बुधवार, 31 मार्च 2010

प्रथम प्रेम फुहार

तुम्हारी चितवन के तीर
मेरा मन हुआ अधीर
रह गयी अमिट पीर

रविवार, 28 मार्च 2010

डेविड कोलमैन हेडली की स्वीकारोक्ति ( ३ ) - परिप्रेक्ष : भारत का राजनैतिक व सामाजिक द्वंद

जब मैने इस लेख की पहली कड़ी में यह मुद्दा उठाया था कि डेविड एक डबल एजेंट था और अमेरिकी सुरक्षा एजेन्सीज उसे भारतीय एजेन्सीज को नही सौपेंगी , तो वह प्रारंभिक समाचारों पर आधारित एक विश्लेषणात्मक अनुमान था, अब यह बात सही साबित हो रही है । अमेरिकी प्रतिनिधियों ने इस तरह का बयान दे दिया है और भारत के गॄह मंत्री श्री पी चिदंबरम सफाई दे रहे हैं कि हम कोशिश जारी रखेंगे और निराश नहीं हैं , जब कि आज हर समझदार व्यक्ति जो थोड़ा बहुत भी अन्तर्राष्ट्रीय मामलों पर नज़र रखता है उसे पता है कि अब हैडली से भारत जो भी जानकारी पायेगा वह केवल वही होगी जो अमेरिकी चाहेंगे या जितना और जैसा चाहेंगे जिसे अंग्रेजी मे कहेंगे " सूटेबल टू अमेरिका " । इसके विपरीत हमने अमेरिकी एजेन्सीज को खुली छूट दिया कसाब से पूछ-ताछ करने के लिए । हमने इस आशा मे यह कदम उठाया था कि अमेरिका पाकिस्तान पर यह दबाव डालेगा कि वह २६/११ से जुड़े लोगों पर कानूनी कार्यवायी करे चाहे वे स्टेट एक्टर हों या नॉन स्टेट एक्टर हों , डेविड हैडली का एंगल तो तब चर्चा में था ही नही । आज हाल यह है कि ’न खुदा ही मिला न विसाले सनम’ , आज हमे पाकिस्तान भी बहला और घुमा रहा है और अमेरिका भी केवल मीठी मीठी बातें कर रहा है ठोस बात कुछ नही । भारत सरकार अपनी झेंप मिटाने के लिए कोशिश जारी रखने वाले बयान दे रही है । भारत सरकार कर भी क्या सकती है भारत के आर्थिक वर्चस्व मे वृद्धि के बावज़ूद हमारा स्थान हमेशा पाकिस्तान के साथ जोड़ कर ही देखा जाता है । भारत की आज तक की सभी सरकारें इसके लिए जिम्मेदार हैं क्योंकि जैसे ही पाकिस्तान को अमेरिका कोई सहायता , आर्थिक या सामरिक , देता है हम चिल्लाना शुरू कर देते हैं । मै पूछता हूं क्यों भाई , आप क्यों अपने को पाकिस्तान से जोड़ते हो , उसे जो भी मिलता है मिलने दो , आप मे इतना आत्मविश्वास होना चाहिए कि हमारी जो भी जरूरते बढ़ेगीं वह हम अपने आन्तरिक सोर्स से पूरा कर लेगें । यह न होकर जब हम शोर मचाते हैं और वैसा ही पाकिस्तान भारत को लेकर शोर मचाता है, जो उसके हितों के हिसाब से सही भी है, ऐसे में अमेरिकी थिंक टैंक यह मान कर चलता है कि भारत और पाकिस्तान को अलग करके नही देखा जा सकता । यहां छुट-पुट प्रतीकात्मक बातों पर नही बल्कि संपूर्ण परिदॄश्य की बात हो रही है । इसीलिए अमेरिका पाकिस्तान पर न तो अपेक्षित दबाव बना रहा है न स्वंय ही भारत को २६/११ से जुड़ी जानकारियां खुले दिल से दे रहा है ।

इन परिस्थितियों मे भारत की सरकार मे शामिल राजनैतिक पार्टियों मुख्यतया कांग्रेस को इस फ्रसट्रेसन से निकलने का रास्ता चाहिए , वह रास्ता कैसे पाया जा रहा है यह दिखाई दे रहा है । इस पर चर्चा से पहले मै २६/११ हमले के समय के माहौल पर ध्यान दिलाना चाहूंगा । उस हमले ठीक पहले के समय एक शब्दावली का प्रयोग मीडिया मे उछाला जा रहा था ’सैफ्रन टेरॉर’ । यह एक प्रायोजित कार्यक्रम था जिसके द्वारा आतंकवाद का एक संतुलन बनाने का प्रयास किया जा रहा था । जी हां अगर इस्लामिक आतंकवाद की जुमला प्रचलित है जिसे हिंदूवादी दल प्रयोग करते हैं तो उसके जवाब में सैफ्रन आतंकवाद चुनावी साल मे ढूंढा गया । ऐसा माहौल बनाने की कोशिश हुई थी कि उस दौरान बहुत सारी आतंक वादी घटनाएं हिंदूवादी ग्रुपों द्वारा की गयी और नागपुर एंगल रख कर उसे आर एस एस से भी जोड़ने की कोशिश हुई । पेड न्यूज के जमाने मे चुनाव जीतने के लिए ऐसे हथकंडों मे मीडिया का उपयोग भी भरपूर किया गया । यह शायद और बड़े स्तर पर होता लेकिन २६/११ ने फोकस वापस ला कर आतंक की मुख्य धारा पर केंद्रित कर दिया । जहां कांग्रेस अपने लिए माहौल बनाने मे प्रयासरत थी और भाजपा अपने वोट बैंक पर हमला होते देख मन मसोस रही थी , वहीं २६/११ ने अचानक ऐसा लगा कि पाशा पलट दिया , उसी दिन दिल्ली मे वोटिंग हो रही थी भाजपा को लाभ लेने की हड़बड़ी थी ऐसे मे गुजरात के मुख्यमंत्री श्री नरेंद्र मोदी घटना स्थल पर पहुंच गये । यह कार्य एक राजनैतिक दल द्वारा राष्ट्र के दुख की घड़ी का राजनैतिक लाभ उठाने के नंगे प्रयास के तौर पर देखा गया । इस सोच ने पाशा पलट दिया , बहुसंख्यक वर्ग इस बात से बिदक गया , साथ ही मुस्लिम समुदाय ने अधिक से अधिक संख्या मे निकल कर वोट किया और भाजपा का गणित उलट गया । इससे यह भी जाहिर होता है कि राजनैतिक लाभ लेने के मामले मे कोई दूध का धुला नहीं है । २६/११ के बाद सैफ्रन आतंक की चर्चा दब गयी मामला ठंडे बस्ते मे है शायद कभी उचित परिस्थितियां आयें तो इसका चर्चा को उछाला जायेगा ।

