इस भाग मे इस यक्ष प्रश्न पर विचार करते हैं कि महिला आरक्षण पर कांग्रेस की जल्दबाजी के पीछे तत्कालिक और दीर्घकालिक रणनीति क्या है । यह मानना ही पड़ेगा कि एक राजनैतिक दल कोई ऐसा कदम नहीं उठायेगा जिससे उसे कोई तात्कालिक लाभ हो जाय चाहे दीर्घकालिक नुकसान हो, कम से कम जानबूझ कर तो नही ही उठायेगा । बल्कि वह तो ऐसा कदम उठायेगा जिससे उसे तात्कालिक कुछ नुकसान यदि हो भी जाय परन्तु दीर्घकालिक लाभ हो । मेरे विचार मे महिला आरक्षण पर कांग्रेस द्वारा इस समय उठाये कदम को इसी परिप्रेक्ष मे देखना उचित होगा ।
महंगाई की जवाबदारी से बचना तात्कालिक हो सकता है लेकिन यह मानना मूर्खता होगी कि कांग्रेस ने तात्कालिक लाभ के लिए दीर्घकालिक नुकसान उठायेगी । बल्कि उसका आकलन यह होगा कि उसे दीर्घकालिक लाभ भी मिलेगा । इसके बाद यह बात विचारणीय हो जाती है कि क्या हैं वे दीर्घकालिक लाभ और यदि सारा क्रेडिट व लाभ सिर्फ़ कांग्रेस को मिलने वाला है तो देश की तीन बड़ी पार्टियों कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी व सी पी एम में , जो कि तीन अलग राजनैतिक विचारधाराओं के आधार पर चलती हैं उनमे एकमत क्यों और कैसे हो गया है । यह सब जानते हैं कि बहुत कम ही या यूं कहें कि शायद ही कोई विषय हो जिस पर ये तीनो एक मत होते हों , चाहे मामला आर्थिक हो, राजनैतिक हो या विदेश नीति का हो । अक्सर कुछ न कुछ विवाद अवश्य रहता है । ऐसे मे क्या वजह है कि महिला आरक्षण पर ऐसी एकजुटता कि सरकार के मित्र दलों के सांसदो को इतिहास मे पहली बार मार्शलों के ज़रिये राज्यसभा से बाहर कर दिया गया ? बिना बहस के वोट कराने की तैयारी कर ली गयी, फिर झट से एक बह्स भी हो गयी जिसे संज्ञा दी गयी कि यह एक डि फक्टो बह्स थी जो डि ज्युरे भी मान ली गयी । भाई वाह ऐसा सामंजस्य कि पिछले बीस सालों मे पहली बार ऐसा मौका आया कि कोई सरकार गिराने के मुद्दे को छोड़ कर एक सकारात्मक मुद्दे पर तथाकथित सेकुलर राजनीति के पुरोधा जो सेकुलरिज्म का सर्टिफ़िकेट भी बांटते रहते हैं उन्होने भाजपा के साथ सुर मे सुर मिलाया और वोट किया ।
राजनीतिक इतिहास मे १९८९-९० एक मील का पत्थर जैसा है । इस वर्ष मंडल कमीशन के आंदोलन और उसके प्रत्युत्तर मे राममंदिर आंदोलन के बाद से अन्य पिछड़ा वर्ग व मुस्लिम वोटों का जो ध्रुवीकरण हुआ है कि ये दोनो वर्ग पूरी राजनीति का केंद्रबिंदु हो गये हैं । सर्व श्री लालू यादव , मुलायम सिंह यादव और शरद यादव की तिकड़ी ने सत्ता की चाभी लगभग अपने हाथ मे रख ली है । आप यह देख सकते हैं कि कोई भी सरकार बननी इन तीनो मे से एक या दो को साथ लिए बिना असंभव सी हो गयी है । इस राजनैतिक ताकत के आगे कांग्रेस , भाजपा और कम्युनिस्ट यानी तीनों विचारधारा वाली राजनैतिक शक्तियां अपने आप को बंधन युक्त पाती हैं और कुछ हद तक राजनैतिक ब्लैकमैल की शिकार भी । इन परिस्थितियों मे इनका तोड़ तो एक ही संभव है कि या तो इनके वोट बैंक में बिखराव हो या एक नया वोट बैंक खड़ा हो जो इनकी ताकत को घटा दे ।
तो असल मे यक्ष प्रश्न यही है कि क्या तीनो राष्ट्रीय पार्टियों और उनमे से ख़ासकर कांग्रेस के विचार मे यह नया वोट बैंक ओबीसी और माइनॉरिटी वोट बैंक की मौजूदा धार को कुंद करके उनकी सीटों को बढ़ाने मे सहायक होगा । इसी लिए कांग्रेस के कोर ग्रुप जिसमे अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री के अलावा कांग्रेस पार्टी के चाणक्य श्री प्रणव मुखर्जी ने ऐसा दांव खेला है कि महंगाई की चर्चा अब नेपथ्य मे चली गयी, हंगामा महिला आरक्षण पर हो रहा है और साथ ही भाजपा व कम्युनिस्ट दिल मसोस कर समर्थन देने के लिए बाध्य हैं, आखिर मुख्य श्रेय कांग्रेस ले भी ले तो भी जितना संभव हो ये बेचारे भी कुछ तो लाभ पा ही जायेंगे । इस तरह के साफ़ संकेत तीनों राष्ट्रीय दलों की मीडिया पोजिशनिंग से मिल भी रहा है । इसके उलट अगर भाजपा व कम्युनिष्ट यदि बिल का एनकेनप्रकारेण विरोध करेंगे तो भी कांग्रेस तो लाभ मे ही रहेगी , भाजपा और कम्युनिष्टों के हिस्से केवल महिला विरोधी होने की बदनामी ही आयेगी जिससे महिला वोटों का नुकसान होगा । यानी कांग्रेस के दोनो हाथों मे लड्डू है । यदि यह सब संभव हुआ तो सबसे अधिक नुकसान यादव तिकड़ी को होगा और अन्य पिछड़े व अल्पसंख्यक वोट बैंक के कमजोर पड़ते ही इनकी राजनैतिक ताकत का भी पराभव हो सकता है । यही वजह है कि ये तीनो सबसे ज्यादा विरोध कर रहे हैं व कुछ हद तक बौखलाए भी हुए हैं ।
अन्त मे वही प्रश्न फिर से कि क्या यह महिला आरक्षण का मुद्दा महंगाई से ध्यान हटाने के साथ साथ पिछड़े और सेकुलर राजनीति का अन्त कर देगा ? इसका उत्तर तो भविष्य के गर्भ मे है । यह मुद्दा जैसे जैसे आगे बढ़ेगा , नयी नयी परिस्थितियां उत्पन्न होंगी उन पर हम सब विचार प्रकट करते रहेंगे ।
यह सचमुच यक्ष प्रश्न है ।
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