मंगलवार, 29 सितंबर 2009

ब्लागवाणी पुन: शुरू

ब्लागवाणी को पुन: शुरू करने के लिये धन्यवाद । उदासी का समय खत्म हुआ, चेहरे पर खुशी लौट आई है। हम सब की ईद, दशहरा और दिवाली आज ही है। फिर से धन्यवाद।

शनिवार, 26 सितंबर 2009

भाजपा आम चुनाव २००९ के बाद और भविष्य की राह

प्रथम भाग मे हमने इस बात पर विचार किया कि कैसे भाजपा ने चुनाव से ठीक पहले हर मामले मे गूफ़ अप किया और अप्रत्याशित परिणाम आया । इस लिए उनके वे नेता गण जो सत्ता की आशा लगाए हुए बैठे थे, उनका बेहद निराश होना स्वाभाविक था । इस निराशा के माहौल मे इस बात की जिम्मेदारी पार्टी पर आ पड़ी है कि आगे का रास्ता क्या हो । पार्टी मे नया नेतृत्व कैसे आये । अब इस परिदृश्य मे सत्ता संघर्ष खुल कर सामने आ गया है जिसमे एक तरह से कीचड़ उछालो प्रतियोगिता चल रही है । हर छोटे बड़े नेता को लग रहा है कि उसके पास भाजपा का अगला वाजपेयी या आडवाणी बनने का मौका है इस लिए एक दूसरे की टांग खिचाई मे लगा हुआ है ।

भाजपा के दोनो शीर्षस्थ नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी और श्री लाल कृष्ण आडवाणी लगभग ४० वर्षों से यानी जनसंघ के समय से अब तक पार्टी का पर्याय बने हुए हैं । उनके बीच सामंजस्य था यह सभी मानते हैं, मतभेद भी रहे होगें परंतु वे मर्यादा के दायरे से बाहर कभी नही आये । मतभेदों की बात कभी कभी मीडिया में उठती थी मगर खुली उठा पटक कभी नही हुई । आज की स्थिति यह है कि वाजपेयी जी सन्यास आश्रम मे हैं और आडवाणी जी गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास तीनो के भवंर मे हैं और भ्रम की स्थिति पैदा हो रही है। चूंकि वे प्राइम मिनिस्टर इन वेटिंग थे और इस बात से पूर्ण आश्वस्त थे कि वे प्रधान मंत्री बनेंगे और देश की बाग डोर अपने हाथ मे लेगें, इस लिए गृहस्थ आश्रम की मन:स्थिति उनमे मौज़ूद है । वानप्रस्थ इस लिए कि उन्होने चुनाव परिणाम आने के बाद सक्रिय राजनीति से हटने की घोषणा की लेकिन अगली पीढी का नेता चुनने तक ६ महीने के लिए नेतृत्व का जिम्मा लेना स्वीकार कर लिया । सन्यास इस लिए कि वे अच्छी तरह जानते हैं कि अब उन्हे सक्रिय राजनीति से सन्यास लेना ही होगा, आज नही तो कल ।

इन सब के बीच भ्रम की स्थिति इस लिए पैदा हुई कि पार्टी के दूसरी पीढ़ी के कुछ नेता जिन्हे आडवाणी गुट भी कहा जाता है , उनके द्वारा यह प्रचारित किया जाने लगा कि आडवाणी जी पूरे कार्यकाल तक नेता विपक्ष बने रहेगें । इससे यह मेसेज़ आम लोगों और पार्टी कार्यकर्ताओं मे गया कि सन्यास की घोषणा एक छलावा थी । इस्तीफ़े की घोषणा हार के तात्कालिक दबाव से बचने की स्ट्रेटजी मात्र थी । एक ऐसा व्यक्ति जिसका इतना लम्बा कैरियर रहा हो उसके लिए यह उसके व्यक्तित्व का स्खलन ही साबित हुआ । यह लगभग उनके कंधार मामले पर दिये बयान वाली स्थिति जैसा उल्टा पड़ रहा है । जहां तब लोगों ने सोचा कि आडवाणी जी जिम्मेवारी से बचना चाहते हैं वहीं इस बार लोगों को लगा कि वे एन केन प्रकारेण कुर्सी से चिपके रहना चाहते हैं और सत्ता की लिप्सा से ग्रस्त हैं ।

विश्व के दूसरे समाज मे शायद सत्ता लिप्सा या उसके लिए जोड़ तोड़ को नकारात्मक दृष्टि से न देखा जाता हो मगर हमारे समाज मे इसे कभी भी सम्मान और पूजनीय दृष्टि से नही देखा गया है । यहां पर जो लोग त्याग की भावना दिखाते हैं, लोग उन्हे सिर आंखो पर बिठाते हैं और जो जोड़ तोड़ लगाता है उसे दुत्कार ही मिलती है । इस बात के कई उदाहरण दिये जा सकते हैं, माइथालोजिकल काल से लेकर ऐतिहासिक काल तक मगर मैं दो तात्कालिक उदाहरण दूंगा ।