आज जब कूटनीतिक स्तर पर २६/११ के मामले मे धक्का लगा तो वापस अयोध्या और गुजरात मामले को गर्माया जा रहा है । मुझे लगता है कि भारत के राजनैतिक दल सामजिक वैमनस्य को हवा देकर हमेशा महौल को अपने लाभ के हिसाब से गर्माये रखना चाहते हैं । जब भाजपा शासन मे थी तो हमने देखा कि कैसे १९८४ के सिख विरोधी दंगो और बोफोर्स की दलाली को गर्माया जाता था । कांग्रेस उसके जवाब मे गुजरात के मुद्दे को और कारगिल युद्ध के समय कॉफ़िन इम्पोर्ट की दलाली का मुद्दा उठाती थी । आज बोफोर्स को दफ़न कर दिया गया , उसकी दलाली का पैसा लंदन के बैंक से निकल जाने दिया गया , उसको लेकर कोई जिम्मेदारी फिक्स नही हुई किसी बाबू की भी नही । कॉफ़िन मामला भी साथ ही साथ दफ़न हो गया , क्योंकि उसमे कुछ खास था भी नहीं केवल एक ओडिट ऑबजेक्सन को राजनैतिक मुद्दा बनाया गया था । अब १९८४ के दंगे और अयोध्या के बाबरी और गुजरात के २००२ के दंगों के मामले पर तमाशा जारी है ।

साथ ही यह सवाल भी जायज़ है कि हम किस अधिकार से पाकिस्तान और अमेरिका से यह अपेक्षा करते हैं कि वे खुले दिल से २६/११ के दोषियों को पकड़ने मे हमारी सहायता करें और सजा दिलवायें जब कि हमारी सरकार यह खुलासा करने के लिए तैयार नहीं है कि २६/११ के आरोपियों की सहायता करने वाले लोकल कौन थे । लोकल मुस्लिमों के शामिल होने की तरफ पूरा इशारा है और सरकार इसके राजनैतिक दुश्प्रभाव का आकलन करके उसे छुपा रही है ।

इस पूरे परिदॄश्य से क्या समझा जाय कि भारत मे जो भी जांच होगी , जो न्यायिक प्रक्रिया होगी या जो भी आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था होगी वह वोट बैंक को नज़र मे रख कर होगी , चाहे उससे हिंदू मुसलमान मे वैमनस्य बढ़े , चाहे हमारे इस विद्वेष का लाभ देश के बाहर बैठे दुश्मन कैसे भी उठावें ।

बुधवार, 24 मार्च 2010

राम - कृपानिधान ( राम नवमी के अवसर पर - एक दॄष्टिकोण )

प्रभु श्री राम पर कितना कुछ सब को पता है और कितना लिखा - पढ़ा जाता है इसे शब्दों मे बांधना एक साधारण मनुष्य के लिए अकल्पनीय है । दिन भर जाने अनजाने हम राम का स्मरण करते हैं । ऐसे मे मेरे जैसे एक साधारण व्यक्ति के लिए उनके जीवन चरित या महिमा की विवेचना , वह भी सीमित शब्दों मे थोड़ा मुश्किल सा लगता है । राम के कॄपानिधान रूप पर चर्चा करते हुए आज मै राम की उस प्रतिज्ञा को स्मरण करना चाहता हूं जो अक्सर ज्यादा चर्चित नहीं होती । इस घटना का ज़िक्र अरण्य कांड मे आता है ।

प्रभु श्री राम , लक्ष्मण और सीता जी चित्रकूट छोड़ कर वन के भीतरी भाग मे प्रवेश कर रहे हैं । वे सब ॠषि सरभंग के आश्रम मे पहुंचते हैं, वहां पर एक ऐसी घटना घटित होती है जो रामचरित मानस में अपनी तरह से अनूठी है । यहां ॠषि सरभंग श्री राम के स्वागत और सम्मान के बाद अपने तपोबल से उत्पन्न अग्नि मे जल कर प्राण त्याग देते हैं । उसके ठीक बाद आश्रम के पास अस्थियों का पहाड़ देख कर जब श्री राम के प्रश्न करने पर अन्य ऋषि लोग श्री राम को बताते हैं कि यह पहाड़ उन मुनियों की अस्थियों से बना है जिन्हे राक्षसों ने मार दिया है तो यह सुन कर प्रभु के नेत्रों मे आंसू भर आये और उन्होंने प्रतिज्ञा किया :

निशिचर हीन करहुं महि भुज उठाइ प्रण कीन्ह ।
सकल मुनिन्ह के आश्रमहिं जाइ जाइ सुख दीन्ह ॥

यह वह घटना है जो प्रभु के कॄपानिधान और दया सिंधु रूप को सामने लाती है । इस घटना के प्रभाव और महत्व को समझने के लिए हमे यह ध्यान देना होगा कि उस समय क्या हुआ होगा और उस समय क्या राजनैतिक और सामाजिक परिस्थितियां थी ।

