए झारखंड का चुनाव भारी मांग के बावजूद बिना किसी कारण के टाला गया वैसे भी राजभवन के अपने शुरुआती दिनो मे रज़ी साहब ने बहुत सा सहयोग कर चुके थे, अब शायद उतना माद्दा नही दिखा पा रहे होगें । सब को श्री बूटा सिंह बिहार के राज्यपाल और रज़ी साहब की झारखंड मे कार्यगुजारियां याद ही होंगी ।

तीसरी बात, हंगामा तो चल रहा था चालीस हज़ार करोड के स्पेक्ट्रम घोटाले का जो कहा जा रहा था भारत के इतिहास का सबसे बडा महाघोटाला । राजा साहब बंधते नज़र आ रहे थे, लोग उनके इस्तीफ़े और बर्खास्तगी की चर्चा शुरू ही कर रहे थे कि अचानक सब पर विराम लग गया । मीडिया द्वारा ’राजनैतिक चालबाज़ियों से परे’ का तमगा पाये प्रधानमंत्री जी ने सर्टिफिकेट दिया मिस्टर राजा ने कुछ भी गलत नही किया है और बात खत्म हो गयी । या तब तक खत्म जब तक डीएमके सहयोग करती रहेगी वरना कोडा वाला अंजाम हो सकता है, या एक और पहलू भी हो सकता है कि कांग्रेस के चुनावी फंड मे उनके हिस्से का सहयोग इधर से भी मिल गया होगा। कारण जो भी हो हालात अति संसयपूर्ण हैं ।

आज मीडिया सरकार व सरकारी पार्टी से कठिन प्रश्न पूछने से गुरेज़ करता है । वरना ऐसा पहले नही होता था कि मीडिया का एजेंडा भी सरकार इतनी आसानी से सेट कर रही है और मीडिया पूरे ज़ोर शोर से सरकारी लाइन पर चल रहा । मैं एक ही गुज़ारिश करूंगा कि जिस तरह नोट के बदले वोट के समय आंख कान बंद करके तमाशा होने दिया गया वैसा लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को इस बार नहीं होने देना चाहिये ।

जागो अब तो जागो, वरना ये हज़ारों करोड की लूट करेंगे और हम सौ रूपये किलो दाल खरीदेंगे, आखिर पैसा तो आम आदमी की ही जेब से जायेगा ।

सोमवार, 9 नवंबर 2009

तुम्हारा मौन

तुम्हे ही ढ़ूढती रहती हैं मेरी नज़रें,
जिस किसी गली या डगर से भी गुजरें,
क्यों यह मन हो रहा है यूं अनुरागित,
मैं स्वयं ही हो रहा हूं सोचकर चकित,
लगता है तुम यहीं पर हो मेरे आस पास कहीं,
जानबूझ कर गढ़ा यह अहसास भ्रम ही सही,
तुमसे हरदम बात बेबात बतियाने की है लालसा,
हमेशा तुम्हारा ही हाल सुनने की रहती है त्रिषा,
पर मुझे मिला सदैव तुम्हारी तिर्यक दृष्टि का मौन,
ऐसे में मैं हुआ हूं वसंत ऋतु मे जैसे निर्जन वन ।

रविवार, 18 अक्तूबर 2009

रोशनी की झलक








कल शाम जब पूरा देश दीपावली की रोशनी से सराबोर हो रहा था, घर के आंगन और मन्दिर में लक्ष्मी और दीप पूजन तथा श्रद्घा की झलक मोबाइल कैमरे की नज़र से

मंगलवार, 29 सितंबर 2009

ब्लागवाणी पुन: शुरू

ब्लागवाणी को पुन: शुरू करने के लिये धन्यवाद । उदासी का समय खत्म हुआ, चेहरे पर खुशी लौट आई है। हम सब की ईद, दशहरा और दिवाली आज ही है। फिर से धन्यवाद।

शनिवार, 26 सितंबर 2009

भाजपा आम चुनाव २००९ के बाद और भविष्य की राह

प्रथम भाग मे हमने इस बात पर विचार किया कि कैसे भाजपा ने चुनाव से ठीक पहले हर मामले मे गूफ़ अप किया और अप्रत्याशित परिणाम आया । इस लिए उनके वे नेता गण जो सत्ता की आशा लगाए हुए बैठे थे, उनका बेहद निराश होना स्वाभाविक था । इस निराशा के माहौल मे इस बात की जिम्मेदारी पार्टी पर आ पड़ी है कि आगे का रास्ता क्या हो । पार्टी मे नया नेतृत्व कैसे आये । अब इस परिदृश्य मे सत्ता संघर्ष खुल कर सामने आ गया है जिसमे एक तरह से कीचड़ उछालो प्रतियोगिता चल रही है । हर छोटे बड़े नेता को लग रहा है कि उसके पास भाजपा का अगला वाजपेयी या आडवाणी बनने का मौका है इस लिए एक दूसरे की टांग खिचाई मे लगा हुआ है ।

भाजपा के दोनो शीर्षस्थ नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी और श्री लाल कृष्ण आडवाणी लगभग ४० वर्षों से यानी जनसंघ के समय से अब तक पार्टी का पर्याय बने हुए हैं । उनके बीच सामंजस्य था यह सभी मानते हैं, मतभेद भी रहे होगें परंतु वे मर्यादा के दायरे से बाहर कभी नही आये । मतभेदों की बात कभी कभी मीडिया में उठती थी मगर खुली उठा पटक कभी नही हुई । आज की स्थिति यह है कि वाजपेयी जी सन्यास आश्रम मे हैं और आडवाणी जी गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास तीनो के भवंर मे हैं और भ्रम की स्थिति पैदा हो रही है। चूंकि वे प्राइम मिनिस्टर इन वेटिंग थे और इस बात से पूर्ण आश्वस्त थे कि वे प्रधान मंत्री बनेंगे और देश की बाग डोर अपने हाथ मे लेगें, इस लिए गृहस्थ आश्रम की मन:स्थिति उनमे मौज़ूद है । वानप्रस्थ इस लिए कि उन्होने चुनाव परिणाम आने के बाद सक्रिय राजनीति से हटने की घोषणा की लेकिन अगली पीढी का नेता चुनने तक ६ महीने के लिए नेतृत्व का जिम्मा लेना स्वीकार कर लिया । सन्यास इस लिए कि वे अच्छी तरह जानते हैं कि अब उन्हे सक्रिय राजनीति से सन्यास लेना ही होगा, आज नही तो कल ।

इन सब के बीच भ्रम की स्थिति इस लिए पैदा हुई कि पार्टी के दूसरी पीढ़ी के कुछ नेता जिन्हे आडवाणी गुट भी कहा जाता है , उनके द्वारा यह प्रचारित किया जाने लगा कि आडवाणी जी पूरे कार्यकाल तक नेता विपक्ष बने रहेगें । इससे यह मेसेज़ आम लोगों और पार्टी कार्यकर्ताओं मे गया कि सन्यास की घोषणा एक छलावा थी । इस्तीफ़े की घोषणा हार के तात्कालिक दबाव से बचने की स्ट्रेटजी मात्र थी । एक ऐसा व्यक्ति जिसका इतना लम्बा कैरियर रहा हो उसके लिए यह उसके व्यक्तित्व का स्खलन ही साबित हुआ । यह लगभग उनके कंधार मामले पर दिये बयान वाली स्थिति जैसा उल्टा पड़ रहा है । जहां तब लोगों ने सोचा कि आडवाणी जी जिम्मेवारी से बचना चाहते हैं वहीं इस बार लोगों को लगा कि वे एन केन प्रकारेण कुर्सी से चिपके रहना चाहते हैं और सत्ता की लिप्सा से ग्रस्त हैं ।

