शनिवार, 28 नवंबर 2009

भेद

क्यों कभी कभी ऐसा है लगता,
पीठ से मेरे यह लहू सा टपकता,

लहू जो किसी घाव से है निकला,
घाव जो किसी खंजर से है मिला,

खंजर जो किसी हाथ ने था चलाया,
हाथ जो मेरे किसी अपने ने बढ़ाया,

मेरे अपने जो मेरे गले से लिपटे,
गले से लिपटे क्योंकि प्रिय थे मेरे,

प्रिय थे मेरे तभी तो हमने मिलकर,
विश्वास का एक पुल किया था निर्मित,

इस पुल पर खड़ा मैं मैत्री का बोझ उठाये,
हूं अचम्भित सोचता कोई यह भेद तो बताये,

क्यों हमेशा विश्वास के पुल से होकर,
मैत्री के बदले रक्त होता है प्रवाहित,

क्यों कभी कभी ऐसा है लगता,
पीठ से मेरे यह लहू सा टपकता ।

रविवार, 15 नवंबर 2009

हे बेटियों के पिता

बेटियों की किल्कारियों से है आंगन हरा भरा,
इनकी नन्ही शरारतों पर सबका मन रीझ रहा,
इनके इरादों के आगे हर अवरोध हारेगा,
मुश्किलें छोड़ कर राह करेंगी किनारा।

इनके हाथों मे जब जब किताबें होगीं,
ये आगे बढ कर कल्पना चावला बनेगीं,
इनके हाथों मे जब होगा टेनिस रैकेट,
बनेगीं सानिया मिर्ज़ा पार कर हर संकट।

इन्हे एक मौका देने मे ही है बस देर हुई,
कोई नहीं रोक सकता बनने से इन्द्रा नूई,
जिन्हे वोट देने का कभी अधिकार भी न था,
उन्होने आज लहरा दिया है हर क्षेत्र में झंडा।

वो दर्जी की बेटी देखो पुलिस अफ़सर हो गयी,
दूधवाले की बेटी कर रही है पी एच डी,
ठाकुर की बेटी भी तो करने जा रही एम बी ए,
इनके पांव को न बांध सक रही घर की दहलीज।

हे पिता इनको सहेजना जब पड़े मुश्किल घड़ी,
न डिगना कर्तव्य से याद कर उनकी कोई गलती,
कुछ भूल हो जाये तो भी मत छोडना इनका हाथ,
ये पत्थर नही इनमे भी है मज्जा और रक्त की धार।

बेड़ियां जो इज्ज़त के नाम से है इनके पांव में पड़ी,
पिता हो काट सकते हो यदि तुम करो हिम्मत थोड़ी,
बहुत बांध कर रख लिया इन्हे रिवाजों के बन्धन में,
दो मुक्ति अब ये भी उड़ें पंख पसार कर गगन में।

मंगलवार, 10 नवंबर 2009

श्री प्रभाष जोशी को एक पाठक की श्रद्धांजलि




उस दिन मै आफ़िस जा रहा था, जैसा अक्सर होता है सुबह की भागम्भाग में टीवी नहीं देखा था, रास्ते में एफ एम पर समाचार सुना जोशी जी के निधन का समाचार । मुझे एक ही बात याद आयी

" सबको खबर दे सबकी खबर ले" ।

यह नारा या कहें प्रचार का बोर्ड जब जनसत्ता की शुरुआत दिल्ली में हुई थी अस्सी के दशक के शुरू में, तब दिल्ली में जगह जगह दिखाई पड़ता था । मैं उन दिनो दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ता था। इस टैग लाइन का दूसरा भाग - सबकी खबर ले, का बहुत अच्छा लगता था खास कर अखबार भी अच्छें अच्छों की खबर सच - मुच बहुत अच्छी तरह से लेता था । सभी लोग कहा करते थे भैया जनसत्ता पढ़ो उसका सम्पादकीय जोरदार होता है । इस टैग लाइन में एड एजेन्सी के कापी राइटर का रोल हो सकता है परन्तु उसे हक़ीकत का जामा जोशी जी कलम ने ही पहनाया था।

उन्ही दिनों ’काक’ के चुटीले कार्टून भी जनसत्ता की तरफ़ आकर्षित करते थे। बाद में काक नवभारत टाइम्स में छपने लगे । फ़िर पता नही कहां गये, कम से कम मुझे नहीं पता । वैसे कार्टून का इन्तज़ार हमेशा रहेगा ।

खैर, असली बात जोशी जी की कलम की धार ने उन दिनों दिल्ली में नवभारत टाइम्स और हिन्दुस्तान के एक क्षत्र राज को तोड कर जनसत्ता का पाठक वर्ग पैदा किया । उन में से एक मैं भी था जबकि मेरे पिताजी ’टाइम्स’ मे कार्यरत थे और घर में सिर्फ़ टाइम्स के ही प्रकाशन आते थे ।

मैं पत्रकार नहीं, उनसे मेरी पर्सनल मुलाकात नही थी मगर एक पाठक के रूप में अवश्य जानता था । उनकी कमी खलेगी । उन्हे श्रद्धांजलि ।