ऐसा लगता है कि ॠषि सरभंग ने शायद राम का ध्यान पूरी तरह मुनियों और तपस्वियों की तकलीफों की तरह आकर्षित करने के लिए अग्नि समाधि ले ली इसे आप आत्म दाह भी कह सकते हैं । यह पूरी तरह से पूर्व नियोजित होगा क्यों कि रावण की लंका जैसे विकसित और शक्तिशाली साम्राज्य के मुकाबले अयोध्या ही दूसरा साम्राज्य था जो उसे परास्त कर सकता था । राम की कीर्ति अहिल्या उद्धार जहां राम दकियानूसी सामाजिक कुरीतियों से शापित अहिल्या को प्रतिस्थापित करते हैं ( इस पर चर्चा कभी फिर ) , विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा के समय और बाद मे सीता विवाह के समय शिव धनुष भंग आदि से पूरी तरह फैल चुकी थी, वे ही एक मात्र विकल्प जान पड़ते थे जो पीढ़ी दर पीढ़ी से नीरीह मुनियों के समाज को हर समय मौत के ग्रास बनने और भय और आतंक मे जीने के अभिशाप से मुक्ति दे सकने मे सक्षम थे । यदि बिना परिस्थिति को पूरी तरह समझे राम वहां से आगे चले जाते तो यह अवसर शायद फिर से नहीं मिलता । इसलिए यह स्वाभविक ही लगता है कि ॠषि सरभंग ने पूरे समाज के कल्याण के लिए राम का ध्यान पूरी तरह आकर्षित करना चाहते थे और इस लिए उन्होने अपने आप को न्यौछावर कर दिया । इस बात का प्रभु राम पर वांछित असर भी पड़ा और उन्होने आस पास के बारे मे पूरी जानकारी ली और वस्तुस्थिति से अवगत होने पर उनका मन ऐसा द्रवित हुआ कि उनके नेत्र भर आये । उन्होने दोनो हाथ उठा कर यह प्रतिज्ञा की कि धर्मपारायण जीवन यापन करने वाले निरीह मुनियों की अकारण हत्या करने और आतंकित करने वाले इन आतताइयों से इस पॄथ्वी को मुक्त कर दूंगा । यह किसी एक व्यक्ति या समूह को राहत देने की प्रतिज्ञा नहीं थी । यह पूरी पॄथ्वी को आतंक के राज से मुक्ति की प्रतिज्ञा थी । इसके बाद प्रभु सब मुनियों के आश्रमों मे गये और एक एक को ढ़ाढ़स दिया ।

यह घटना राम के शेष वनवास के दिनों के लिए जो उनका उद्देश्य था उसको सार्थक करने मे एक महती भूमिका निभाती है । अब आप पूरी तरह अन्दाजा लगा सकते हैं कि आगे की घटनाएं इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए या तो स्वाभाविक तौर पर हुई होगीं या कुछ को प्रायोजित किया गया होगा । संक्षेप मे नीचे दी गयी बातें विचारणीय हैं :

१. क्या राम विश्वामित्र मित्र के आश्रम मे इसी अन्तिम संकल्प मे सफलता के लिए तैयारी के लिए युद्ध विद्या सीखने गये थे । विवाहोपरान्त राज्य प्रबंध संभालने से पहले इन आततायियों का समूल नाश आवश्यक था । क्या राम का वनवास इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए था ।

२. क्या भरत राम से मिलने पूरी सेना के साथ इस लिए वन गये क्यों कि वे चाहते थे कि यदि राम को सैन्य बल की आवश्यकता हो तो अयोध्या उसके लिए तैयार है और राम वन के प्रथम छोर चित्रकूट से आगे बढ़कर वन के भीतरी भाग मे स्थित मुख्य लक्ष्य तक पहुंचने मे देर न करें । राम इस युद्ध को स्थानीय वनवासियों की सहायता से ही लड़ना चाहते थे और उसके लिए उचित कारण भी चाहते थे जिससे रावण को किसी भी हालात मे पीड़ित होने और बाहरी शत्रु के आक्रमण का आरोप लगाने का अवसर न मिले । क्या इसी लिए भरत के जाने के बाद राम ने चित्रकूट छोड़ दिया और वन के अत्यन्त भीतरी भाग मे प्रवेश कर गये ।

सीता हरण वह नैतिक कारण बना और सुग्रीव के रूप मे स्थानीय लोगों की सहायता मिली जिसने रावण को सहानुभूति का पात्र नहीं बनने दिया, चाहे इसके लिए परिस्थितियां निर्माण हुईं या की गयीं । राम रावण युद्ध एक आततायी साम्राज्य के विनाश के लिए हुआ जिसने एक ऐसे क्षेत्र मे यानी वनांचल मे मौत, भय और आतंक का राज फ़ैला रखा था ,जहां शायद पूरी तरह अयोध्या साम्राज्य का अधिकार नहीं था और जो शायद रावण के अधिकार में भी नहीं था, जबकि खर और दूषण की चौकी इस क्षेत्र मे स्थापित थी । ऐसे मे रावण राज को इस तरह के राजनैतिक और नैतिक हथियार से मारने की आवश्यकता पड़ी जो केवल सीधे युद्ध जीत कर नहीं प्राप्त की जा सकती थी । एक बात और रावण युद्ध के बाद या कहें उसके पहले ही राम ने विभीषण को लंका का राजा घोषित करके यह स्पष्ट कर दिया था कि लंका पर जीत का अर्थ अयोध्या के साम्राज्य का विस्तार नहीं होकर एक आततायी साम्राज्य व उसके तंत्र का अन्त ही था और राज सत्ता स्थानीय लोगों के पास ही रहेगी ।

इन सारी बातों के बावज़ूद उपर्युक्त घटना का यह महत्व है कि राम शायद स्थानीय लोगों के दुखों को अपनी आखों से देखने के बाद इतने द्रवित हुए कि उन्होने यह प्रतिज्ञा की , यही बातें अयोध्या मे उन्हे बताई गयी थीं मगर कानो सुनी होने के कारण उतनी असरकारक नहीं हुई होगीं । अत: यह घटना राम को अपना सब कुछ दांव पर लगाने के लिए प्रेरित करती है और राम - रावण युद्ध का निर्णायक कारक बन कर उभरती है तथा राम के कॄपानिधान रूप को भी उभारती है ।

आज भी हम ऐसे ही आतंकवाद के दौर से गुजर रहे हैं जब नीरीह लोग बेवजह मारे जा रहे हैं , आतंकवाद एक पूर्ण विकसित साम्राज्य द्वारा प्रायोजित है और ऐसे क्षेत्र मे केंद्रित है जहां भारत पूरी तरह अपना अधिकार नहीं कर पा रहा और कई खर दूषण अपनी चौकी स्थापित किये बैठे हैं । इसका इलाज आतंक के तंत्र के समूल विनाश से ही होगा और उसके लिए राम जैसे त्याग व राजनैतिक कौशल की आवश्यकता होगी जहां हम विस्तारवादी से हट कर सुधारवादी भूमिका मे स्थानीय लोगों को प्रेरित करके उनका साथ प्राप्त कर सकें ।