विश्व के दूसरे समाज मे शायद सत्ता लिप्सा या उसके लिए जोड़ तोड़ को नकारात्मक दृष्टि से न देखा जाता हो मगर हमारे समाज मे इसे कभी भी सम्मान और पूजनीय दृष्टि से नही देखा गया है । यहां पर जो लोग त्याग की भावना दिखाते हैं, लोग उन्हे सिर आंखो पर बिठाते हैं और जो जोड़ तोड़ लगाता है उसे दुत्कार ही मिलती है । इस बात के कई उदाहरण दिये जा सकते हैं, माइथालोजिकल काल से लेकर ऐतिहासिक काल तक मगर मैं दो तात्कालिक उदाहरण दूंगा ।

पहला पूर्व प्रधानमंत्री श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह का जिन्होने अपने राजनैतिक कैरियर में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर डाकू समस्या के कारण इस्तीफ़ा देकर अपने लिए राजनैतिक स्थान बनाया था । इसी की अगली कड़ी मे वे सही मौके पर देश के रक्षा मंत्री के तौर पर इस्तीफ़ा देकर त्याग की मूर्ति बन गये थे । उस समय उनके लिए एक नारा लगता था ’राजा नही फ़कीर है देश की तकदीर है’ । उनकी इस छबि ने उन्हे प्रधानमंत्री पद तक पहुंचा दिया । लेकिन प्रधानमंत्री पद के चुनाव के लिए जनता दल की बैठक मे जिस तरह छल के सहारे उनको नेता बनाया गया उसने सारा मज़ा बेस्वाद सा कर दिया । उनकी चमक फ़ीकी पड़नी शुरु हो गई । फ़िर उन्होने जिस तरह श्री देवी लाल जी की एक रैली को असफल करने के लिए बिना किसी तैयारी के और बिना किसी बहस के ’मंडल कमीसन’ की सिफ़ारिसें लागू की, इस बात ने उनकी छबि पूरी तरह से बदल दी । अब वे कुर्सी से चिपके और कुर्सी के लिए हथकंडा अपनाने वाले नज़र आने लगे । श्री आडवाणी की रथ यात्रा के बाद जब भाजपा ने समर्थन वापस लिया तो उन्होने इस्तीफ़ा नही दिया बल्कि संसद मे बहस कराई , वोटिंग कराई और धर्म निरपेक्षता के नाम पर पद की शहादत दी । इन सब कोशिशों के बाद भी पुरानी विश्वसनीयता नही प्राप्त कर सके । अब लोग उन्हे फ़कीर वाले भाव से देखने को बिल्कुल तैयार नही थे । इसके बाद वे चुनावी राजनीति मे लगभग अप्रासंगिक हो गये थे । मेरे विचार मे पूरे देश मे अपने बूते एक से ज्यादा सीटें लाने मे असमर्थ थे । अपने अन्तिम वर्षों मे वे अपने को दिल्ली की झुग्गियों की राजनीति तक ही सीमित पा रहे थे ।

दूसरा उदाहरण श्रीमती सोनिया गांधी का है । जब उन्होने राजनीति मे कदम रखा, भारतीय राजनीति तो छोड़िये भारत के बारे मे उन्हे कितना पता था यह कहना मुश्किल है । जब श्री राजीव गांधी जी की हत्या हुई और सारा देश स्तब्ध था, तब कांग्रेस के बड़े नेताओं ने उन्हे पार्टी अध्यक्ष बनाने की कोशिश की थी लेकिन उन्होने बड़े डिग्नीफाइड तरीके से ठुकरा दिया था । इसके बाद श्री नरसिंहाराव जी की सरकार मे जैन कमीशन के मुद्दे पर हंगामा हुआ और उन्हे एक बार फिर परोक्ष रूप से राजनीति में लाने की कोशिश की गई और एक बार फिर उन्होने डिग्नीफाइड मौन से इसका उत्तर दिया। जैसा कि मैं इस लेख के पहले भाग में चर्चा कर चुका हूं कि किस तरह उस समय कांग्रेस पार्टी टूटी और उसमे से आधा दर्जन छोटी छोटी पार्टियां बन गयीं । उस समय भी लाइट वेट श्री सीता राम केसरी के स्थान पर सोनिया जी को अध्यक्ष बनाने के लिए पूरी पार्टी की तरफ से अनुरोध लेकर बड़े नेता उनके घर गये तब जाकर उन्होने पद स्वीकार किया । उनका सबसे बड़ा मास्टर स्ट्रोक रहा उनका प्रधान मंत्री पद न स्वीकार करना । जब उस समय उनके विदेशी मूल के मुद्दे पर हंगामा चल रहा था, उनका यह कदम उनकी सब खामियों को ढक गया और साथ ही लोगों तक यह मेसेज पहुचाने मे कामयाब रहा कि उन्हे बड़े से बड़े पद का लालच नहीं है । इस बात ने उन्हे समकालीन राजनीति का सबसे सम्मानित व्यक्तित्व बना दिया ।

मैने संक्षेप मे दोनो उदाहरण इस लिए दिये क्योंकि मेरे विचार मे पार्टी के एक वर्ग द्वारा यह प्रचार करने के बाद कि आडवाणी जी पूरे पांच साल तक नेता विपक्ष बने रहेगें, एक ऐसे व्यक्ति की गलत छबि प्रस्तुत हो रही है जिसका सराहनीय राजनैतिक कैरियर रहा है ।

भविष्य की राह के लिए यह सबसे जरूरी है कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व अपनी विश्वसनीयता प्राप्त करे, अत: आडवाणी जी दिसम्बर तक अवश्य रिटायर होवें । दूसरी बात यह भी जरूरी है कि पार्टी के उच्चतम पद के लिए प्रेस और इलेक्ट्रानिक मीडिया के माध्यम से एक दूसरे का चरित्र हनन बन्द हो चाहे वह सार्वजनिक बयानबाजी से हो रहा है या आफ द रेकार्ड ब्रीफ़िग से । आज यदि भाजपा के दूसरी पीढ़ी के नेता किसी एक को सर्वमान्य नेता नही मान पा रहे तो इसका कोई मान्य हल आपस मे बैठ कर निकालें । मेरे विचार मे एक नेता के बज़ाय एक ४ या ५ का समूह ’प्रेज़िडियम’ के रूप मे काम करे और सारे नीति गत निर्णय वही बहुमत के आधार पर ले । जहां तक सरकार बनने पर प्रधानमंत्री जैसे पद की बात है उसे बिल्कुल प्रजातान्त्रिक तरीके से पार्लियामेंट्री बोर्ड मे बहुमत के आधार पर तय किया जाना चाहिए । अन्य सरकारी पद का बटवारा जब पांच साल बाद यदि मौका आयेगा तो यही प्रेजिडियम आडवाणी जी की व शायद संघ की सलाह से तय कर सकता है ।आखिर अमेरिका में प्रेसीडेंट ओबामा और हिलेरी क्लिन्टन चुनाव पूर्व प्रतिद्वंदी होने के बावज़ूद आज मिल कर काम कर रहे हैं इस बात से प्रेरणा लेने की आवश्यकता है । इसकी गाइड लाइन मोटे तौर पर अभी ही तय की जा सकती है । यह आडवाणी जी के लिये एक बहुत बडी चुनौती है लेकिन इस तरह की व्यवस्था स्थापित कर के वे उस पार्टी को बचा सकते हैं जिसको यहां तक पहुंचाने मे उन्होने अपना जीवन लगा दिया । साथ ही एक विश्वसनीय और मज़बूत विपक्ष होने से भारतीय राजनीति का भविष्य भी उज्जवल होगा । इससे आडवाणी जी भी अपने गृहस्थ, वानप्रस्थ के द्वंद से निकल कर सन्तोषप्रद सन्यास आश्रम का जीवन व्यतीत कर पायेगें, श्री वाजपेयी जी और श्री ज्योति बसु जी की तरह ।