पहला पूर्व प्रधानमंत्री श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह का जिन्होने अपने राजनैतिक कैरियर में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर डाकू समस्या के कारण इस्तीफ़ा देकर अपने लिए राजनैतिक स्थान बनाया था । इसी की अगली कड़ी मे वे सही मौके पर देश के रक्षा मंत्री के तौर पर इस्तीफ़ा देकर त्याग की मूर्ति बन गये थे । उस समय उनके लिए एक नारा लगता था ’राजा नही फ़कीर है देश की तकदीर है’ । उनकी इस छबि ने उन्हे प्रधानमंत्री पद तक पहुंचा दिया । लेकिन प्रधानमंत्री पद के चुनाव के लिए जनता दल की बैठक मे जिस तरह छल के सहारे उनको नेता बनाया गया उसने सारा मज़ा बेस्वाद सा कर दिया । उनकी चमक फ़ीकी पड़नी शुरु हो गई । फ़िर उन्होने जिस तरह श्री देवी लाल जी की एक रैली को असफल करने के लिए बिना किसी तैयारी के और बिना किसी बहस के ’मंडल कमीसन’ की सिफ़ारिसें लागू की, इस बात ने उनकी छबि पूरी तरह से बदल दी । अब वे कुर्सी से चिपके और कुर्सी के लिए हथकंडा अपनाने वाले नज़र आने लगे । श्री आडवाणी की रथ यात्रा के बाद जब भाजपा ने समर्थन वापस लिया तो उन्होने इस्तीफ़ा नही दिया बल्कि संसद मे बहस कराई , वोटिंग कराई और धर्म निरपेक्षता के नाम पर पद की शहादत दी । इन सब कोशिशों के बाद भी पुरानी विश्वसनीयता नही प्राप्त कर सके । अब लोग उन्हे फ़कीर वाले भाव से देखने को बिल्कुल तैयार नही थे । इसके बाद वे चुनावी राजनीति मे लगभग अप्रासंगिक हो गये थे । मेरे विचार मे पूरे देश मे अपने बूते एक से ज्यादा सीटें लाने मे असमर्थ थे । अपने अन्तिम वर्षों मे वे अपने को दिल्ली की झुग्गियों की राजनीति तक ही सीमित पा रहे थे ।

दूसरा उदाहरण श्रीमती सोनिया गांधी का है । जब उन्होने राजनीति मे कदम रखा, भारतीय राजनीति तो छोड़िये भारत के बारे मे उन्हे कितना पता था यह कहना मुश्किल है । जब श्री राजीव गांधी जी की हत्या हुई और सारा देश स्तब्ध था, तब कांग्रेस के बड़े नेताओं ने उन्हे पार्टी अध्यक्ष बनाने की कोशिश की थी लेकिन उन्होने बड़े डिग्नीफाइड तरीके से ठुकरा दिया था । इसके बाद श्री नरसिंहाराव जी की सरकार मे जैन कमीशन के मुद्दे पर हंगामा हुआ और उन्हे एक बार फिर परोक्ष रूप से राजनीति में लाने की कोशिश की गई और एक बार फिर उन्होने डिग्नीफाइड मौन से इसका उत्तर दिया। जैसा कि मैं इस लेख के पहले भाग में चर्चा कर चुका हूं कि किस तरह उस समय कांग्रेस पार्टी टूटी और उसमे से आधा दर्जन छोटी छोटी पार्टियां बन गयीं । उस समय भी लाइट वेट श्री सीता राम केसरी के स्थान पर सोनिया जी को अध्यक्ष बनाने के लिए पूरी पार्टी की तरफ से अनुरोध लेकर बड़े नेता उनके घर गये तब जाकर उन्होने पद स्वीकार किया । उनका सबसे बड़ा मास्टर स्ट्रोक रहा उनका प्रधान मंत्री पद न स्वीकार करना । जब उस समय उनके विदेशी मूल के मुद्दे पर हंगामा चल रहा था, उनका यह कदम उनकी सब खामियों को ढक गया और साथ ही लोगों तक यह मेसेज पहुचाने मे कामयाब रहा कि उन्हे बड़े से बड़े पद का लालच नहीं है । इस बात ने उन्हे समकालीन राजनीति का सबसे सम्मानित व्यक्तित्व बना दिया ।

मैने संक्षेप मे दोनो उदाहरण इस लिए दिये क्योंकि मेरे विचार मे पार्टी के एक वर्ग द्वारा यह प्रचार करने के बाद कि आडवाणी जी पूरे पांच साल तक नेता विपक्ष बने रहेगें, एक ऐसे व्यक्ति की गलत छबि प्रस्तुत हो रही है जिसका सराहनीय राजनैतिक कैरियर रहा है ।