सोमवार, 22 मार्च 2010

डेविड कोलमैन हेडली की स्वीकारोक्ति ( 2 ) - परिप्रेक्ष : भारतीय न्यायिक व्यवस्था

दूसरा विचार यह मन मे आता है कि हैडली ने पकडे जाने के चंद दिनों के भीतर अपना अपराध मान लिया इसे चमत्कार ही कहूंगा क्यों कि उसके आतंकवादी गुट का एक अदना सदस्य यानी फुट सोल्ज़र , आमिर कसा़ब ने भारतीय एजेंसियों के सामने व कोर्ट की कार्यवायी के दौरान ऐसी ऐसी कहानियां व घुमावदार बयान दिये कि बड़े से बड़ा उपन्यासकार भी बगले झांकने पर मज़बूर हो जाय ।

हम लोग इससे क्या समझें कि हैडली कच्चा खिलाड़ी है और कसाब पक्का या हैडली यह बात जानता है कि अमेरिका मे जांच , मुकदमा ,उस पर फ़ैसला और फ़ैसले पर अमल एक निश्चित अवधि के भीतर हो जायेगा । जब कि भारत मे पहले तो जांच पर उंगली उठेगी, फिर मुकदमे की कार्यवायी के दौरान अनेक कारण गिना कर या बिना किसी कारण के ही उसे असीमित अवधि तक खींचा जा सकता है । एक बार फ़ैसला आ भी जाये तो अपीलें होगीं और उनके खिलाफ फिर से अपीलें होगीं । सारी प्रक्रिया पूरी करने के बाद उच्चतम न्यायालय के फ़ैसले के बाद भी उस पर अमल होना असंभव है । यह बात केवल आलोचना के लिए नहीं लिख रहा हूं , अफ़जल गुरू के मामले मे पूरा देश देख रहा है कि यहां के कुछ एन जी ओ व तथाकथित सेकुलर लोग यह मानने के लिए तैयार नहीं हैं कि न्याय हुआ है । वह चाहते हैं कि जांच दोबारा हो , फिर से मुकदमा चले यानी न्याय वही जो उनके मन भाये । जब तक वह फ़ैसला नहीं आयेगा तब तक कोई बात नहीं मानी जायेगी । उससे भी बढ़ कर इस देश की सरकार व उनकी सबसे सफल कांग्रेसी मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने मिल कर लगभग तीन सालों से अफ़ज़ल गुरू की फ़ाइल रोक रखी है । यानी फ़ैसले पर अमल नहीं होने दिया जा रहा है । जनता भी इससे खुश ही होगी यानी बहुमत वाले लोग अवश्य खुश होगें तभी तो उन्हे चुन रहे हैं । राजनीतिज्ञ तो कुर्सी देख कर ही काम करते हैं , अगर उन्हे ऐसे निर्णय को लटका कर रखने से कुर्सी मिल रही है तो वे क्यों निर्णय करेंगें ।

हमारी पूरी व्यवस्था ढुलमुल तरीके से चल रही है । न्याय के नाम पर मज़ाक हो रहा है । पूरा तंत्र केवल और केवल अपराधियों और जालसाजों को लाभ पहुंचा रहा है । केवल आदर्शवाद कीए बातें ही रह गयी हैं । मामला इतना बिगड़ गया है कि जहां हाथ डाल दो आप को सड़ांध ही मिलेगी । आम जनता को भरोसा नहीं है कि वह सुबह घर से निकल रही है तो शाम को वापस आयेगी कि नहीं लेकिन फिर भी जनता ज्यादा चिन्ता मे दुबली नहीं हो रही है । वे सोचते हैं जो मरे वे कोई मेरे रिश्तेदार तो थे नहीं , उन्हे शमशान पहुंचाने तक शोक मना लिया बस अब क्यों बेकार का रोना । राजनेताओं के बारे मे जो कहें वह थोड़ा है, हम रोज टीवी पर देखते हैं कि वे किसी भी गंभीर विषय पर ऐसे बात करते हैं जैसे किसी मुहल्ले की लड़ाकू औरतें शाम को लड़ती हैं ।

इन सारी बातों को हैडली और कसाब जैसे लोग अच्छी तरह जानते हैं इस लिए वे अमेरिका में कानून और न्यायालय से डरेगें लेकिन भारत में न्याय प्रक्रिया के दौरान मज़ाक बनायेंगे, मुस्करायेंगे और कहानियां सुनायेंगे साथ ही खाने मे बिरियानी, देखने के लिए टीवी और शायद एसी वाला कमरा भी मागेंगे ।



(हम एक अन्य पहलू पर विचार अगले हिस्से मे करेगें )

रविवार, 21 मार्च 2010

डेविड कोलमैन हेडली की स्वीकारोक्ति ( १ )

जिस बात की आशंका शुरू से जताई जा रही थी वह सत्य निकली, आखिर डेविड हैडली ने अमेरिकी कोर्ट मे अपराध की स्वीकारोक्ति कर लिया है । अब जैसा भारतीय समाचार माध्यम बता रहे हैं उनसे दो तीन पहलू उभर कर आ रहे हैं ।

पहला यह बात पूरी तरह से साफ़ हो गयी है कि डेविड हैडली एक डबल एजेंट है । यानी वह एफ़ बी आई का एजेंट था जो पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान मे ड्रग के काले धंधे और उससे प्राप्त धन के आतंकवाद मे इस्तेमाल व इनमे शामिल लोगों की जानकारी के लिए इस्तेमाल किया जा रहा था । शायद हैडली दूसरे ग्रुप यानी पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान में जिन लोगों के संपर्क मे आया उनके उद्देश्यों से भी प्रभावित हो गया और उनका साथ देने लगा या यूं कहें कि वह उनमे से एक बन गया । जासूसी एजेंटों के बारे मे यह कोई नयी बात नहीं है ऐसा अक्सर पाया जाता है कि जासूसों को अपने लक्ष्य के बारे मे अंदर की खबर पाने के लिए टारगेट से घुल मिल कर उनमे से एक होना ही पड़ता है । तो क्या हैडली इसी प्रक्रिया के दौरान अपने को स्थापित करने के लिए मुंबई पर हमले का ताना बाना बुनने मे शामिल हो गया ।