भाजपा का सफ़ल नेतृत्व परिवर्तन इस लिए भी जरूरी है क्योंकि सिर्फ़ सी पी एम ने अगली पीढ़ी को सफ़लता पूर्वक नेतृत्व सौंपा है बाकी पार्टियों मे चाहे रीज़नल हों या राष्ट्रीय नेता का फ़ैसला वंशवाद ही तय करता है।

शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

पूजा की धूम

मित्रों,
इन दिनों पूरे उत्तर भारत मे उत्सव का माहौल है, अभी अभी ईद की खुशियां मनायी गयी। इधर दुर्गा पूजा और राम लीला खूब धूम धाम से मनायी जा रही है । शाम होते ही पूरा शहर सजावट की रोशनी से जगमगा उठता है । अपने शहर दिल्ली के इसी मूड को मैने अपने मोबाइल के कैमरे से उतारा है, आप सब के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूं :




रविवार, 20 सितंबर 2009

भारतीय जनता पार्टी आम चुनाव के पूर्व और आम चुनाव के बाद

भारतीय राजनीति में वर्ष २००९ के आम चुनाव का परिणाम कुछ हद तक आश्चर्यजनक रहा । किसी भी राजनैतिक पंडित या सेफ़ोलोजिस्ट को यह अंदाजा नहीं था कि कांग्रेस २१५ लोकसभा सीटें प्राप्त करेगी । साथ ही भरतीय जनता पार्टी ( भाजपा ) को पिछली लोकसभा से २२ सीटें कम मिलेंगी । मगर यह हुआ । इसके परिणामस्वरूप भाजपा मे आज लगभग वही स्थिति है जैसी कांग्रेस मे १९९८ की हार के बाद थी । जब कांग्रेस मे जबरदस्त उथल पुथल हुई और पार्टी से टूट कर तमिल मनीला, त्रिणमूल , तिवारी कांग्रेस, लोकतांत्रिक कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस जैसी लगभग आधा दर्जन पार्टियां अस्तित्व मे आयीं ।
इसी परिप्रेक्ष मे आज भाजपा मे जिस तरह की उथल पुथल चल रही है वह असमान्य न होते हुये भी सहज नही कहा जा सकता । परंतु इस बात का निरपेक्ष भाव से आकलन होना चाहिये की जब लोकसभा के चुनाव से ठीक पहले राज्यों के चुनावों में और कुछ उपचुनावों मे भाजपा की स्थिति ठीक ठाक नजर आ रही थी तो अचानक लोकसभा चुनाव मे कांग्रेस और भाजपा का अन्तर पिछली लोकसभा के ७ सीटों से बढ़कर इस लोकसभा मे लगभग १०० सीटों का क्यों हो गया । मेरे विचार मे लोकसभा चुनाव से ठीक पहले भाजपा किसी भी तरह से न तो विनिंग टीम जैसी नजर आ रही थी न ही व्यवहार कर रही थी । इसके आकलन पर निम्न बातें मुख्यतया: स्पष्ट होती हैं।
१. पार्टी का मीडिया से सम्बंध । आजकल न्यूज चैनेलों का जमाना है इससे कोई इन्कार नही कर सकता । खास कर अंग्रेजी के दो तीन चैनेल एक तरह से जो एजेंडा सेट कर रहे हैं और बाकी के चैनेल, हिंदी वालों सहित, उसे ही फालो करते हैं । अगले दिन समाचार पत्रों की सुर्खिंया भी उसी से प्रेरित होती हैं । आप देखिये कि सत्ता मे कांग्रेस है परंतु सत्ताजनित सारी नेगेटिव बातों की वजह से भाजपा सुर्खियों मे छायी रहती है । पिछले तीन चार सालों मे भाजपा की छोटी से छोटी कमी पूरे जोर शोर से प्रसारित हुई है और कांग्रेस की बड़ी से बड़ी कमी को सरसरी तौर पर प्रसारित किया गया । चाहे लोकसभा मे पैसे लेकर प्रश्न पूछने का मामला हो, लोकसभा मे पैसे देकर बहुमत खरीदने का मामला हो या वरुण गांधी की सीडी हो, इसका विश्लेषण कीजिये ।
जब पैसे लेकर प्रश्न पूछने की बात आयी तो जहां अन्य पार्टियों से एक या दो सदस्य लिप्त मिले थे भाजपा से आठ या नौ । क्या कांग्रेस से भी आठ या दस सदस्य नही हो सकते थे । या इस आपरेशन दुर्योधन का लक्ष्य भाजपा थी और बाकी एक दो सदस्य संतुलन के लिये शामिल किये गये थे । क्योंकि सत्तापक्ष द्वारा जिस तत्परता से और जितनी कड़ी कार्यवायी इस केस मे हुई आज तक किसी अन्य राजनैतिक केस मे इतनी तत्परता से और इतनी नैतिकतापूर्ण तरीके से कभी नही हुई ।
अब लोकसभा में पैसे देकर वोट खरीदने का मामला लीजिये, इस केस मे परिणाम पहले केस से बिल्कुल उलट हुआ । जिन पर पैसे देने का आरोप लगा वे पाक साफ़ बच निकले और जिन्होने इसका भंडाफोड किया वे फंस गये । जांच पूरी हो गयी फ़ैसला भी आ गया मगर यह बात स्पष्ट नहीं हुई कि समाजवादी पार्टी के एम पी रात के अंधेरे मे भाजपा एम पी के घर क्यों गये और भाजपा एम पी को अमर सिंह के घर क्यों बुला कर ले गये । अमर सिंह जी किस बात का उलाहना देते रहते हैं कि कांग्रेस के लिए उन्होने जो कुछ किया उसका फल उन्हे धोखा मिला। क्या उन्होने कांग्रेस के लिए कोई डर्टी कार्य किया था और उन्हे उसका सही सिला नही मिला? कहीं उन्हे इस बात का दर्द तो नही है? साथ ही मीडिया यह नही पूछता कि इतने भाजपा व अन्य पार्टियों के सदस्यों को तोड कर लोक सभा मे बहुमत साबित करने वाले प्रधानमंत्री को कभी भी नैतिकता के सवाल पर मन मे द्वंद नही हुआ, जब कि आपरेशन दुर्योधन मे लिप्त सदस्यों को संसद से उच्च नैतिकता के लिए ही निकाला गया था ।
वरुण गांधी की सीडी के मामले को देखिये, उसी समय कांग्रेस के एक बड़े नेता इमरान किदवई का सीडी भी आया था जिसमें वे इस्लाम के नाम पर वोट देने की अपील कर रहे थे और भाजपा को वोट देने वाले के मुसलमान होने पर सवाल उठा रहे थे । मगर मीडिया मे हंगामा सिर्फ़ वरुण पर हुआ ।
यह मैने कुछ उदाहरण दिये, परंतु पूरे दौर मे मीडिया रिपोर्टिंग और चर्चाओं मे एक पैटेर्न था । उपर्युक्त बातें उसके प्रतीक के रूप मे दी गयी हैं। इस लिये पार्टी को इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि मीडिया से कैसे सम्बंध सुधार हो और नकारात्मक छबि से कैसे बाहर निकला जाय ।
२. पार्टी के नेताओं मे भितरघात और केन्द्रीय नेताओं के अहं के टकराव का खुल कर प्रदर्शन । जिसके दो उदाहरण दूंगा । एक कल्याण सिंह का चुनाव से ठीक पहले पार्टी छोड़ना । जहां भाजपा उत्तर प्रदेश में सबसे पहले उम्मीद्वारों की घोषणा करके सबसे आगे संघर्ष का बिगुल बज़ाती लग रही थी वहीं कल्याण सिंह के चुनाव की पूर्वसंध्या पर पार्टी छोडने से लगभग पूरी पार्टी , खास कर उत्तरप्रदेश मे लकवा ग्रस्त सी हो गयी और आज भी उसी हालात मे है । कल्याण सिंह ने तो खैर अपने आपको सिर्फ़ लोध जाति के नेता होने तक सीमित कर लिया और जिन मुलायम सिंह की टक्कर के नेता थे उनका कृपापात्र बन कर स्वयं से कैसे आंख मिलाते होगें वे ही जाने । इस बात ने उत्तर भारत और खास कर उत्तर प्रदेश मे पार्टी नेताओं की विचारधारा और जनसेवा के प्रति प्रतिबद्धता को सवालों के घेरे मे खड़ा कर दिया । अब इन बातों से वोटर तो टूटेगा ही ।
दूसरा उदाहरण अरुण जेटली के रूठने का है जब महायुद्ध द्वार पर था तो पार्टी के नीतिनिर्धारक रूठ कर कोपभवन मे जा कर बैठ गये । बात चाहे जो भी रही हो, सुधांशु मित्तल से उनका कोई भी बैर रहा हो मगर उन्हे इस बात का अहसास तो होना ही चाहिए था कि वे पार्टी के मुख्य नीति निर्धारक हैं और उनका यह आचरण, वह भी चुनाव के दौरान, कार्यकर्ताओं मे असमंजस पैदा करेगा और वोटरों दूर करेगा ।
ऐसा लग रहा था कि भाजपा के नेताओं ने यह मान लिया था कि सत्ता मिलना अवश्यसंभावी है अत: चुनाव के पहले ही सत्ता की मलाई के लिये गोटी बिठाने मे व्यस्त हो गये और चुनाव हार गये ।
३. आडवाणी जी के नेतृत्व को जेडीयू जैसे सहयोगी ने तो पूरी तरह माना मगर अरुण शोरी जैसे विचारक मोदी का केस आगे बढाने मे लग गये और २००९ के बज़ाय २०१४ के चुनाव मे पूरी पार्टी को उलझा दिया । आज वही शोरी साहब मोदी को न हटाने का दोषी आडवानी जी को बता रहे हैं और हार की जिम्मेदारी निर्धारित करने की मांग कर रहे हैं।
स्वयं आडवाणी जी कंधार मामले पर जिस तरह अपने को पूरी पार्टी और वाजपेयी सरकार के निर्णय से दूर करते नज़र आये वह भी किसी के गले नही उतरा और उनकी छबि सुधरने के बज़ाय धूमिल हो गयी ।
उपर्युक्त बातों से ज़ाहिर है कि जब आप की छबि मीडिया मे नकारात्मक हो, आपके सेनापति विरोधी खेमे मे शामिल हो जायें , नीतिनिर्धारक कोपभवन मे रूठ कर बैठे हों, मुख्य नेता के बराबर दूसरे नेता की छबि चमकायी जाय , २००९ को छोड़ कर २०१४ मे उलझा जाय तो आप २००९ मे कैसे जीत सकते हैं । भाजपा को अपने प्रतिबद्ध वोटरों का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि उन्हे ११५ तक सीटे मिल गयी वरना ऐसे हालात मे १०० के नीचे भी जा सकते थे ।
( चुनाव बाद की स्थिति और भविष्य की राह पर दूसरे भाग मे अगले सप्ताहांत तक लिखूंगा )

