हर तरफ़ उगे हैं,
आइने ही आइने,
जिनमे दिखायी पड़ते हैं,
अनगिनत प्रतिबिंब।
चाहता हूं इनमे दिखें,
केवल मोहक मनभावन,
पर दिखायी देते हैं,
कुंठित और बीभत्स।
बीभत्सता जो है सृजित,
हमारे कलुषित विचारों से,
जो है पोषित पुष्पित पल्लवित,
द्वेष लालच व साज़िश से।
जब बंद करता हूं आखें,
तो सारे बिंब समाते मस्तिष्क में,
रोक लूं आखों को देखने से,
कैसे रोकूं सोचने से मस्तिष्क को।
क्या करूं कैसे बचूं,
मारकर पत्थर जो तोड़ा इनको,
हर टूट से बनेंगे सैकडों आइने,
और उनमे उतने ही प्रतिबिंब।
रुक गया हाथ रख दिया पत्थर,
समझ गया कि समाधान पत्थर नहीं,
इसके प्रहार से जन्म लेता है रक्तबीज,
जो केवल बढ़ाता है बीभत्सता।