यह प्रश्न उठाने के पीछे मेरे शक का कारण यह है कि डेविड जब भारत मे अपना जाल फैला रहा था और अपने टारगेट की रेकी कर रहा था तो वह एफ बी आई के रडार से बाहर नहीं था , यहां तक कि मुंबई हमलों के बाद भी जब वह भारत आया तो यह बात अमेरिकी एजेंसियों को मालूम थी, जिसे उन्होने भारतीय एजेंसियों को नहीं बताया । इससे यही लगता है कि मुंबई हमलों से पहले उसके अमेरिकी आका लोग यह सोचते होगें कि उसकी कार्यवाई का परिणाम और उस पर प्रतिक्रिया इतने बड़े पैमाने पर नहीं होगी और हमलों के बाद जब वह भारत आया तो वे नहीं चाहते होगें कि वह भारत मे पकड़ा जाय । भारत मे पकड़े जाने पर हैडली यदि मुंह खोल देता तो अमेरिकी चालों के कई भेद सबके सामने आ जाते, जो शायद अमेरिका की घोषित नीतियों से मेल न खाते हों ।

अब आज की परिस्थिति में हैडली भारत नहीं लाया जा सकता, उससे पूछताछ भी शायद ही हो सके और होगी भी तो अमेरिकी देखरेख में । इस हालात मे भारतीय एजेसियां जो भी उत्तर पायेंगी वह केवल और केवल अमेरिकी नजरिये वाला होगा । अब तक , सैनिक भाषा मे कहें तो हैडली की ’ डि ब्रीफ़िगं’ हो चुकी है, वह मृत्युदंड के भय से मुक्त है और कुछ अन्य आश्वासनों ने भी लैस होगा । इसके बाद उससे पूछताछ करके क्या हासिल होगा और जो पता चलेगा उससे सच्चाई से पर्दा उठेगा या उस सच्चाई से हम अवगत होगें जो अमेरिका चाहता है अमेरिका को सूट करता है , जिससे भारत और पाकिस्तान के बीच शक का जो महौल है वह कम नहीं होगा बल्कि और बढ़ेगा ।

(हम दूसरे और तीसरे पहलू पर विचार अगले हिस्सों मे करेगें )

शनिवार, 20 मार्च 2010

थोड़ा और उन्मुक्त

जीवन यात्रा के मध्यान्ह में,
एक दिन यूं ही बैठा था मै,
सोचता हुआ मन ही मन,
मूंद कर आखों की पलकें कुछ क्षण,
एक बार वापस जाऊं बचपन में,
फिर वो सब करूं जो किया था मैने,
वो भी करूं जो नहीं किया,
जो किया उसे उसी तरह से,
या किसी और तरह से,
जो नहीं किया डर के मारे,
उसे भी करूं सारे डर छोड कर किनारे,
सावन भादों के महीने में,
जलप्लावित तालाब में कूद जाऊं,
पार कर लूं एक ही गोते में,
या उसके काटता रहूं कई चक्कर ,
चढ़ जाऊं आम के ऊचें पेड़ की,
सबसे ऊचीं डाल पर,
तोड़ने वह पका आम,
जिसे देख कर कभी मन ललचाया था,
निकल जाऊं अकेले अंधेरी मध्य रात में,
खेतों की तरफ़, जहां है वह भूतों वाला बरगद,
उठा लूं अपनी साइकिल, चलाता रहूं यहां से वहां,
बिना किसी से पूछे, बिना बताए,
कह दूं सब टीचरों से,
मत पढ़ाओ मुझे केमिस्ट्री, बायोलोज़ी,
बस दे दो कहानियों की किताबें और पढ़ने दो वही,
वो जो क्लास में गुडिया सी थी प्यारी सी,
कर लूं उससे बहुत सारी फ़ालतू सी बातें,
जाड़े की सर्द रातों में सो जाऊं दादी की गोद में,
या उनींदा ही पड़ा रहूं चुपचाप,
चाहे कोई बुलाता रहे कितना भी,
इन्ही बेतरतीब से उठते खयालों के बीच,
सोचता रहा कि एक और यदि मिले मौका,
जी लूंगा अबकी बार थोड़ा और उन्मुक्त होकर,
पर आंख खोली तो बचपन न था वहां,
थे दो बूंद आंसू और उनसे भीगते मेरे गाल।

सोमवार, 15 मार्च 2010

महिला आरक्षण, महंगाई, पिछड़ा और सेकुलर राजनीति - भाग २(यक्ष प्रश्न का समाधान)

इस भाग मे इस यक्ष प्रश्न पर विचार करते हैं कि महिला आरक्षण पर कांग्रेस की जल्दबाजी के पीछे तत्कालिक और दीर्घकालिक रणनीति क्या है । यह मानना ही पड़ेगा कि एक राजनैतिक दल कोई ऐसा कदम नहीं उठायेगा जिससे उसे कोई तात्कालिक लाभ हो जाय चाहे दीर्घकालिक नुकसान हो, कम से कम जानबूझ कर तो नही ही उठायेगा । बल्कि वह तो ऐसा कदम उठायेगा जिससे उसे तात्कालिक कुछ नुकसान यदि हो भी जाय परन्तु दीर्घकालिक लाभ हो । मेरे विचार मे महिला आरक्षण पर कांग्रेस द्वारा इस समय उठाये कदम को इसी परिप्रेक्ष मे देखना उचित होगा ।