भविष्य की राह के लिए यह सबसे जरूरी है कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व अपनी विश्वसनीयता प्राप्त करे, अत: आडवाणी जी दिसम्बर तक अवश्य रिटायर होवें । दूसरी बात यह भी जरूरी है कि पार्टी के उच्चतम पद के लिए प्रेस और इलेक्ट्रानिक मीडिया के माध्यम से एक दूसरे का चरित्र हनन बन्द हो चाहे वह सार्वजनिक बयानबाजी से हो रहा है या आफ द रेकार्ड ब्रीफ़िग से । आज यदि भाजपा के दूसरी पीढ़ी के नेता किसी एक को सर्वमान्य नेता नही मान पा रहे तो इसका कोई मान्य हल आपस मे बैठ कर निकालें । मेरे विचार मे एक नेता के बज़ाय एक ४ या ५ का समूह ’प्रेज़िडियम’ के रूप मे काम करे और सारे नीति गत निर्णय वही बहुमत के आधार पर ले । जहां तक सरकार बनने पर प्रधानमंत्री जैसे पद की बात है उसे बिल्कुल प्रजातान्त्रिक तरीके से पार्लियामेंट्री बोर्ड मे बहुमत के आधार पर तय किया जाना चाहिए । अन्य सरकारी पद का बटवारा जब पांच साल बाद यदि मौका आयेगा तो यही प्रेजिडियम आडवाणी जी की व शायद संघ की सलाह से तय कर सकता है ।आखिर अमेरिका में प्रेसीडेंट ओबामा और हिलेरी क्लिन्टन चुनाव पूर्व प्रतिद्वंदी होने के बावज़ूद आज मिल कर काम कर रहे हैं इस बात से प्रेरणा लेने की आवश्यकता है । इसकी गाइड लाइन मोटे तौर पर अभी ही तय की जा सकती है । यह आडवाणी जी के लिये एक बहुत बडी चुनौती है लेकिन इस तरह की व्यवस्था स्थापित कर के वे उस पार्टी को बचा सकते हैं जिसको यहां तक पहुंचाने मे उन्होने अपना जीवन लगा दिया । साथ ही एक विश्वसनीय और मज़बूत विपक्ष होने से भारतीय राजनीति का भविष्य भी उज्जवल होगा । इससे आडवाणी जी भी अपने गृहस्थ, वानप्रस्थ के द्वंद से निकल कर सन्तोषप्रद सन्यास आश्रम का जीवन व्यतीत कर पायेगें, श्री वाजपेयी जी और श्री ज्योति बसु जी की तरह ।

भाजपा का सफ़ल नेतृत्व परिवर्तन इस लिए भी जरूरी है क्योंकि सिर्फ़ सी पी एम ने अगली पीढ़ी को सफ़लता पूर्वक नेतृत्व सौंपा है बाकी पार्टियों मे चाहे रीज़नल हों या राष्ट्रीय नेता का फ़ैसला वंशवाद ही तय करता है।

शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

पूजा की धूम

मित्रों,
इन दिनों पूरे उत्तर भारत मे उत्सव का माहौल है, अभी अभी ईद की खुशियां मनायी गयी। इधर दुर्गा पूजा और राम लीला खूब धूम धाम से मनायी जा रही है । शाम होते ही पूरा शहर सजावट की रोशनी से जगमगा उठता है । अपने शहर दिल्ली के इसी मूड को मैने अपने मोबाइल के कैमरे से उतारा है, आप सब के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूं :




