शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

एक फ़ालतू सी फिल्म है माई नेम इज़ खान

मेरा मानना है कि यह एक साधारण फिल्म है जो आज देश मे एक असाधारण माहौल की वजह से बिना मतलब के तारीफ़ बटोर रही है । यह फिल्म अमेरिका के ईराक़ तथा अफ़गानिस्तान युद्ध के बाद से पश्चिमी देशों मे उठे सवालों को अपनी समझ के हिसाब से डील करती है । फिल्मकार बहुत सारी बातें एक साथ डील करने की कोशिश मे है । हीरो को बिमारी है, वह मुसलमान है, उसे एक हिन्दू लडकी से प्यार करता है जो एक बच्चे की मां है, वह परी कथाओं का सा प्रेमी है जो प्यार को पाने के लिए हर हद को पार करता है । जो क्रिस्चियन बहुल समाज मे शक़ की नज़र से देखे जाने का प्रतिकार करता है ( वैसे शाहरुख़ खान करीब ६ महीना पहले अपनी सुरक्षा जांच पर बता ही चुके हैं कि वे खान थे तभी उन्हे रोका गया ,जबकि इसी देश के जार्ज फर्नाडीस सहित कितने लोगों की जांच हो चुकी है )। काई सारी बातें जो हंगामा कर सकने वाली हैं जो जान बूझ कर डाली गयीं है पर हंगामे का मौका अप्रत्यासित तौर पर दिया शिवसेना ने, जो राज ठाकरे का जवाब देने के लिए मौके के लिए बेकरार है चाहे सही या गलत ।

एक व्यक्ति जो ताकतवर के अन्याय ( सचमुच का या काल्पनिक ) से लड़ने का हौसला रखता है और इतना गुणी है ऊपर से बीमारी ग्रस्त है से हर कोई सहानुभूति रखेगा । साथ मे अगर शिव सेना जैसे नालायक दल हों जो बेकार का विरोध करें और राजीव शुक्ला जैसे दोस्तों ( वैसे पिछले १५ अगस्त को शाहरुख़ की जांच के हंगामे की शुरुआत शुक्ला जी द्वारा ही हुई थी ) से सुसज्जित कांग्रेस पार्टी के युवराज का सीधा समर्थन हो तो क्या कहने। इस देश मे जो भेड़ चाल वाला मीडिया सर्कस होता है उसमे एक साधारण सी फिल्म असाधारण ही बन जायेगी । इतनी पुलिस एक फिल्म दिखाने के लिए मौजूद थी , जब यूपी बिहार के लोग पिट रहे थे तब कहां थी । उसकी गोली चली भी तो एक निहत्थे, बेरोज़गार, गरीब बिहारी युवक को मारने के लिए । कहां थी सरकार कहां था कानून का राज । जो मंत्री फिल्म देखने के लिए आये थे वे क्या कर, कह व बोल रहे थे । इसके पीछे की राजनीति के खुलासे की अपेक्षा प्रबुद्ध पत्रकारों से रहेगी ।

यह एक लम्बी, उबाऊ और पश्चिमी देशों मे उठ रहे सवालों का उत्तर ढ़ूंढ़ती फिल्म है जिसका भारत की वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं है । वैसे भी शाहरुख की फिल्में ओवर्सीज मार्केट के लिए बनती हैं और यह उसी तरह की है इसी लिए शाहरुख़ इसके प्रचार के लिए देश के बाहर ज्यादा वयस्त रहे । शिवसेना ने जो प्रचार का मौका दिया उससे जो फ़ायदा मिला वह आइसिंग ओन केक जैसा है । संघ परिवार से नफ़रत करने वालों के लिए तो पता भी हिले वही काफ़ी है संघ पर टिप्पड़ी के लिए । देश के एलीट वर्ग का एक तबका किसी भी कीमत पर इस फिल्म को असाधारण साबित करने के लिए कटिबद्ध है ।

भारतीय मुसलमान समाज की सामयिक समस्यायों और आगे के रास्ते के बारे मे सही समझ वालों को आप लोग सुने और मौका दें तब न । मौलाना वहीउद्दीन की वार्ता के कुछ अंश उद्धरित किया है लिंक दे रहा हूं अगर समय मिले तो देखियेगा और अपना मत भी दीजिएगा ।
http://mireechika.blogspot.com/2009/12/blog-post_06.html