महंगाई की जवाबदारी से बचना तात्कालिक हो सकता है लेकिन यह मानना मूर्खता होगी कि कांग्रेस ने तात्कालिक लाभ के लिए दीर्घकालिक नुकसान उठायेगी । बल्कि उसका आकलन यह होगा कि उसे दीर्घकालिक लाभ भी मिलेगा । इसके बाद यह बात विचारणीय हो जाती है कि क्या हैं वे दीर्घकालिक लाभ और यदि सारा क्रेडिट व लाभ सिर्फ़ कांग्रेस को मिलने वाला है तो देश की तीन बड़ी पार्टियों कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी व सी पी एम में , जो कि तीन अलग राजनैतिक विचारधाराओं के आधार पर चलती हैं उनमे एकमत क्यों और कैसे हो गया है । यह सब जानते हैं कि बहुत कम ही या यूं कहें कि शायद ही कोई विषय हो जिस पर ये तीनो एक मत होते हों , चाहे मामला आर्थिक हो, राजनैतिक हो या विदेश नीति का हो । अक्सर कुछ न कुछ विवाद अवश्य रहता है । ऐसे मे क्या वजह है कि महिला आरक्षण पर ऐसी एकजुटता कि सरकार के मित्र दलों के सांसदो को इतिहास मे पहली बार मार्शलों के ज़रिये राज्यसभा से बाहर कर दिया गया ? बिना बहस के वोट कराने की तैयारी कर ली गयी, फिर झट से एक बह्स भी हो गयी जिसे संज्ञा दी गयी कि यह एक डि फक्टो बह्स थी जो डि ज्युरे भी मान ली गयी । भाई वाह ऐसा सामंजस्य कि पिछले बीस सालों मे पहली बार ऐसा मौका आया कि कोई सरकार गिराने के मुद्दे को छोड़ कर एक सकारात्मक मुद्दे पर तथाकथित सेकुलर राजनीति के पुरोधा जो सेकुलरिज्म का सर्टिफ़िकेट भी बांटते रहते हैं उन्होने भाजपा के साथ सुर मे सुर मिलाया और वोट किया ।

राजनीतिक इतिहास मे १९८९-९० एक मील का पत्थर जैसा है । इस वर्ष मंडल कमीशन के आंदोलन और उसके प्रत्युत्तर मे राममंदिर आंदोलन के बाद से अन्य पिछड़ा वर्ग व मुस्लिम वोटों का जो ध्रुवीकरण हुआ है कि ये दोनो वर्ग पूरी राजनीति का केंद्रबिंदु हो गये हैं । सर्व श्री लालू यादव , मुलायम सिंह यादव और शरद यादव की तिकड़ी ने सत्ता की चाभी लगभग अपने हाथ मे रख ली है । आप यह देख सकते हैं कि कोई भी सरकार बननी इन तीनो मे से एक या दो को साथ लिए बिना असंभव सी हो गयी है । इस राजनैतिक ताकत के आगे कांग्रेस , भाजपा और कम्युनिस्ट यानी तीनों विचारधारा वाली राजनैतिक शक्तियां अपने आप को बंधन युक्त पाती हैं और कुछ हद तक राजनैतिक ब्लैकमैल की शिकार भी । इन परिस्थितियों मे इनका तोड़ तो एक ही संभव है कि या तो इनके वोट बैंक में बिखराव हो या एक नया वोट बैंक खड़ा हो जो इनकी ताकत को घटा दे ।

तो असल मे यक्ष प्रश्न यही है कि क्या तीनो राष्ट्रीय पार्टियों और उनमे से ख़ासकर कांग्रेस के विचार मे यह नया वोट बैंक ओबीसी और माइनॉरिटी वोट बैंक की मौजूदा धार को कुंद करके उनकी सीटों को बढ़ाने मे सहायक होगा । इसी लिए कांग्रेस के कोर ग्रुप जिसमे अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री के अलावा कांग्रेस पार्टी के चाणक्य श्री प्रणव मुखर्जी ने ऐसा दांव खेला है कि महंगाई की चर्चा अब नेपथ्य मे चली गयी, हंगामा महिला आरक्षण पर हो रहा है और साथ ही भाजपा व कम्युनिस्ट दिल मसोस कर समर्थन देने के लिए बाध्य हैं, आखिर मुख्य श्रेय कांग्रेस ले भी ले तो भी जितना संभव हो ये बेचारे भी कुछ तो लाभ पा ही जायेंगे । इस तरह के साफ़ संकेत तीनों राष्ट्रीय दलों की मीडिया पोजिशनिंग से मिल भी रहा है । इसके उलट अगर भाजपा व कम्युनिष्ट यदि बिल का एनकेनप्रकारेण विरोध करेंगे तो भी कांग्रेस तो लाभ मे ही रहेगी , भाजपा और कम्युनिष्टों के हिस्से केवल महिला विरोधी होने की बदनामी ही आयेगी जिससे महिला वोटों का नुकसान होगा । यानी कांग्रेस के दोनो हाथों मे लड्डू है । यदि यह सब संभव हुआ तो सबसे अधिक नुकसान यादव तिकड़ी को होगा और अन्य पिछड़े व अल्पसंख्यक वोट बैंक के कमजोर पड़ते ही इनकी राजनैतिक ताकत का भी पराभव हो सकता है । यही वजह है कि ये तीनो सबसे ज्यादा विरोध कर रहे हैं व कुछ हद तक बौखलाए भी हुए हैं ।


अन्त मे वही प्रश्न फिर से कि क्या यह महिला आरक्षण का मुद्दा महंगाई से ध्यान हटाने के साथ साथ पिछड़े और सेकुलर राजनीति का अन्त कर देगा ? इसका उत्तर तो भविष्य के गर्भ मे है । यह मुद्दा जैसे जैसे आगे बढ़ेगा , नयी नयी परिस्थितियां उत्पन्न होंगी उन पर हम सब विचार प्रकट करते रहेंगे ।

शनिवार, 13 मार्च 2010

महिला आरक्षण, महंगाई, पिछड़ा और सेकुलर राजनीति - भाग १

यूपीए और श्री मनमोहन सिंह की दूसरी सरकार के एक वर्ष पूरे होने मे अभी कुछ महीने शेष हैं लेकिन इस बीच महौल राजनैतिक सरगर्मी से काफी भर गया है । यह किसी सरकार के लिए कुछ जल्दी लगता है क्योंकि पहले एक वर्ष या उससे कुछ ज्यादा ही समय तक अक्सर सरकारें हनीमून पीरियड का अनुभव करती हैं। वैसे तो समर्थक मीडिया के चलते श्री मनमोहन सिंह का पहला पूरा कार्यकाल हनीमून का रहा था क्योंकि मीडिया उनकी सरकार पर नज़र रखने के बज़ाय मुख्य विपक्षी दल भाजपा के पीछे पड़ा रहा था । परन्तु दूसरे कार्यकाल मे सरगर्मी कुछ जल्दी ही झेलनी पड़ रही है । इसका कारण है कि इस दस महीने मे महंगाई चरम पर पहुंच गयी है । सरकार अन्य वस्तुओं के दाम बढ़ने पर टरकाऊ जवाब दे कर बच निकलती है परन्तु खाद्य पदार्थों के दाम बेतहासा बढ़ने से अब यह संभव नही रहा । यह बात कृषि मंत्री शरद पवार के ज्योतिषी वाले जवाब के बाद सब समझ गये हैं ।