शनिवार, 12 सितंबर 2009

सुन बटोही

तुझे यदि मन्ज़िलों का ज़रा भी ग़ुमान होता,
इन रास्तों से चलते हुए न यूं हैरान होता,
बिना हैरानियों के सफ़र न यूं जीवन्त होता,
शोरगुल के बीच भी मन तेरा वीरान होता ।

सामने नज़रों के तेरी गुजरते जो दॄश्य हैं,
बदलते यूं कि जैसे अभिसारिका के परिधान हैं,
ये कभी भी बोध स्थिरता का न होने देते हैं,
लग रहे ये चलते से, पर असल में तो तू गतिमान है।

यहां से पहले भी गुजरे हैं अनगिनत राही,
बाद में भी गुजरने वालों की कमी न होगी,
कुछ थे भूले कुछ थे भटके कुछ ने यह राह खोजी,
मत भटकना इस नैनाभिराम दॄश्य से तू मनोयोगी ।

तुझको मिलेगें कितने खण्डहर कितने जंगल कितने वीराने,
कितने साथी कितने प्रतिभागी कितने सीधे कितने सयाने,
वो जो हैं आज तेरे अपने जब मिले तब तो थे अनजाने,
इस पल में हैं साथ तेरे कल न थे कल होगें कोई न जाने ।

न रुकना कटंकाकीर्ण इस पथ मे देख तू पैरों के छाले,
दे सहारा उसको भी जो थका प्यासा घायल यदि कोई मिले,
चल पड़ेगा वो भी हारा पड़ा जो बस उसकी बांह गह ले,
तुझको भी तो साथी मिलेगा चल रहा था अब तक अकेले ।

तू है बटोही सिर्फ़ चलना ही तेरा कर्तव्य ठहरा,
न कर विश्राम न रुक कहीं भी और न ही तू कर बसेरा,
जो चुना पथ तूने अपना चलता रह बस उस पर निरन्तर,
ये निश्चित मान ले मिल जायेगा जो है गंतव्य तेरा ।

बुधवार, 9 सितंबर 2009

खोज

जीवन की इस आपा-धापी में,
एक अनजानी सफ़लता की खोज में,
निरन्तर भाग रहा है मनुष्य,
जैसे को‌ई मृग मरुभूमि में,

जिसे दिखता है जल, पर जो है नहीं,

वो भागता है उस ओर जी जान लगाकर,
जल है, उसे है पूर्ण विश्वास इस दृष्ट पर,
क्यों माने कि हैं ये सिर्फ़ लहरें प्रतीत रेत पर,
जब सब कुछ है उसे दृष्टि-गोचर,

जो सिर्फ़ श्रव्य नहीं दृष्टि-बंधन नहीं,

इस भ्रम जाल से मुक्ति का मार्ग कैसे मिले,
मृग हो या मनुष्य उचित राह पर कैसे चले,
ज्ञान, विश्वास, पुरुषार्थ कि प्राप्ति से पहले,
सफ़ल जीवन के लिये सन्मार्ग कैसे मिले,

जिस पर चल कर उसे गंतव्य मिले, इन्द्रजाल नहीं,

गुरु ही देगा वह ज्ञान का प्रकाश ,
गुरु-ज्ञान से ही विकसित होगा विश्वास,
उस विश्वास से ही विकसित होगा पुरुषार्थ,
उस पुरुषार्थ से ही मिलेगा वह सन्मार्ग,

जो जाता है जल की ओर मरीचिका कि ओर नहीं,

हे प्रभु इससे पहले कि कुछ और दे,
एक सद्‍गुरु से अवश्य मिलवा दे,
जिससे मिट जायेंगे सब भ्रम, कट जायेगें बंधन,
तब ही मिलेगा परमानंद, सफ़ल होगा यह जीवन,