रविवार, 20 सितंबर 2009

भारतीय जनता पार्टी आम चुनाव के पूर्व और आम चुनाव के बाद

भारतीय राजनीति में वर्ष २००९ के आम चुनाव का परिणाम कुछ हद तक आश्चर्यजनक रहा । किसी भी राजनैतिक पंडित या सेफ़ोलोजिस्ट को यह अंदाजा नहीं था कि कांग्रेस २१५ लोकसभा सीटें प्राप्त करेगी । साथ ही भरतीय जनता पार्टी ( भाजपा ) को पिछली लोकसभा से २२ सीटें कम मिलेंगी । मगर यह हुआ । इसके परिणामस्वरूप भाजपा मे आज लगभग वही स्थिति है जैसी कांग्रेस मे १९९८ की हार के बाद थी । जब कांग्रेस मे जबरदस्त उथल पुथल हुई और पार्टी से टूट कर तमिल मनीला, त्रिणमूल , तिवारी कांग्रेस, लोकतांत्रिक कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस जैसी लगभग आधा दर्जन पार्टियां अस्तित्व मे आयीं ।
इसी परिप्रेक्ष मे आज भाजपा मे जिस तरह की उथल पुथल चल रही है वह असमान्य न होते हुये भी सहज नही कहा जा सकता । परंतु इस बात का निरपेक्ष भाव से आकलन होना चाहिये की जब लोकसभा के चुनाव से ठीक पहले राज्यों के चुनावों में और कुछ उपचुनावों मे भाजपा की स्थिति ठीक ठाक नजर आ रही थी तो अचानक लोकसभा चुनाव मे कांग्रेस और भाजपा का अन्तर पिछली लोकसभा के ७ सीटों से बढ़कर इस लोकसभा मे लगभग १०० सीटों का क्यों हो गया । मेरे विचार मे लोकसभा चुनाव से ठीक पहले भाजपा किसी भी तरह से न तो विनिंग टीम जैसी नजर आ रही थी न ही व्यवहार कर रही थी । इसके आकलन पर निम्न बातें मुख्यतया: स्पष्ट होती हैं।
१. पार्टी का मीडिया से सम्बंध । आजकल न्यूज चैनेलों का जमाना है इससे कोई इन्कार नही कर सकता । खास कर अंग्रेजी के दो तीन चैनेल एक तरह से जो एजेंडा सेट कर रहे हैं और बाकी के चैनेल, हिंदी वालों सहित, उसे ही फालो करते हैं । अगले दिन समाचार पत्रों की सुर्खिंया भी उसी से प्रेरित होती हैं । आप देखिये कि सत्ता मे कांग्रेस है परंतु सत्ताजनित सारी नेगेटिव बातों की वजह से भाजपा सुर्खियों मे छायी रहती है । पिछले तीन चार सालों मे भाजपा की छोटी से छोटी कमी पूरे जोर शोर से प्रसारित हुई है और कांग्रेस की बड़ी से बड़ी कमी को सरसरी तौर पर प्रसारित किया गया । चाहे लोकसभा मे पैसे लेकर प्रश्न पूछने का मामला हो, लोकसभा मे पैसे देकर बहुमत खरीदने का मामला हो या वरुण गांधी की सीडी हो, इसका विश्लेषण कीजिये ।
जब पैसे लेकर प्रश्न पूछने की बात आयी तो जहां अन्य पार्टियों से एक या दो सदस्य लिप्त मिले थे भाजपा से आठ या नौ । क्या कांग्रेस से भी आठ या दस सदस्य नही हो सकते थे । या इस आपरेशन दुर्योधन का लक्ष्य भाजपा थी और बाकी एक दो सदस्य संतुलन के लिये शामिल किये गये थे । क्योंकि सत्तापक्ष द्वारा जिस तत्परता से और जितनी कड़ी कार्यवायी इस केस मे हुई आज तक किसी अन्य राजनैतिक केस मे इतनी तत्परता से और इतनी नैतिकतापूर्ण तरीके से कभी नही हुई ।
अब लोकसभा में पैसे देकर वोट खरीदने का मामला लीजिये, इस केस मे परिणाम पहले केस से बिल्कुल उलट हुआ । जिन पर पैसे देने का आरोप लगा वे पाक साफ़ बच निकले और जिन्होने इसका भंडाफोड किया वे फंस गये । जांच पूरी हो गयी फ़ैसला भी आ गया मगर यह बात स्पष्ट नहीं हुई कि समाजवादी पार्टी के एम पी रात के अंधेरे मे भाजपा एम पी के घर क्यों गये और भाजपा एम पी को अमर सिंह के घर क्यों बुला कर ले गये । अमर सिंह जी किस बात का उलाहना देते रहते हैं कि कांग्रेस के लिए उन्होने जो कुछ किया उसका फल उन्हे धोखा मिला। क्या उन्होने कांग्रेस के लिए कोई डर्टी कार्य किया था और उन्हे उसका सही सिला नही मिला? कहीं उन्हे इस बात का दर्द तो नही है? साथ ही मीडिया यह नही पूछता कि इतने भाजपा व अन्य पार्टियों के सदस्यों को तोड कर लोक सभा मे बहुमत साबित करने वाले प्रधानमंत्री को कभी भी नैतिकता के सवाल पर मन मे द्वंद नही हुआ, जब कि आपरेशन दुर्योधन मे लिप्त सदस्यों को संसद से उच्च नैतिकता के लिए ही निकाला गया था ।
