आदरणीय रवीश जी,
मैं तो आपका प्रशंसक हूं परन्तु जिस तरह से इतिहास को एक संकीर्ण दॄष्टि से और कांग्रेसी नज़रिये से देखा जा रहा है वह अनुचित है । आपका यह कहना कि मुस्लिम लीग ने १९२० के बाद अलग राह पकडी तो इस पर भी ध्यान दीजिएगा :
खिलाफ़त आन्दोलन का समर्थन की क्या आवश्यकता थी, क्या वह निर्णय मुस्लिम तुष्टीकरण का कांग्रेसी शुरुआत नही था । वह एक कदम भारत की राजनीति में हिंदू दक्षिणपंथ की शुरुआत, मुस्लिम लीग को एक्स्ट्रीम डिमांड की तरफ़ धकेलने वाला नही साबित हुआ ।
दूसरा ,इन बातों का भी खुलासा होना चहिए कि क्या जिन सूबों मे जिन्ना साहेब और लीग मुस्लिम शासन की मांग कर रहे थे वे अब पाकिस्तान में हैं या नहीं । जितना रिज़र्वेसन सरकारी नौकरियों में मांग रहे थे वह पाकिस्तान और भारत मिलाकर उससे ज्यादा प्राप्त है या नहीं । और क्या आज कांग्रेस की सरकार मुसलमानों को भारत में आरक्षण देने की पूर्ण तैयारी में है या नहीं तथा कुछ राज्यों में कोर्ट के दखल बावजूद कांग्रेस ने आरक्षण दिया या नहीं ।
अगर पिछले ७५ - ८० सालों की राजनीति का अवलोकन किया जाय तो यह कहना अतिसयोक्ति न होगी कि जिन बातों को १९३० में रिजेक्ट किया २००९ में वे सब पिछले दरवाजे लागू हो रही हैं पूरे सेकुलर सर्टीफ़िकेट के साथ क्योंकि कमिटेड मीडिया और सच्चर कमेटी साथ हैं और वोट बैंक पर नज़र है । इसके बाद यह बहस तो जायज है कि बटवारा क्यों हुआ और क्या जो उद्देश्य बटवारे का था वह हासिल हुआ । इस पर बहस से क्यों भागते हैं और हंगामा खड़ा करके, तथ्यों को घुमा कर असली मुद्दे को दबा देना चाहते हैं । इस पर बहस आज नही तो कल होगी ही , सेकुलरिज्म का बुखार थोड़ा कम होगा तब होगी, शायद कुछ सालों बाद ।
और अंत में आपने मुस्लिम लीग और कांग्रेस के १९३७ के संयुक्त प्रांत के समझौते की तुलना २००९ के लालू , मुलायम और पासवान से किया यह भी अनुचित है, क्योंकि यह सब जानते हैं कि २००९ के चुनाव में इनका कोई समझौता नहीं था एक सीट पर भी नहीं । तुलना अगर जायज है तो एन सी पी से जहां महाराष्ट्र में समझौता था अन्य जगह नहीं । चुनाव के बाद दोनों सरकार में शामिल हैं । दोनों का आपस में विरोध भी कम नहीं है, आखिर सुषमा स्वराज ने तो सिर्फ़ धमकी दिया सिर मुडाने का, पवार साहेब ने तो पार्टी तोड़ी । अगर आप का यह कहना ठीक है कि लीग और कांग्रेस १९३७ में साथ खड़े नहीं रह सकते थे तो चुनाव पूर्व समझौता क्यों किया था चाहे कुछ सीटों का ही सही ।
एन डी टी वी पर तो आप कमिटेड हैं चैनेल की वजह से, पर ब्लोग पर भी वही कांग्रेस प्रवक्ता वाला तेवर । माफ़ी चाहूंगा अगर कुछ अनुचित लगा हो तो मगर आपकी टिप्पड़ी का इन्तज़ार रहेगा ।आपका प्रशंसक,
August 19, 2009 1:32 AM
रवीश जी की टिप्पडी आई :
विजय जी,
मैं कांग्रेस का प्रवक्ता नहीं हूं। न तो टीवी पर न ही ब्लॉग पर। विभाजन पर क्यों नहीं बहस होनी चाहिए? आपको क्या लगता है कि बहस नहीं हुई या हो रही है? कौन सा तथ्य मैंने मोड़ दिया है मैंने। जसवंत सिंह एक प्रमाण दे दें कि किस बैठक में जिन्ना और नेहरू के बीच १९३७ में यूपी में गठबंधन सरकार बनाने का फैसला हुआ था? दे दें तो अच्छा है। मैं कह रहा हूं कि अभी तक इसका कोई प्रमाण नहीं मिला है। नए तथ्य के साथ इतिहास की सोच बदलती है।
सेकुलरिज्म बुखार नहीं है। सांप्रदायिकता बुखार है। आप बात को कहीं से कहीं ले जा रहे हैं। कांग्रेस मुसलमानों के लिए आज क्या कर रही है उसका इस लेख से कोई संबंध नहीं है। मैंने जिन्ना की भूमिका के आस पास की राजनीतिक प्रक्रिया का ज़िक्र करने के लिए लेख लिखा
मुलायम का ज़िक्र इसलिए किया गया है ताकि जो इतिहास के विद्यार्थी नहीं हैं उनसे आज के रूपक के सहारे संवाद किया जा सके कि किस तरह से राजनीति में तब भी शक या गेस के आधार पर दलीलें गढ़ी जाती रही है। तुलना करने का इरादा बिल्कुल नहीं था।
August 19, 2009 9:१९ अ म
अंत में यह मैं अपने ब्लोग पर दे रहा हूं ताकि सभी अपना मत दे सकें और बहस आगे बढ़े ।