गुरु की खोज से बढ़ कर को‌ई और खोज नहीं।

शनिवार, 5 सितंबर 2009

अनायास मास्साब

आज शिक्षक दिवस पर मैं पूरी श्रद्धा से जीवन मे मिले समस्त शिक्षकों को ध्यान कर रहा हूं, जिन्होंने हमारे जीवन दिशा दी, हमें जीवन को जीने का सलीका सिखाया और दुनियां को समझने का दॄष्टिकोण दिया । इन्ही में एक थे श्री देवी प्रसाद सिंह, जिन्होने हमे हमारे गांव के प्राइमरी स्कूल की तीसरी कक्षा में पढ़ाया था । सिंह साहब सेना से रिटायर हो कर आये थे और अपने जीवन में सैनिक की भांति अनुशासन से रहते थे और सब से यही अपेक्षा भी करते थे । अपने अधिकार क्षेत्र में इसे पूरी शिद्दत से लागू करते थे । उनके इन गुणों को आज हम अच्छी तरह और समग्र भाव से आकलन कर सकते हैं परन्तु उस समय हम सब विद्यार्थी उन्हे ’अनायास मास्साब’ कहते थे । यह नाम उन्हें कैसे मिला, किसने दिया यह तो किसी को नहीं पता लेकिन क्यों पड़ा उसकी व्यथा कथा उनके इस नाम से ही ज़ाहिर है । असल में मास्साब अति अनुशासनप्रिय थे जबकि छात्रों को लगता था कि वह अनायास ही उन्हें दंडित करते रहते हैं ।

मास्साब का यह स्पष्ट मत था कि छात्रों को सुधारना बहुत ही आवश्यक है और सुधारने का एक ही तरीका है वह है डंडे का भरपूर इस्तेमाल । अपने इस विश्वास को वह पूरे मनोयोग से लागू करते थे । यह बात अपने ख़ास लहज़े मे बड़ी शान से हर मिलने वाले से बताते थे कि उनकी क्लास के सारे बच्चे हर टास्क ऐसी फ़ुर्ती से पूरा करते हैं जैसे "फिरकी" ज़रा सा हवा का सहारा पाते ही नाचती है । वैसे तो पूरे स्कूल का कोई बच्चा उनके सामने नहीं पड़ना चाहता था परंतु उनकी क्लास के बच्चों की तो मजबूरी थी । उनके सामने अगर अनुशासन टूटा तो तुरन्त सज़ा का फ़रमान मिल जाता था ।

उनका दंड विधान अलिखित होते हुए भी पूरा नियमबद्ध था । आप किसी भी परिस्थिति पर उनसे मुफ़्त क्लेरीफ़िकेसन ले सकते थे । यदि उन्होने एक बार सज़ा सुना दिया, चाहे उन्होने खुद अनुशासन हीनता देखी हो या किसी की शिकायत पर दोनो पक्षों की दलीलें सुनने के बाद हो , आप नयी दलीलों के साथ उनसे दुबारा अपील कर सकते थे । लेकिन अगर ये दलीलें अपुष्ट और गलत हुईं तो सज़ा बढ़ जाती थी । अब इस अपील के बाद कोइ दूसरी अपील नहीं होती थी इस लिये सज़ा बढ़ने के डर से अपील का रिस्क कम ही लोग उठाते थे । यह कार्य एक न्यायाधीश की तरह वह पूरे निरपेक्ष भाव से करते थे।

सज़ा की मात्रा गलती के हिसाब से पूर्वनिर्धारित थी ,जिस प्रकार की और जितनी बड़ी गलती उसी हिसाब से उसकी सज़ा । जैसे क्लास के अंदर पढ़ाई हो रही हो और कोई खिड़की से बाहर झांक रहा है तो १/२ डंडा, यदि क्लास के बाहर मैदान में पढ़ा रहे हों और कोई सड़क की तरफ़ देख रहा हो तो १ डंडा, क्लास के बाहर इधर उधर घूम रहे हैं तो २ डंडे, होम वर्क करके नहीं लाये तो ३ डंडे, आपस में मार पीट कर रहे हो तो ४ या ५ डंडे। इसके अलावा पढ़ाई लिखाई में हुई अलग अलग गलतियों पर अलग अलग मात्रा निर्धारित थी । यह स्पष्ट कर दूं कि सज़ा १/४,१/२ और ३/४ डंडे भी होती थी । इसके लिए वे डंडे के उतने हिस्से पर पकड़ कर मारते थे, इससे उसकी चोट उसी मात्रा में कम लगती थी। यह उनकी अपनी खोज थी क्योंकि आज तक किसी और टीचर को एक डंडे से कम सज़ा देते मैनें नहीं देखा । बच्चे तो गलतियां दिन भर करते रहते थे और उनको दिन भर सज़ा भी सुनाई जाती रहती थी मगर सज़ा तुरंत नहीं मिलती थी । इसके लिए दो समय निर्धारित थे एक रेसिस से थोड़ा पहले और दूसरा दिन की छुट्टी से थोड़ा पहले । हर बच्चा अपनी दिन भर की सज़ाओं का लेखा रखता था, उपर्युक्त समय पर उनके पास जा कर हिसाब देता और सज़ा प्राप्त कर के खाता बन्द कराता। इसमें किसी तरह की गफ़लत करने पर सज़ा की मात्रा बढ़ जाती थी। यह एक तरह से टैक्स रिटर्न जैसा था कि आपको समय से भरना है नही तो पेनाल्टी पडेगी ।

उनका पढाई पर जितना ध्यान रहता उतना ही इस बात पर भी कि अगर जरा भी गलती हुई है तो सज़ा मिलना बहुत ज़रूरी है । इसे सुनिश्चित करने के लिए वह क्लास में दो या तीन मानीटर बनाते थे । यह नियुक्ति केवल एक दिन के लिये होती थी । उनकी नज़र में सारे छात्र एक समान थे इसलिए मानीटर के पद की नियुक्ति के लिये कोई विशेष गुण वाला छात्र नहीं खोजते थे यह मौका सब को मिलता था । दो या तीन मानीटर इस लिए कि उन्हें मास्साब के साथ पूरी क्लास पर नज़र रखना पड़ता था । किसी बच्चे का सिर ज़रा भी इधर उधर हुआ और उसके नाम का खाता खुला । प्रतिदिन मानीटर का बदलाव इस लिए कि किसी की पढ़ाई का नुकसान न हो और कोई अपने पद का दुरुपयोग न कर पाये । इस प्रकार मास्साब पूरी तरह से आश्वस्त थे कि उनकी कक्षा के बच्चे सबसे सुधरे हुए हैं ।

मास्साब पूर्व सैनिक होने के नाते खेल और व्यायाम में भी बहुत रुचि रखते थे और छात्रो को इसमे हिस्सा लेने के लिए प्रेरित करते थे । इसके अलावा पूरे स्कूल में कोई भी आयोजन हो उसकी जिम्मेवारी मास्साब की ही होती थी। बच्चों में स्वभावत: खेल में ज्यादा रुचि होती है । इसलिए वे आशा लगाये रहते थे कि मास्साब उन्हे मौका देगें । जैसा मैं पहले बता चुका हूं कि उनकी नज़र में सारे छात्र समान थे अत: वे सबको कुछ न कुछ जिम्मेवारी देते और सबको आयोजन से जोड़े रखते । जब किसीसे बात करते तो उसे ऐसा महसूस करा देते कि वह पूरे आयोजन में सबसे महत्वपूर्ण कड़ी है । जहां उनके अनुशासन से बच्चे उनसे कन्नी काटते, उनके इस गुण से उनके करीब भी होते थे ।

आज जगह जगह शिक्षा की दुकाने खुल गयी हैं और शिक्षा के मायने भी बहुत बदल गये हैं । ऐसी दंड प्रक्रिया भी पूर्णतया निषेध हो गयी है । परन्तु हम जब पी टी एम के दिन अपने बच्चों के स्कूल जाते हैं और आज के टीचरों की बातें सुनते है तो हमे अपने ऐसे पुराने शिक्षकों की याद आती है और बड़ी श्रद्धा से आती है । मैं क्षमा प्रार्थना के साथ कहना चाहूंगा कि अब वह विश्वास और समर्पण भाव नज़र नही आता, सिर्फ़ ताम-झाम ज्यादा नज़र आता है । हमारे मास्साब ने दंड प्रक्रिया दिल की गहरायी से छात्रों मे अनुशासन लाने के लिये ही अपनायी थी, किसी को चोट पहुचाने, घायल करने या ट्यूसन के लिये मज़बूर करने के लिये नहीं । आज जब वह इस दुनिया में नहीं हैं, उनका यह पूर्व छात्र उन्हें अपनी यादों की श्रद्धांजलि समर्पित कर रहा है ।