वरुण गांधी की सीडी के मामले को देखिये, उसी समय कांग्रेस के एक बड़े नेता इमरान किदवई का सीडी भी आया था जिसमें वे इस्लाम के नाम पर वोट देने की अपील कर रहे थे और भाजपा को वोट देने वाले के मुसलमान होने पर सवाल उठा रहे थे । मगर मीडिया मे हंगामा सिर्फ़ वरुण पर हुआ ।
यह मैने कुछ उदाहरण दिये, परंतु पूरे दौर मे मीडिया रिपोर्टिंग और चर्चाओं मे एक पैटेर्न था । उपर्युक्त बातें उसके प्रतीक के रूप मे दी गयी हैं। इस लिये पार्टी को इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि मीडिया से कैसे सम्बंध सुधार हो और नकारात्मक छबि से कैसे बाहर निकला जाय ।
२. पार्टी के नेताओं मे भितरघात और केन्द्रीय नेताओं के अहं के टकराव का खुल कर प्रदर्शन । जिसके दो उदाहरण दूंगा । एक कल्याण सिंह का चुनाव से ठीक पहले पार्टी छोड़ना । जहां भाजपा उत्तर प्रदेश में सबसे पहले उम्मीद्वारों की घोषणा करके सबसे आगे संघर्ष का बिगुल बज़ाती लग रही थी वहीं कल्याण सिंह के चुनाव की पूर्वसंध्या पर पार्टी छोडने से लगभग पूरी पार्टी , खास कर उत्तरप्रदेश मे लकवा ग्रस्त सी हो गयी और आज भी उसी हालात मे है । कल्याण सिंह ने तो खैर अपने आपको सिर्फ़ लोध जाति के नेता होने तक सीमित कर लिया और जिन मुलायम सिंह की टक्कर के नेता थे उनका कृपापात्र बन कर स्वयं से कैसे आंख मिलाते होगें वे ही जाने । इस बात ने उत्तर भारत और खास कर उत्तर प्रदेश मे पार्टी नेताओं की विचारधारा और जनसेवा के प्रति प्रतिबद्धता को सवालों के घेरे मे खड़ा कर दिया । अब इन बातों से वोटर तो टूटेगा ही ।
दूसरा उदाहरण अरुण जेटली के रूठने का है जब महायुद्ध द्वार पर था तो पार्टी के नीतिनिर्धारक रूठ कर कोपभवन मे जा कर बैठ गये । बात चाहे जो भी रही हो, सुधांशु मित्तल से उनका कोई भी बैर रहा हो मगर उन्हे इस बात का अहसास तो होना ही चाहिए था कि वे पार्टी के मुख्य नीति निर्धारक हैं और उनका यह आचरण, वह भी चुनाव के दौरान, कार्यकर्ताओं मे असमंजस पैदा करेगा और वोटरों दूर करेगा ।
ऐसा लग रहा था कि भाजपा के नेताओं ने यह मान लिया था कि सत्ता मिलना अवश्यसंभावी है अत: चुनाव के पहले ही सत्ता की मलाई के लिये गोटी बिठाने मे व्यस्त हो गये और चुनाव हार गये ।
३. आडवाणी जी के नेतृत्व को जेडीयू जैसे सहयोगी ने तो पूरी तरह माना मगर अरुण शोरी जैसे विचारक मोदी का केस आगे बढाने मे लग गये और २००९ के बज़ाय २०१४ के चुनाव मे पूरी पार्टी को उलझा दिया । आज वही शोरी साहब मोदी को न हटाने का दोषी आडवानी जी को बता रहे हैं और हार की जिम्मेदारी निर्धारित करने की मांग कर रहे हैं।
स्वयं आडवाणी जी कंधार मामले पर जिस तरह अपने को पूरी पार्टी और वाजपेयी सरकार के निर्णय से दूर करते नज़र आये वह भी किसी के गले नही उतरा और उनकी छबि सुधरने के बज़ाय धूमिल हो गयी ।
उपर्युक्त बातों से ज़ाहिर है कि जब आप की छबि मीडिया मे नकारात्मक हो, आपके सेनापति विरोधी खेमे मे शामिल हो जायें , नीतिनिर्धारक कोपभवन मे रूठ कर बैठे हों, मुख्य नेता के बराबर दूसरे नेता की छबि चमकायी जाय , २००९ को छोड़ कर २०१४ मे उलझा जाय तो आप २००९ मे कैसे जीत सकते हैं । भाजपा को अपने प्रतिबद्ध वोटरों का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि उन्हे ११५ तक सीटे मिल गयी वरना ऐसे हालात मे १०० के नीचे भी जा सकते थे ।
( चुनाव बाद की स्थिति और भविष्य की राह पर दूसरे भाग मे अगले सप्ताहांत तक लिखूंगा )