इस सबके साथ विपक्ष की पार्टियों मे अप्रत्यक्ष समझौते के तहत एकजुटता दिखी । इससे निपटने के लिए सरकार ने पहले वही पिछले १५ सालों से कामयाब फार्मूले का सहारा लिया कि भारतीय जनता पार्टी के साथ सेकुलर फोर्सेस कैसे खड़ी नज़र आयेंगी? लेकिन बात यह है कि महंगाई एक सर्वव्यापी विषय है जिसका असर सब पर पड़ता है इसलिए सारे विपक्षी दल सेकुलरिज्म की छूआछूत से परे हट कर, एक साथ दिख सकते हैं । साथ ही सरकार को कटघरे मे खड़े करने का इससे अच्छा मौका नहीं हो सकता था और इसका लाभ विपक्ष ने उठाया । यह खबर भी जोरशोर से आ रही थी कि सारे दल मिल कर फ़ाइनेंस बिल पर कट मोसन लायेंगे । ऐसे मे साफ था कि विपक्षी एकता न टूटी तो सरकार गिर भी सकती है या छोटे छोटे दलों के हाथ ब्लैक मेल हो सकती है। इसी समय कुछ टीवी कार्यक्रमों के ज़रिये इस तरह के सवाल उठा कर महौल बनाने की कोशिश भी हुई कि कम्युनिस्ट और लालू, मुलायम कैसे भाजपा के साथ खड़े होगें लेकिन इसका असर न होते देख सरकार की ओर से एक धमाकेदार खबर आयी कि सरकार लोक सभा और विधान सभाओं मे महिलाओं को ३३% सीटें आरक्षित करने वाले महिला आरक्षण बिल को संसद के इसी सत्र मे पास करवायेगी ।

जो पहला सवाल मेरे मन मे आया कि इस बजट सत्र मे जहां सरकार की प्राथमिकता फ़ाइनेंस बिल होना चाहिए वहां यह नया फ़ोकस क्यों ? इस तरह का तुरत फ़ुरत का धमाकेदार निर्णय निकट के इतिहास मे एक बार पहले भी हो चुका है जब १९८९ मे तत्कालीन प्रधान मंत्री वी पी सिंह ने अपने सहयोगी से दुश्मन बने देवी लाल की किसान रैली के उत्तर में, रातों रात मंडल कमीशन लागू करने की घोषणा करके पिछडों का मसीहा बनने की कोशिश की थी । इस प्रक्रिया में पिछडे वर्ग के सारे नेता देवी लाल से अलग हो गये थे जैसे लालू, मुलायम, शरद और नितीश । सभी जानते हैं कि श्री वी पी सिंह को इसका लाभ तो नहीं हुआ लेकिन उस राजनीति का असर गया नहीं है । इस पर चर्चा दूसरे भाग मे करेंगे ।

यह तो साफ ज़ाहिर है कि सरकार सोचती है कि इस बात पर हंगामा होगा । भाजपा कभी कांग्रेस के साथ मिल कर किसी बिल पर वोट नहीं करना चाहेगी और बहाने बनायेगी , साथ ही लालू मुलायम भी इसका समर्थन नहीं करेगें। इस अफ़रा तफ़री के महौल मे महंगाई की चर्चा नेपथ्य मे चली जायेगी । ऐसा कुछ हद तक हो भी गया लेकिन एक दांव उल्टा पड़ गया जब सरकार के समर्थक वर्ग भी उसकी नीयत पर सवाल उठाने लगे। यहीं सरकार घिर गयी, अब उसे अपनी साख बचाने के लिए राज्यसभा मे वोटिंग करवाने के लिए बाध्य होना पड़ा । इसमे फायदा उठाने के इरादे से यह प्रचारित करना शुरू किया गया कि श्रीमती सोनिया गांधी ने इस बिल को अपना निजी एजेंडा बना लिया है। राज्यसभा में वोटिंग के बाद श्रीमती सोनिया गांधी पहली बार खुल कर टीवी पर आयीं और अपने पसंदीदा चैनेल एनडीटीवी की बरखा दत्त को इंटरव्यू भी दिया और साथ ही संसद के बाहर सारे चैनेल्स को न्यूज बाइट भी दी । यह क्रेडिट लेने की जबरदस्त कोशिश थी जिसमे प्रधानमंत्री जी गायब दिखे और मीडिया ने इसका नोटिस भी लिया ।

इसके साथ एक कोलेट्रल डैमेज हुआ जिसमे सरकार को अपने ही मित्र पार्टियों के सांसदो को मार्शलों द्वारा सदन के बाहर निकलवाना पड़ा, जिससे उसके दोस्त बिदकते नज़र आ रहे हैं, उन्होने अपना समर्थन वापस ले लिया है । सरकार एक या दो सीटों से ही बहुमत मे बची है। ऐसे हालात में सरकार को हमेशा बचाव की मुद्रा मे रहना पड़ेगा । जिस बात से बचने के लिए महिला आरक्षण बिल को लाया गया वह स्थिति अब हमेशा खड़ी रहेगी । ऐसे हालात मे अब यह साफ नज़र आ रहा है कि कांग्रेस समझदारी दिखा रही है और जैसा १९८९ मे श्री वी पी सिंह ने किया था, उसके उलट कांग्रेस बात को ज्यादा दूर नहीं ले जायेगी । इस तरह ऐसा लगता है कि महिला आरक्षण विधेयक अब फिर एक बार सर्वानुमति की कोशिश के नाम पर लोकसभा मे या तो पेश ही नहीं होगा या पेश हुआ भी तो पास नहीं होगा और लटका रहेगा ।