कांग्रेस, कोडा ,राजा और राजनीति

यह अजीबोगरीब बात है की जब तीन राज्यों के चुनाव घोषित हुए तो झारखंड में चुनाव नहीं करवाया गया | अब तीन राज्यों में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद तुंरत यहां चुनाव की घोषणा की गयी | लेकिन उसके साथ ही एक और नाटक की शुरुआत हुई , वह है यू पी ऐ के पूर्व मुख्यमंत्री श्री मधु कोडा पर भ्रष्टाचार के आरोप और कई हज़ार करोड़ के घपले में इनकम टैक्स और प्रवर्तन निदेशालय द्वारा छापेमारी | इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ कार्यवाई होनी चाहिए परन्तु इस तरह चुनाव प्रक्रिया के दौरान अपने पुराने पाप को धोने का प्रयास नाटक ही है | नाटक से भी आगे बढ़कर एक प्रहसन मात्र |

कुछ बातें सोचने पर मन मज़बूर होता है ।

पहली बात यह कि मधु कोडा को मुख्य मंत्री बनाया किसने ? यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि वे यूपीए के मुख्यमंत्री थे और बहुमत के लिए कांग्रेस, राजद और झामूमो पर निर्भर थे, वरना तीन चार निर्दलीय विधायकों की सरकार का अजूबा देखने को यह देश विवश नहीं होता । जब यह सरकार चलायी जा रही थी तो क्या केन्द्रीय सरकार सोयी थी और जब पैसा बाहर जा रहा था तो मधु कोडा को हटाना नहीं था । इससे तो यही लगता है कि यह लूट मिल जुल कर हुई है और इस चुनाव में इस पैसे को खर्च किया जाना था मगर लगता है कि मधु कोडा अपने पूर्व सहयोगियों से उनकी शर्तों पर समझौते के लिए राज़ी नही हैं और इस दशा को प्राप्त हो रहे हैं । साथ ही यूपीए की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस की क्या जिम्मेवारी नहीं बनती है नैतिक व राजनैतिक दोनो, खासकर तब, जब कि यूपीए की कोई सरकार घोटाला करें । आखिर जो वोट जनता ने इन्हे दिया था उसकी ताकत को मधु कोडा के हाथों मे किसने सौंपा । क्या इस पाप से कांग्रेस बच जायेगी और एक मोहरा शहीद करके झारखंड की जनता को झांसे मे ले लेगी और सत्ता पर कब्जा कर लेगी ।

दूसरी बात क्या झारखंड के पूर्व राज्यपाल श्री सिब्ते रज़ी इस तरह की कार्यवाई मे केन्द्र सरकार का सहयोग नहीं कर पा रहे थे इसलिए उनके बदलाव के बाद ही ये छापे मारी और नोटिस का सिलसिला चालू किया गया । इसलिए झारखंड का चुनाव भारी मांग के बावजूद बिना किसी कारण के टाला गया वैसे भी राजभवन के अपने शुरुआती दिनो मे रज़ी साहब ने बहुत सा सहयोग कर चुके थे, अब शायद उतना माद्दा नही दिखा पा रहे होगें । सब को श्री बूटा सिंह बिहार के राज्यपाल और रज़ी साहब की झारखंड मे कार्यगुजारियां याद ही होंगी ।

तीसरी बात, हंगामा तो चल रहा था चालीस हज़ार करोड के स्पेक्ट्रम घोटाले का जो कहा जा रहा था भारत के इतिहास का सबसे बडा महाघोटाला । राजा साहब बंधते नज़र आ रहे थे, लोग उनके इस्तीफ़े और बर्खास्तगी की चर्चा शुरू ही कर रहे थे कि अचानक सब पर विराम लग गया । मीडिया द्वारा ’राजनैतिक चालबाज़ियों से परे’ का तमगा पाये प्रधानमंत्री जी ने सर्टिफिकेट दिया मिस्टर राजा ने कुछ भी गलत नही किया है और बात खत्म हो गयी । या तब तक खत्म जब तक डीएमके सहयोग करती रहेगी वरना कोडा वाला अंजाम हो सकता है, या एक और पहलू भी हो सकता है कि कांग्रेस के चुनावी फंड मे उनके हिस्से का सहयोग इधर से भी मिल गया होगा। कारण जो भी हो हालात अति संसयपूर्ण हैं ।

आज मीडिया सरकार व सरकारी पार्टी से कठिन प्रश्न पूछने से गुरेज़ करता है । वरना ऐसा पहले नही होता था कि मीडिया का एजेंडा भी सरकार इतनी आसानी से सेट कर रही है और मीडिया पूरे ज़ोर शोर से सरकारी लाइन पर चल रहा । मैं एक ही गुज़ारिश करूंगा कि जिस तरह नोट के बदले वोट के समय आंख कान बंद करके तमाशा होने दिया गया वैसा लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को इस बार नहीं होने देना चाहिये ।

जागो अब तो जागो, वरना ये हज़ारों करोड की लूट करेंगे और हम सौ रूपये किलो दाल खरीदेंगे, आखिर पैसा तो आम आदमी की ही जेब से जायेगा ।

सोमवार, 9 नवंबर 2009

तुम्हारा मौन

तुम्हे ही ढ़ूढती रहती हैं मेरी नज़रें,
जिस किसी गली या डगर से भी गुजरें,
क्यों यह मन हो रहा है यूं अनुरागित,
मैं स्वयं ही हो रहा हूं सोचकर चकित,
लगता है तुम यहीं पर हो मेरे आस पास कहीं,
जानबूझ कर गढ़ा यह अहसास भ्रम ही सही,
तुमसे हरदम बात बेबात बतियाने की है लालसा,
हमेशा तुम्हारा ही हाल सुनने की रहती है त्रिषा,
पर मुझे मिला सदैव तुम्हारी तिर्यक दृष्टि का मौन,
ऐसे में मैं हुआ हूं वसंत ऋतु मे जैसे निर्जन वन ।