शनिवार, 12 सितंबर 2009

सुन बटोही

तुझे यदि मन्ज़िलों का ज़रा भी ग़ुमान होता,
इन रास्तों से चलते हुए न यूं हैरान होता,
बिना हैरानियों के सफ़र न यूं जीवन्त होता,
शोरगुल के बीच भी मन तेरा वीरान होता ।

सामने नज़रों के तेरी गुजरते जो दॄश्य हैं,
बदलते यूं कि जैसे अभिसारिका के परिधान हैं,
ये कभी भी बोध स्थिरता का न होने देते हैं,
लग रहे ये चलते से, पर असल में तो तू गतिमान है।

यहां से पहले भी गुजरे हैं अनगिनत राही,
बाद में भी गुजरने वालों की कमी न होगी,
कुछ थे भूले कुछ थे भटके कुछ ने यह राह खोजी,
मत भटकना इस नैनाभिराम दॄश्य से तू मनोयोगी ।

तुझको मिलेगें कितने खण्डहर कितने जंगल कितने वीराने,
कितने साथी कितने प्रतिभागी कितने सीधे कितने सयाने,
वो जो हैं आज तेरे अपने जब मिले तब तो थे अनजाने,
इस पल में हैं साथ तेरे कल न थे कल होगें कोई न जाने ।

न रुकना कटंकाकीर्ण इस पथ मे देख तू पैरों के छाले,
दे सहारा उसको भी जो थका प्यासा घायल यदि कोई मिले,
चल पड़ेगा वो भी हारा पड़ा जो बस उसकी बांह गह ले,
तुझको भी तो साथी मिलेगा चल रहा था अब तक अकेले ।

तू है बटोही सिर्फ़ चलना ही तेरा कर्तव्य ठहरा,
न कर विश्राम न रुक कहीं भी और न ही तू कर बसेरा,
जो चुना पथ तूने अपना चलता रह बस उस पर निरन्तर,
ये निश्चित मान ले मिल जायेगा जो है गंतव्य तेरा ।

बुधवार, 9 सितंबर 2009

खोज

जीवन की इस आपा-धापी में,
एक अनजानी सफ़लता की खोज में,
निरन्तर भाग रहा है मनुष्य,
जैसे को‌ई मृग मरुभूमि में,

जिसे दिखता है जल, पर जो है नहीं,

वो भागता है उस ओर जी जान लगाकर,
जल है, उसे है पूर्ण विश्वास इस दृष्ट पर,
क्यों माने कि हैं ये सिर्फ़ लहरें प्रतीत रेत पर,
जब सब कुछ है उसे दृष्टि-गोचर,

जो सिर्फ़ श्रव्य नहीं दृष्टि-बंधन नहीं,

इस भ्रम जाल से मुक्ति का मार्ग कैसे मिले,
मृग हो या मनुष्य उचित राह पर कैसे चले,
ज्ञान, विश्वास, पुरुषार्थ कि प्राप्ति से पहले,
सफ़ल जीवन के लिये सन्मार्ग कैसे मिले,

जिस पर चल कर उसे गंतव्य मिले, इन्द्रजाल नहीं,

गुरु ही देगा वह ज्ञान का प्रकाश ,
गुरु-ज्ञान से ही विकसित होगा विश्वास,
उस विश्वास से ही विकसित होगा पुरुषार्थ,
उस पुरुषार्थ से ही मिलेगा वह सन्मार्ग,

जो जाता है जल की ओर मरीचिका कि ओर नहीं,

हे प्रभु इससे पहले कि कुछ और दे,
एक सद्‍गुरु से अवश्य मिलवा दे,
जिससे मिट जायेंगे सब भ्रम, कट जायेगें बंधन,
तब ही मिलेगा परमानंद, सफ़ल होगा यह जीवन,

गुरु की खोज से बढ़ कर को‌ई और खोज नहीं।

शनिवार, 5 सितंबर 2009

अनायास मास्साब

आज शिक्षक दिवस पर मैं पूरी श्रद्धा से जीवन मे मिले समस्त शिक्षकों को ध्यान कर रहा हूं, जिन्होंने हमारे जीवन दिशा दी, हमें जीवन को जीने का सलीका सिखाया और दुनियां को समझने का दॄष्टिकोण दिया । इन्ही में एक थे श्री देवी प्रसाद सिंह, जिन्होने हमे हमारे गांव के प्राइमरी स्कूल की तीसरी कक्षा में पढ़ाया था । सिंह साहब सेना से रिटायर हो कर आये थे और अपने जीवन में सैनिक की भांति अनुशासन से रहते थे और सब से यही अपेक्षा भी करते थे । अपने अधिकार क्षेत्र में इसे पूरी शिद्दत से लागू करते थे । उनके इन गुणों को आज हम अच्छी तरह और समग्र भाव से आकलन कर सकते हैं परन्तु उस समय हम सब विद्यार्थी उन्हे ’अनायास मास्साब’ कहते थे । यह नाम उन्हें कैसे मिला, किसने दिया यह तो किसी को नहीं पता लेकिन क्यों पड़ा उसकी व्यथा कथा उनके इस नाम से ही ज़ाहिर है । असल में मास्साब अति अनुशासनप्रिय थे जबकि छात्रों को लगता था कि वह अनायास ही उन्हें दंडित करते रहते हैं ।