(महिला आरक्षण बिल के केंद्र बिंदु बनने से संभावित दूरगामी राजनैतिक परिणाम पर विचार अगले भाग मे प्रस्तुत करूंगा )

शनिवार, 6 मार्च 2010

मक़बूल फ़िदा हुसैन के बहाने

हुसैन की पेंटिंग, उनका विरोध और उनके निर्वासन के बारे मे बहुत कुछ लिखा जा रहा है । मेरे विचार मे हुसैन का विरोध ज्यादा इस कारण नही है कि इन पेंटिंगों मे हिंदू देवियों को नंगा दिखाया गया है । इस देश में ऐसे कई मंदिर हैं जहां नग्न अवस्था में मूर्तियां और भित्ति चित्र हैं और वे संस्कृति का हिस्सा हैं । यहां नागा साधुओं और दिगम्बर जैन संतों का ऐसा समाज है जो संस्कृति का हिस्सा है । वे सब नग्न रहते हैं क्योंकि इस बात में उनकी पवित्र आस्था है । लेकिन हुसैन साहब के बारे में यह सोच है कि जिन्हे हुसैन पसंद नही करते उसे नंगा दिखाते हैं । तो उनके द्वारा देवी देवताओं का नग्न चित्रण श्रद्धा के कारण नही बल्कि नफ़रत के कारण होना माना जा रहा है । इसके लिए उनकी हिटलर और मदर टेरेसा की पेंटिंग का उदाहरण दिया जाता है ।

दूसरा कारण यह भी है कि हुसैन की एक फिल्म मे एक गाने को लेकर मुस्लिम कट्टरवादियों द्वारा हंगामा किया गया था । उस गाने मे शायद नायिका के लिए " नूर अल नूर " शब्द का इस्तेमाल हुआ था, जिस पर विरोध करने वालों का कहना था कि इस शब्द से पैगंबर हज़रत मुहम्मद साहब (PBUH) को संबोधित किया जाता है इसलिए इसे किसी और के लिए इस्तेमाल नही किया जा सकता और इसे फिल्म से हटाया जाय । इसके जवाब मे हुसैन साहब ने फिल्म ही वापस ले ली, उसका वितरण और प्रसारण रोक दिया था और सारा आर्थिक नुकसान स्वंय उठाया था । जब उस समय उनसे इसका कारण पूछा गया तो उन्हों ने कहा था कि यह उनकी फिल्म है वे उसके साथ कुछ भी कर सकते हैं और इस पर सफाई देना उनके लिए आवश्यक नहीं है । हो सकता है कि हुसैन साहब ने यह कदम दुखी होकर या बेबस होकर उठाया हो परन्तु हिंदू चरम पंथी इसे उनके व्यवहार मे दोहरे मानदंड के रूप मे साबित करते हैं । इससे यह कहा जाता है कि देखो जब मुसलमानों ने एक शब्द का मुद्दा उठाया तो फिल्म ही वापस ले ली , लेकिन हिंदू देवी देवताओं की नंगी तस्वीरें बना कर उनका अपमान कर रहे हैं और सीनाजोरी कर रहे हैं । इस पर उनका मुसलमान होना भी एक मुद्दा बन जाता है ।

भारत मे इस समय हर धर्म, जाति और क्षेत्र से एक अतिवादी वर्ग उभर कर सामने आ रहा है जो हंगामा खड़ा करने की कोशिश मे लगा रहता , क्योंकि इस बहाने से उसकी दुकानदारी चल जाती है । आज के हज़ार चैनेलों के युग में यह और भी आसान है। बस आप बीस पच्चीस आदमी जुटाइये और पांच दस चैनेल वालों को बुलाइये और तमाशा करिये , उसे फिल्मों जैसा शूट कर लिया जायेगा और फिर बार बार वही सीन टीवी पर ऐसे प्रसारित किया जाता है जैसे पूरा देश उस हंगामे मे शामिल है । इसका प्रभाव ज्यादा पड़ता है , वास्तविकता से कई हज़ार गुना ज्यादा । इसका फ़ायदा ऐसे अतिवादी लोग उठा रहे हैं और मीडिया अपनी टीआरपी के लिए इन्हे उकसाता भी रहता है ।

भारत सरकार, विभिन्न प्रदेशों की सरकारें और तथाकथित सेकुलर वर्ग भी हिंदू अतिवादियों का विरोध तो जम कर करते हैं, यहां तक कि उन्हे परास्त करने के लिए सारे नियम, कानून और भाषा संयम भी तोडने में उन्हे कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाते। वहीं जब मुद्दा मुस्लिम और क्रिस्चियन चरम पंथियों का आता है तो विरोध नरम शब्दों नाम मात्र का होता है और कई बार सेकुलर ताकतें सहयोग की मुद्रा मे भी आ जाती हैं । जैसे कि सटानिक वर्सेस पर कांग्रेस सरकार, तस्लीमा नसरीन के मामले पर सीपीएम, मी नाथूराम गोड़से बोल्तोय के मामले पर महाराष्ट्र सरकार और द विंची कोड के मुद्दे पर आंध्र प्रदेश की सरकार का उदाहरण सबके सामने है। ऐसे और भी बहुत उदाहरण गिनाये जा सकते हैं , इन से यह साबित होता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सरकारों और सेकुलर वादियों और बुद्धिजीवियों के व्यवहार मे सम रूपता नहीं है । यह किसी न्याय और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए लड़ाई के बज़ाय अहं और राजनैतिक वर्चस्व की लड़ाई नज़र आती है ।

सरकार को एक नीति बनानी चाहिए और उस पर एक सा व्यवहार करना चाहिए, इसके लिए यदि राजनैतिक कीमत भी यदि देनी पड़े तो भी , वरना यह सब सिर्फ़ तमाशेबाजी ज्यादा कुछ नहीं माना जायेगा ।

और अन्त में हुसैन को कतर जैसे देश में ज्यादा स्वतंत्रता मिलेगी यह सोचना मूर्खता ही होगी, कतर कोई अमेरिका या यूरोप नहीं है । इस तरह की गफ़लत जो तथाकथित सेकुलर फैला कर प्वाइंट स्कोर करने की कोशिश कर रहे हैं, वह सिर्फ़ और सिर्फ़ हास्यास्पद है।