शनिवार, 20 मार्च 2010

थोड़ा और उन्मुक्त

जीवन यात्रा के मध्यान्ह में,
एक दिन यूं ही बैठा था मै,
सोचता हुआ मन ही मन,
मूंद कर आखों की पलकें कुछ क्षण,
एक बार वापस जाऊं बचपन में,
फिर वो सब करूं जो किया था मैने,
वो भी करूं जो नहीं किया,
जो किया उसे उसी तरह से,
या किसी और तरह से,
जो नहीं किया डर के मारे,
उसे भी करूं सारे डर छोड कर किनारे,
सावन भादों के महीने में,
जलप्लावित तालाब में कूद जाऊं,
पार कर लूं एक ही गोते में,
या उसके काटता रहूं कई चक्कर ,
चढ़ जाऊं आम के ऊचें पेड़ की,
सबसे ऊचीं डाल पर,
तोड़ने वह पका आम,
जिसे देख कर कभी मन ललचाया था,
निकल जाऊं अकेले अंधेरी मध्य रात में,
खेतों की तरफ़, जहां है वह भूतों वाला बरगद,
उठा लूं अपनी साइकिल, चलाता रहूं यहां से वहां,
बिना किसी से पूछे, बिना बताए,
कह दूं सब टीचरों से,
मत पढ़ाओ मुझे केमिस्ट्री, बायोलोज़ी,
बस दे दो कहानियों की किताबें और पढ़ने दो वही,
वो जो क्लास में गुडिया सी थी प्यारी सी,
कर लूं उससे बहुत सारी फ़ालतू सी बातें,
जाड़े की सर्द रातों में सो जाऊं दादी की गोद में,
या उनींदा ही पड़ा रहूं चुपचाप,
चाहे कोई बुलाता रहे कितना भी,
इन्ही बेतरतीब से उठते खयालों के बीच,
सोचता रहा कि एक और यदि मिले मौका,
जी लूंगा अबकी बार थोड़ा और उन्मुक्त होकर,
पर आंख खोली तो बचपन न था वहां,
थे दो बूंद आंसू और उनसे भीगते मेरे गाल।