मास्साब का यह स्पष्ट मत था कि छात्रों को सुधारना बहुत ही आवश्यक है और सुधारने का एक ही तरीका है वह है डंडे का भरपूर इस्तेमाल । अपने इस विश्वास को वह पूरे मनोयोग से लागू करते थे । यह बात अपने ख़ास लहज़े मे बड़ी शान से हर मिलने वाले से बताते थे कि उनकी क्लास के सारे बच्चे हर टास्क ऐसी फ़ुर्ती से पूरा करते हैं जैसे "फिरकी" ज़रा सा हवा का सहारा पाते ही नाचती है । वैसे तो पूरे स्कूल का कोई बच्चा उनके सामने नहीं पड़ना चाहता था परंतु उनकी क्लास के बच्चों की तो मजबूरी थी । उनके सामने अगर अनुशासन टूटा तो तुरन्त सज़ा का फ़रमान मिल जाता था ।

उनका दंड विधान अलिखित होते हुए भी पूरा नियमबद्ध था । आप किसी भी परिस्थिति पर उनसे मुफ़्त क्लेरीफ़िकेसन ले सकते थे । यदि उन्होने एक बार सज़ा सुना दिया, चाहे उन्होने खुद अनुशासन हीनता देखी हो या किसी की शिकायत पर दोनो पक्षों की दलीलें सुनने के बाद हो , आप नयी दलीलों के साथ उनसे दुबारा अपील कर सकते थे । लेकिन अगर ये दलीलें अपुष्ट और गलत हुईं तो सज़ा बढ़ जाती थी । अब इस अपील के बाद कोइ दूसरी अपील नहीं होती थी इस लिये सज़ा बढ़ने के डर से अपील का रिस्क कम ही लोग उठाते थे । यह कार्य एक न्यायाधीश की तरह वह पूरे निरपेक्ष भाव से करते थे।

सज़ा की मात्रा गलती के हिसाब से पूर्वनिर्धारित थी ,जिस प्रकार की और जितनी बड़ी गलती उसी हिसाब से उसकी सज़ा । जैसे क्लास के अंदर पढ़ाई हो रही हो और कोई खिड़की से बाहर झांक रहा है तो १/२ डंडा, यदि क्लास के बाहर मैदान में पढ़ा रहे हों और कोई सड़क की तरफ़ देख रहा हो तो १ डंडा, क्लास के बाहर इधर उधर घूम रहे हैं तो २ डंडे, होम वर्क करके नहीं लाये तो ३ डंडे, आपस में मार पीट कर रहे हो तो ४ या ५ डंडे। इसके अलावा पढ़ाई लिखाई में हुई अलग अलग गलतियों पर अलग अलग मात्रा निर्धारित थी । यह स्पष्ट कर दूं कि सज़ा १/४,१/२ और ३/४ डंडे भी होती थी । इसके लिए वे डंडे के उतने हिस्से पर पकड़ कर मारते थे, इससे उसकी चोट उसी मात्रा में कम लगती थी। यह उनकी अपनी खोज थी क्योंकि आज तक किसी और टीचर को एक डंडे से कम सज़ा देते मैनें नहीं देखा । बच्चे तो गलतियां दिन भर करते रहते थे और उनको दिन भर सज़ा भी सुनाई जाती रहती थी मगर सज़ा तुरंत नहीं मिलती थी । इसके लिए दो समय निर्धारित थे एक रेसिस से थोड़ा पहले और दूसरा दिन की छुट्टी से थोड़ा पहले । हर बच्चा अपनी दिन भर की सज़ाओं का लेखा रखता था, उपर्युक्त समय पर उनके पास जा कर हिसाब देता और सज़ा प्राप्त कर के खाता बन्द कराता। इसमें किसी तरह की गफ़लत करने पर सज़ा की मात्रा बढ़ जाती थी। यह एक तरह से टैक्स रिटर्न जैसा था कि आपको समय से भरना है नही तो पेनाल्टी पडेगी ।

उनका पढाई पर जितना ध्यान रहता उतना ही इस बात पर भी कि अगर जरा भी गलती हुई है तो सज़ा मिलना बहुत ज़रूरी है । इसे सुनिश्चित करने के लिए वह क्लास में दो या तीन मानीटर बनाते थे । यह नियुक्ति केवल एक दिन के लिये होती थी । उनकी नज़र में सारे छात्र एक समान थे इसलिए मानीटर के पद की नियुक्ति के लिये कोई विशेष गुण वाला छात्र नहीं खोजते थे यह मौका सब को मिलता था । दो या तीन मानीटर इस लिए कि उन्हें मास्साब के साथ पूरी क्लास पर नज़र रखना पड़ता था । किसी बच्चे का सिर ज़रा भी इधर उधर हुआ और उसके नाम का खाता खुला । प्रतिदिन मानीटर का बदलाव इस लिए कि किसी की पढ़ाई का नुकसान न हो और कोई अपने पद का दुरुपयोग न कर पाये । इस प्रकार मास्साब पूरी तरह से आश्वस्त थे कि उनकी कक्षा के बच्चे सबसे सुधरे हुए हैं ।