मंगलवार, 1 सितंबर 2009

चमचा पुराण

गांधी की जय से क्या होगा,
नेहरु की जय से क्या होगा,
भारत में जो भी कुछ होगा,
चमचागीरी से ही होगा ।

बोलो जप तप तीरथ करने से,
यहां किसे क्या मिल जाता है,
पर चमचागीरी करने भर से ही,
किस्मत का हर फाटक खुल जाता है ।

चमचागीरी है एक कला,
किंतु नहीं सिखलायी जाती है,
विद्यालयों के कमरों में भी,
यह नहीं पढाई जाती है ।

नभचर को बोलो कब कोई,
नभ में उडना सिखलाता है,
जलचर को भी बोलो कब कोई,
जल में तैरना सिखलाता है ।

ज्यों कश्मीर में केसर मिलता,
और केरल में काजू मिलता है ,
चमचागीरी का फूल हमेशा,
कुर्सी की क्यारी में खिलता है ।

चमचों की महिमा कौरव कुल से,
अब तक है चलती आयी ,
कवियों ने भी ऊचें स्वर में,
चमचों की महिमा है गायी ।

ज्यों रिश्वत के बिना ,
काम न कोई बन पाता है ,
वैसे ही कुर्सी और चमचे का ,
जनम जनम का नाता है ।

फिर भी यह एक पहेली है,
जो नही सुलझने पायी है ,
कुर्सी के बाद चमचा आया है,
या चमचे के बाद कुर्सी आयी है ।

है मिलावट आज सब जगह,
इसीलिये तुमको समझाता हूं,
असली और नकली चमचों की,
पहचान तुम्हे करवाता हूं ।

नकली चमचा कुछ देर बाद में,
मौसम सा रंग बदलता है,
असली चमचा वो है जो,
गिरगिट से पहले रंग बदलता है ।

तुम भी चमचे बन सकते हो,
बस स्वाभिमान का दमन करो,
अपने सब काम बनाने को,
सारे आदर्शों का हवन करो ।

चमचा तुम सा ही होता है,
बस केवल नाक नहीं होती,
वह सब धर्मों से ऊंचा है,
चमचों की जात नहीं होती ।

तुम झूठे मन से बोल रहे ,
गांधी की जय नेहरु की जय,
मैं सच्चे मन से बोल रहा,
चमचों की जय चमचों की जय ।

मुट्ठी भर लोगों से बोलो कब तक,
यह गांधी युग है चलने वाला ,
अरे गांधी युग जल्द जायेगा,
अब चमचा युग है आने वाला ॥

******************************

यह पैरोडी आज से दस साल पहले किसी मित्र ने लिख कर दिया था । उन्हे भी किसी और ने लिख कर दिया था । इसके रचयिता का नाम मुझे नही पता । यदि किसी को पता हो तो अवश्य बतावें । धन्यवाद ।

शनिवार, 29 अगस्त 2009

आधुनिक नैतिकता

क्या ज़ायज है ?
नियम के दायरे में खेलना,
या हर हाल में विजेता होना ।
यकीनन दोनो ही,
तुम्हारा नियम के दायरे में खेलना,
मेरा हर हाल में विजेता होना।

मंगलवार, 25 अगस्त 2009

वियोग के क्षण

इस वीराने अन्धियारे के बीच,
इस अल्प प्रकाशित कमरे में,
इस अर्ध रात्रि की बेला में,
मैं हूँ मेरा अकेलापन है,
सबको समेटे खामोशी की चादर है।

जागती हु‌ई मेरी आंखो में ,
बन्द पलकों के पीछे,
मेरे मन के पर्दे पर,
अगनित मनोभाव दर्शाते,
रूप तुम्हारा बिम्बित होता है।

कभी कुछ कहती हु‌ई तुम,
कभी कुछ समझाती हु‌ई तुम,
कभी बात बे बात झल्लाती हु‌ई तुम,
कभी मनुहार करती हु‌ई तुम,
अनेकों रूप तुम्हारा प्रकट होता है।

यदि मैं नींद में गहरे जा‌ऊं,
शायद सपने में तुम आ‌ओ,
या शायद सिर्फ़ नींद ही आये,
न सपने आयें न तुम आ‌ओ,
नींद में तो सब कुछ अनिश्चित है।

इन जागती आखों बन्द पलकों में,
तुमसे हो रहा है मिलन,
इनके खुलते ही है तुमसे वियोग,
नींद में स्वप्न और स्वप्न में तुम्हारे आने की अनिश्चित्ता,
इनके बीच विकल मैं और मेरा असमंजस है।

बुधवार, 19 अगस्त 2009

जिन्ना , जसवंत , रवीश और बहस जारी है

आदरणीय रवीश जी,
मैं तो आपका प्रशंसक हूं परन्तु जिस तरह से इतिहास को एक संकीर्ण दॄष्टि से और कांग्रेसी नज़रिये से देखा जा रहा है वह अनुचित है । आपका यह कहना कि मुस्लिम लीग ने १९२० के बाद अलग राह पकडी तो इस पर भी ध्यान दीजिएगा :

खिलाफ़त आन्दोलन का समर्थन की क्या आवश्यकता थी, क्या वह निर्णय मुस्लिम तुष्टीकरण का कांग्रेसी शुरुआत नही था । वह एक कदम भारत की राजनीति में हिंदू दक्षिणपंथ की शुरुआत, मुस्लिम लीग को एक्स्ट्रीम डिमांड की तरफ़ धकेलने वाला नही साबित हुआ ।

दूसरा ,इन बातों का भी खुलासा होना चहिए कि क्या जिन सूबों मे जिन्ना साहेब और लीग मुस्लिम शासन की मांग कर रहे थे वे अब पाकिस्तान में हैं या नहीं । जितना रिज़र्वेसन सरकारी नौकरियों में मांग रहे थे वह पाकिस्तान और भारत मिलाकर उससे ज्यादा प्राप्त है या नहीं । और क्या आज कांग्रेस की सरकार मुसलमानों को भारत में आरक्षण देने की पूर्ण तैयारी में है या नहीं तथा कुछ राज्यों में कोर्ट के दखल बावजूद कांग्रेस ने आरक्षण दिया या नहीं ।

अगर पिछले ७५ - ८० सालों की राजनीति का अवलोकन किया जाय तो यह कहना अतिसयोक्ति न होगी कि जिन बातों को १९३० में रिजेक्ट किया २००९ में वे सब पिछले दरवाजे लागू हो रही हैं पूरे सेकुलर सर्टीफ़िकेट के साथ क्योंकि कमिटेड मीडिया और सच्चर कमेटी साथ हैं और वोट बैंक पर नज़र है । इसके बाद यह बहस तो जायज है कि बटवारा क्यों हुआ और क्या जो उद्देश्य बटवारे का था वह हासिल हुआ । इस पर बहस से क्यों भागते हैं और हंगामा खड़ा करके, तथ्यों को घुमा कर असली मुद्दे को दबा देना चाहते हैं । इस पर बहस आज नही तो कल होगी ही , सेकुलरिज्म का बुखार थोड़ा कम होगा तब होगी, शायद कुछ सालों बाद ।

