मनुष्य जीवन भर मंजिल की तलाश में भागता है और मंजिल उससे दूर होती जाती है, जैसे जल की तलाश में मृग मरू भूमि में मरीचिका का अनुभव करता है, संत कबीर के शब्दों में : पानी में है मीन पियासी
मंगलवार, 10 नवंबर 2009
श्री प्रभाष जोशी को एक पाठक की श्रद्धांजलि
उस दिन मै आफ़िस जा रहा था, जैसा अक्सर होता है सुबह की भागम्भाग में टीवी नहीं देखा था, रास्ते में एफ एम पर समाचार सुना जोशी जी के निधन का समाचार । मुझे एक ही बात याद आयी
" सबको खबर दे सबकी खबर ले" ।
यह नारा या कहें प्रचार का बोर्ड जब जनसत्ता की शुरुआत दिल्ली में हुई थी अस्सी के दशक के शुरू में, तब दिल्ली में जगह जगह दिखाई पड़ता था । मैं उन दिनो दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ता था। इस टैग लाइन का दूसरा भाग - सबकी खबर ले, का बहुत अच्छा लगता था खास कर अखबार भी अच्छें अच्छों की खबर सच - मुच बहुत अच्छी तरह से लेता था । सभी लोग कहा करते थे भैया जनसत्ता पढ़ो उसका सम्पादकीय जोरदार होता है । इस टैग लाइन में एड एजेन्सी के कापी राइटर का रोल हो सकता है परन्तु उसे हक़ीकत का जामा जोशी जी कलम ने ही पहनाया था।
उन्ही दिनों ’काक’ के चुटीले कार्टून भी जनसत्ता की तरफ़ आकर्षित करते थे। बाद में काक नवभारत टाइम्स में छपने लगे । फ़िर पता नही कहां गये, कम से कम मुझे नहीं पता । वैसे कार्टून का इन्तज़ार हमेशा रहेगा ।
खैर, असली बात जोशी जी की कलम की धार ने उन दिनों दिल्ली में नवभारत टाइम्स और हिन्दुस्तान के एक क्षत्र राज को तोड कर जनसत्ता का पाठक वर्ग पैदा किया । उन में से एक मैं भी था जबकि मेरे पिताजी ’टाइम्स’ मे कार्यरत थे और घर में सिर्फ़ टाइम्स के ही प्रकाशन आते थे ।
मैं पत्रकार नहीं, उनसे मेरी पर्सनल मुलाकात नही थी मगर एक पाठक के रूप में अवश्य जानता था । उनकी कमी खलेगी । उन्हे श्रद्धांजलि ।
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सच है संस्मरण
जवाब देंहटाएंयादों में जीवंत।
शब्द पुष्टिकरण हटायेंगे तो अच्छा रहेगा।
अविनाश जी ,धन्यवाद ।
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