मास्साब पूर्व सैनिक होने के नाते खेल और व्यायाम में भी बहुत रुचि रखते थे और छात्रो को इसमे हिस्सा लेने के लिए प्रेरित करते थे । इसके अलावा पूरे स्कूल में कोई भी आयोजन हो उसकी जिम्मेवारी मास्साब की ही होती थी। बच्चों में स्वभावत: खेल में ज्यादा रुचि होती है । इसलिए वे आशा लगाये रहते थे कि मास्साब उन्हे मौका देगें । जैसा मैं पहले बता चुका हूं कि उनकी नज़र में सारे छात्र समान थे अत: वे सबको कुछ न कुछ जिम्मेवारी देते और सबको आयोजन से जोड़े रखते । जब किसीसे बात करते तो उसे ऐसा महसूस करा देते कि वह पूरे आयोजन में सबसे महत्वपूर्ण कड़ी है । जहां उनके अनुशासन से बच्चे उनसे कन्नी काटते, उनके इस गुण से उनके करीब भी होते थे ।

आज जगह जगह शिक्षा की दुकाने खुल गयी हैं और शिक्षा के मायने भी बहुत बदल गये हैं । ऐसी दंड प्रक्रिया भी पूर्णतया निषेध हो गयी है । परन्तु हम जब पी टी एम के दिन अपने बच्चों के स्कूल जाते हैं और आज के टीचरों की बातें सुनते है तो हमे अपने ऐसे पुराने शिक्षकों की याद आती है और बड़ी श्रद्धा से आती है । मैं क्षमा प्रार्थना के साथ कहना चाहूंगा कि अब वह विश्वास और समर्पण भाव नज़र नही आता, सिर्फ़ ताम-झाम ज्यादा नज़र आता है । हमारे मास्साब ने दंड प्रक्रिया दिल की गहरायी से छात्रों मे अनुशासन लाने के लिये ही अपनायी थी, किसी को चोट पहुचाने, घायल करने या ट्यूसन के लिये मज़बूर करने के लिये नहीं । आज जब वह इस दुनिया में नहीं हैं, उनका यह पूर्व छात्र उन्हें अपनी यादों की श्रद्धांजलि समर्पित कर रहा है ।

मंगलवार, 1 सितंबर 2009

चमचा पुराण

गांधी की जय से क्या होगा,
नेहरु की जय से क्या होगा,
भारत में जो भी कुछ होगा,
चमचागीरी से ही होगा ।

बोलो जप तप तीरथ करने से,
यहां किसे क्या मिल जाता है,
पर चमचागीरी करने भर से ही,
किस्मत का हर फाटक खुल जाता है ।

चमचागीरी है एक कला,
किंतु नहीं सिखलायी जाती है,
विद्यालयों के कमरों में भी,
यह नहीं पढाई जाती है ।

नभचर को बोलो कब कोई,
नभ में उडना सिखलाता है,
जलचर को भी बोलो कब कोई,
जल में तैरना सिखलाता है ।

ज्यों कश्मीर में केसर मिलता,
और केरल में काजू मिलता है ,
चमचागीरी का फूल हमेशा,
कुर्सी की क्यारी में खिलता है ।

चमचों की महिमा कौरव कुल से,
अब तक है चलती आयी ,
कवियों ने भी ऊचें स्वर में,
चमचों की महिमा है गायी ।

ज्यों रिश्वत के बिना ,
काम न कोई बन पाता है ,
वैसे ही कुर्सी और चमचे का ,
जनम जनम का नाता है ।

फिर भी यह एक पहेली है,
जो नही सुलझने पायी है ,
कुर्सी के बाद चमचा आया है,
या चमचे के बाद कुर्सी आयी है ।

है मिलावट आज सब जगह,
इसीलिये तुमको समझाता हूं,
असली और नकली चमचों की,
पहचान तुम्हे करवाता हूं ।

नकली चमचा कुछ देर बाद में,
मौसम सा रंग बदलता है,
असली चमचा वो है जो,
गिरगिट से पहले रंग बदलता है ।

तुम भी चमचे बन सकते हो,
बस स्वाभिमान का दमन करो,
अपने सब काम बनाने को,
सारे आदर्शों का हवन करो ।

चमचा तुम सा ही होता है,
बस केवल नाक नहीं होती,
वह सब धर्मों से ऊंचा है,
चमचों की जात नहीं होती ।

तुम झूठे मन से बोल रहे ,
गांधी की जय नेहरु की जय,
मैं सच्चे मन से बोल रहा,
चमचों की जय चमचों की जय ।

मुट्ठी भर लोगों से बोलो कब तक,
यह गांधी युग है चलने वाला ,
अरे गांधी युग जल्द जायेगा,
अब चमचा युग है आने वाला ॥

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यह पैरोडी आज से दस साल पहले किसी मित्र ने लिख कर दिया था । उन्हे भी किसी और ने लिख कर दिया था । इसके रचयिता का नाम मुझे नही पता । यदि किसी को पता हो तो अवश्य बतावें । धन्यवाद ।