और अंत में आपने मुस्लिम लीग और कांग्रेस के १९३७ के संयुक्त प्रांत के समझौते की तुलना २००९ के लालू , मुलायम और पासवान से किया यह भी अनुचित है, क्योंकि यह सब जानते हैं कि २००९ के चुनाव में इनका कोई समझौता नहीं था एक सीट पर भी नहीं । तुलना अगर जायज है तो एन सी पी से जहां महाराष्ट्र में समझौता था अन्य जगह नहीं । चुनाव के बाद दोनों सरकार में शामिल हैं । दोनों का आपस में विरोध भी कम नहीं है, आखिर सुषमा स्वराज ने तो सिर्फ़ धमकी दिया सिर मुडाने का, पवार साहेब ने तो पार्टी तोड़ी । अगर आप का यह कहना ठीक है कि लीग और कांग्रेस १९३७ में साथ खड़े नहीं रह सकते थे तो चुनाव पूर्व समझौता क्यों किया था चाहे कुछ सीटों का ही सही ।

एन डी टी वी पर तो आप कमिटेड हैं चैनेल की वजह से, पर ब्लोग पर भी वही कांग्रेस प्रवक्ता वाला तेवर । माफ़ी चाहूंगा अगर कुछ अनुचित लगा हो तो मगर आपकी टिप्पड़ी का इन्तज़ार रहेगा ।आपका प्रशंसक,
August 19, 2009 1:32 AM

रवीश जी की टिप्पडी आई :

विजय जी,
मैं कांग्रेस का प्रवक्ता नहीं हूं। न तो टीवी पर न ही ब्लॉग पर। विभाजन पर क्यों नहीं बहस होनी चाहिए? आपको क्या लगता है कि बहस नहीं हुई या हो रही है? कौन सा तथ्य मैंने मोड़ दिया है मैंने। जसवंत सिंह एक प्रमाण दे दें कि किस बैठक में जिन्ना और नेहरू के बीच १९३७ में यूपी में गठबंधन सरकार बनाने का फैसला हुआ था? दे दें तो अच्छा है। मैं कह रहा हूं कि अभी तक इसका कोई प्रमाण नहीं मिला है। नए तथ्य के साथ इतिहास की सोच बदलती है।

सेकुलरिज्म बुखार नहीं है। सांप्रदायिकता बुखार है। आप बात को कहीं से कहीं ले जा रहे हैं। कांग्रेस मुसलमानों के लिए आज क्या कर रही है उसका इस लेख से कोई संबंध नहीं है। मैंने जिन्ना की भूमिका के आस पास की राजनीतिक प्रक्रिया का ज़िक्र करने के लिए लेख लिखा

मुलायम का ज़िक्र इसलिए किया गया है ताकि जो इतिहास के विद्यार्थी नहीं हैं उनसे आज के रूपक के सहारे संवाद किया जा सके कि किस तरह से राजनीति में तब भी शक या गेस के आधार पर दलीलें गढ़ी जाती रही है। तुलना करने का इरादा बिल्कुल नहीं था।
August 19, 2009 9:१९ अ म

अंत में यह मैं अपने ब्लोग पर दे रहा हूं ताकि सभी अपना मत दे सकें और बहस आगे बढ़े ।

मंगलवार, 18 अगस्त 2009

अमोघ

मन कर एकाग्रचित्त ,
परिणाम से अविचलित ,
लोकचर्चा से न हो भ्रमित ,
उद्देश्य को इंगित ,
अकर्मता से विलगित ,
प्रभु को समर्पित,
ऐसा उद्यम होगा अमोघ ,
न हो संशयित ।

रविवार, 16 अगस्त 2009

स्वतन्त्रता की वर्षगांठ और शाहरुख खान की सुरक्षा जांच

आज देश स्वतन्त्रता की बांसठवीं वर्षगाठं मना रहा है, चारों तरफ़ खुशी का माहौल है । इस बीच कई दिनों से सूखे पड़े मौसम में वर्षा की फ़ुहारें, कभी हल्की तो कभी तेज, महौल की खुशी को दोगुना कर रही हैं । इस साल पूरा उत्तर भारत भारी सूखे की चपेट में है, ऐसा सूखा जो कई दशकों बाद इतना व्यापक है। पिछले दो दिनो से, इस थोड़ी देर से ही सही, हो रही इस बरसात से सभी सराबोर और खुश हो रहे हैं । बीच मे जब जब मौसम थोड़ा खुल जाता है तो बच्चे अपनी पतगें लेकर बाहर निकलते हैं और जैसे ही बारिस शुरू होती है तो वापस घर मे भाग आते हैं ।
सुबह से अनेक कार्यक्रम सभी टीवी चैनेलों द्वारा प्रसारित किये जा रहे हैं । इनमे दिन भर जगह जगह मनाये जा रहे समारोहों, खासकर लालकिले से प्रधानमन्त्री द्वारा देश के नाम सम्बोधन व प्रदेशों की राजधानियों मे हुए काय्रक्रमों की झलकियों को भी दिखाया जा रहा है । इसके साथ साथ पिछले बांसठ सालों की उपलब्धियों के अलावा कमियों और इस बीच आये सामाजिक व आर्थिक परिवर्तनों पर भी चर्चायें सभी टीवी चैनेलों पर प्रसारित की जा रही हैं । चर्चाओं से यह निकल कर आ रहा है की देश ने इन सालों में लगभग हर क्षेत्र - शिक्षा, खेल, तकनीक व आर्थिक, में बहुत तरक्की की है। यह बात भी सामने आ रही है कि भारत की युवा पीढ़ी आत्मविश्वास से भरपूर है और हर तरह की चुनौतियों से विचलित हुए बिना उनका सामना करने में सक्षम है चाहे वे देश के अन्दर से समाजिक व आर्थिक क्षेत्र से हों या देश के बाहर से आतंकवाद के रूप में हो ।
ऐसा लग रहा है कि भारत अपना अज़ादी पर्व आत्मचिन्तन के साथ भविष्य की चुनौतियों का सामना करने पर विचार करने में लगा रहा है और देश का परिपक्व मीडिया कदम मिला कर आगे बढ़ रहा है, तभी टीवी स्क्रीन के स्क्रोल पर एक खबर फ़्लैश होना शुरू होती है, लगभग दोपहर के बाद "शाहरुख खान को सुरक्षा जांच के लिये अमेरिका के एअरपोर्ट पर रोका गया"। जैसे जैसे खबर डेवलप होती है पता चलता है कि आधा घटें रोका गया, जो बाद में बढ़ कर दो घटें हो जाता है । इसके साथ - साथ शुरू हो गया भारत का चिरपरिचित ’मीडिया सर्कस’ जिसका नमूना हम सब अनेकों बार देख चुके हैं ।
अब सब कुछ छोड कर पूरा मीडिया एक खबर पर होड़ लगा देता है । चीख चीख कर मामूली से हर खबर को गैरमामूली बनाने के चक्कर मे कैसे कैसे जुमले उछाले गये इनकी बानगी देखिये : शाहरुख का अमेरिका में अपमान , शाहरुख का अपमान देश का अपमान, शाहरुख से पूछ्ताछ रेशियल डिश्क्रिमिनेशन का उदाहरण और न जाने क्या क्या ।
अब सारा माहौल जो राष्ट्रीय पर्व का था बिल्कुल बदल गया, समझदारी से सर्कस बन गया । एक व्यक्ति जो भारत मे प्रसिद्ध है किन्तु किसी राजकीय प्रोटोकाल का अधिकारी नही है उसकी जांच कैसे राष्ट्रीय अपमान का विषय हो गयी यह समझ से परे है ।
आज सब जानते हैं कि सुरक्षा की क्या स्थिति है । पश्चिमी देश और खासकर अमेरिका इस मामले में कितना सतर्क है यह बताने की आवश्यकता नहीं है । उनकी सतर्कता और सख्ती का ही नतीजा है कि उनके देश में ९/११ के बाद कोई बडी घटना नही हुई । इसके विपरीत हम कितने सतर्क हैं इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आतंकवाद के हाथों दो प्रधानमन्त्री खोने के बाद भी, पिछले २५ वर्षों में कितनी आतंकवादी घटनाएं हुई हैं इसकी ठीक ठीक गिनती करना असंभव है । परन्तु हमारा एक ही नारा है ’ हम नहीं सुधरेंगे’ । ज़रा विचार कीजिए कुछ समय पहले संसद पर हमला हुआ तो देश कैसे स्तब्ध था, फ़िर पूरी जांच के बाद, सोच विचार कर सख्त सुरक्षा प्रबंध किये गये । करोड़ो के उपकरण लगाये गये । इस सब के बावजूद कभी किसी सांसद का कोई डुप्लीकेट या किसी सांसद की पत्नी बिना किसी जांच के और वैध प्रपत्र के, सुरक्षा को धता बता कर अन्दर पहुंच गये । ज़ाहिर है सुरक्षा जांच हमारे लिए एक गैरज़रूरी बाधा है । सुरक्षाकर्मी सिर्फ़ सल्यूट करने और आम आदमी को धमकाने के लिये प्रयुक्त होते हैं । यदि वे किसी वी आई पी की जांच करेंगे तो नौकरी से हाथ धो बैठेंगे । यही वजह है कि दिल्ली की सड़कों पर यदि कोई पुलिस वाला किसी खास को रोके तो जवाब मिलेगा ’ पता है मैं कौन हूं’ या ’मेरे पिताजी कौन हैं’ । कभी कभी तो बेचारे की पिटाई भी हो जाती है ।
ठीक यही व्यवस्था अब हमें पश्चिमी देशों और अमेरिका में भी चाहिये । आखिर हम वी वी आई पी जो ठहरे । अब प्रोटोकाल की सुविधा देश में और देश के बाहर भी सिर्फ़ उच्च राजकीय पदाधिकारियों को ही नहीं आगे बढ़ कर क्रिकेटरों, फ़िल्मी सितारों, टी वी वालों, पत्रकारों और थोड़े दिनों मे शायद रियलिटी शो वालों को भी चहिये होगी। और अगर न मिले तो राष्ट्रीय अपमान होगा । जैसा कि फ़िल्मी खानों मे हर बात के लिये होड़ लगती है शायद कोई दूसरा खान भी अपनी पापुलरिटी सिद्ध करने के लिये, इसी तरह का एक और हंगामा खड़ा करवाये।
जिस तरह कुछ खास एक्सपर्ट लोग और मीडिया ने माहौल बनाया है और गम्भीर चर्चाओं को दर किनार कर गैर ज़रूरी बात को ज्यादा तूल दिया है यह गैर जिम्मेदाराना, बेवकूफ़ाना और बेहूदा है । राष्ट्रीय अपमान सुरक्षा जांच से नहीं, अपने को हर नियम कानून से ऊपर मानने वाली मानसिकता से होता है । ऐसी मानसिकता को बढ़ावा देने में जुटे इस मीडिया और हर बात बेबात हंगामा करने वालों से है । आज हमें आज़ादी की इस सालग़िरह पर प्रधानमन्त्री के संबोधन को पीछे कर ’शाहरुख पुराण’ को प्राथमिकता देने के मानसिक दिवालियेपन से बचने की आवश्यकता है ।
हमारे उच्च वर्ग को चाहिये कि वे सुरक्षा जैसे मामलों पर धैर्य दिखायें और अपनी थोड़ी असुविधा को तूल न दे कर उदाहरण प्रस्तुत करें, जिन्हे आम लोग भी अपनाएगें और हम सब सुरक्षित महसूस करेगें । अन्तिम बात, छोटी छोटी बातों का बतंगड बना कर पब्लीसिटी बटोरने से भी हमारे सेलीब्रटी लोगों को बचना चाहिये, चाहे वह शाहरुख खान ही क्यों न हों।

शनिवार, 15 अगस्त 2009

प्रभु

तू है विराजमान हर कण में,
इस विश्वास में जीते हैं ,
तेरा वजूद एक भ्रम है,
ऐसा भी कुछ ज्ञानी कहते हैं ,
क्या तेरा होना सिर्फ़ भ्रम है ,
संसार माया नहीं सत्य है या,
सिर्फ़ तू सत्य है यह संसार माया है भ्रम है ,
तू आयेगा जब जब धर्मं की ग्लानि होगी ,
या है उपस्थित हर क्षण,
हर कण में निरंतर,
क्या मानूं की जब नहीं आया तो,
है सब धर्मयुक्त व्यवस्थित ,
हर तरफ़ फ़ैली यह अफ़रा - तफ़री भी,
और हर कण में तेरी उपस्थिति भी,
कैसे उपेक्षित करूं यह द्वंद ,
इस द्विविधा से हमें उबारने के लिए ,
अपने नियम को फ़िर से परिभाषित करने के लिए,
तू है अनादि अनंत अखंड अछेद अभेद सुवेद ,
यह सदैव को निर्धारित करने के लिए,
एक बार फ़िर से आओ मेरे प्रभु,
सत्य और भ्रम का भेद मिटाओ मेरे प्रभु ।

बुधवार, 12 अगस्त 2009

साथ

न उदात्त प्रेम,
न अतिसय घृणा ,
न मिलन की उत्कट अभिलाषा,
न वियोग का अत्यन्त क्लेश,
फ़िर भी हम सब हैं सहयात्री ,
इस काल खंड में,
यह नियति का है आर्शीवाद ,
या है अभिशाप,
यह तो निर्धारित होगा ,
यात्रा में हमारे आचरण पर .

शनिवार, 8 अगस्त 2009

अनुराग

ये जो मेरे गालों का रंग गुलाबी हुआ,
ये जो मेरी आँखों का रंग शराबी हुआ,
ये जो मेरी चाल बदली सी है,
ये जो मेरे हाल में बेसुधी सी है,
कारण मुझसे क्या पूछते हो मेरे सांवरे ,
जब कि तुम भी जानते हो,
वो तुम ही हो,
जिसके लिए हम हुए हैं बावरे ।


बुधवार, 5 अगस्त 2009

हार या जीत

किस हार में छुपी है जीत ,
और किस जीत में छुपी है हार ,
इस हार जीत में उलझा है जीवन,
भ्रमित हुआ है अंतर्मन ।

जिस जीत से गर्वित हो कर,
चंहु ओर फिरता था कल तक ,
आज मन पछताता है यह पाकर ,
था वह एक पड़ाव न कि मंजिल।

हमें कोशिशें जारी रखनी थी,
नयी मंजिलों की राह में ,
कोशिशें नयी राहों की खोज में ,
कोशिशें नए सह यात्रियों से सहयोग में।

क्यों नही समझ पाया यह सत्य,
न हार महत्व पूर्ण है न जीत,
सिर्फ़ कोशिश महत्वपूर्ण है,
वह भी अविरल अविकल ।

हर हार के बाद जीत है ,
हर जीत के बाद हार ,
हर जीत के बाद और भी जीतें हैं ,
हर हार के बाद और भी हारें ।

कुछ भी अन्तिम नहीं है,
सिर्फ़ कोशिश के सिवा,
न हार , न जीत, न पड़ाव , न मंजिल ,
सृष्टि चक्र के ओर से छोर तक ॥

मंगलवार, 4 अगस्त 2009

उद्‍गम

तुम जब तक मुझमें हो,
स्वच्छ, निर्मल, पावन, विकारहीन हो,
मुझसे विछुड़ते ही,
ये सब भी तुमसे विछुड जाएगा ,
पर यही तुम्हारी नियति है,
और मेरी परिणिति ।