सोमवार, 24 मई 2010

झारखंड का तमाशा - भारतीय जनता पार्टी की किरकिरी

एक कहावत सुनी थी चौबे चले छब्बे बनने दूबे बन कर लौटे । यह कहावत भारतीय जनता पार्टी ( भाजपा ) पर पूरी तरह लागू होती है । कहां तो भाजपा केंद्र मे कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार को हिलाने की कोशिश मे बजट पर कटौती प्रस्ताव लायी और कहां झारखंड की अपनी साझा सरकार गवां बैठी ।

ज्यादा पुरानी बात नही है , यूपीए वन सरकार के अन्तिम वर्ष मे जब संयुक्त विपक्ष ने अपना अविश्वास प्रस्ताव पेश किया तब भी परिणाम ऐसा ही हुआ था । उस समय भी विपक्ष एकजुट नही रहा । संदेश यही गया था कि क्षेत्रीय दल जैसे समाजवादी पार्टी ( सपा) किसी भी हालत मे सत्ता के नजदीक या सत्ता मे बने रहना चाहते हैं अत: किसी भी समय कहीं भी चले जायेगें । अब तो यह याद करना मुश्किल हो गया है कि कब सपा वाम मोर्चे के साथ है और कब उनसे दूर । लेकिन उससे बढ़ कर मुख्य विपक्षी दल भाजपा के कई सांसद जिस तरह या तो यूपीए के पक्ष मे वोट डाले या गैर हाज़िर रहे उससे भाजपा की अनुशासित पार्टी होने की छबि को भारी धक्का लगा । भाजपा के सांसदों का पैसे के लिए हमेशा बिकने को तैयार रहने जैसे आरोप पर आम लोगों का विश्वास होने लगा । इसके साथ वोट फ़ॉर नोट मामला भी जिस तरह हैंडल किया गया उसने रही सही कसर पूरी कर दी । यह पहला मौका था जब एक राजनैतिक दल स्वंय अपने विरोधियों के उपर स्टिंग कर रहा था , अपने सांसदों का सहारा लेकर । लेकिन जिस टीवी चैनेल के सहारे स्टिंग किया गया वह बैक आउट कर गया तो कांग्रेस ने लगभग यह आरोप उलट कर भाजपा पर प्रायोजित कार्यक्रम द्वारा भ्रष्टाचार फैलाने और संसद मे नोट लहरा कर गरिमा को ठेस पहुंचाने का मेसेज जनता तक पहुंचा दिया । कांग्रेस को ज्यादा मेहनत भी नहीं करनी पड़ी , आखिर कुछ महीने पहले ही पैसे लेकर प्रश्न पूछने के आरोप मे निकाले गये सांसदों मे भाजपा के सर्वाधिक सांसद थे । इस तरह उस समय भी सबसे ज्यादा नुकसान भाजपा का ही हुआ । उनके सांसद टूट गये , चैनेल ने स्टिंग मे साथ देने के बावजूद पूरा स्टिंग नही दिखाया और साथ ही साथ पूरा मीडिया भाजपा से थोड़ा दूर हो गया । यानी हर तरह से भाजपा की छबि धूमिल हुई । इसका खामियाज़ा चुनावों भुगतना पड़ा और भाजपा की लगभग २५ सीटें कम आयीं ।

यूपीए टू के एक साल खत्म होने से पहले लगभग वही हाल हो गया जब लोकसभा मे बजट प्रस्तावों पर कटौती प्रस्ताव लाया गया । इस बार ऐसा लग रहा था कि भाजपा बिना किसी तैयारी के जंग जीत लेने का गुमान पाले बैठी थी । ऐसा कहने का कारण यह है कि पार्टी १९९८ मे गिरधर गोमांग द्वारा मुख्य मंत्री रहते हुए लोकसभा मे वोट देकर वाजपेयी जी की सरकार गिराने का बदला चुकाने को बेताब दिखी , इसलिए शिबु सोरेन को झारखण्ड का मुख्यमंत्री होते हुए भी लोकसभा मे वोट डालने के लिए बाध्य किया । परन्तु यह प्रहसन हो गया क्योंकि शिबु सोरेन ने सरकार के पक्ष मे वोट कर दिया और ठीक उसके बाद भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी के साथ डिनर करने पहुंच गये । इसके अलावा भाजपा के तीन सांसद अनुपस्थित रहे । यह सारी बातें एक अनुशासित , गंभीर और देश को विकल्प देने का दावा करने वाले दल की तो नहीं हो सकती ।

हद तो तब हो गयी जब भाजपा ने दिल्ली मे उच्च स्तरीय मीटिंग मे समर्थन वापसी का निर्णय ले लिया लेकिन जैसे ही शिबु सोरेन के पुत्र हेमन्त सोरेन ने भाजपा को सरकार बनाने का चारा फेंका , पार्टी ने आव देखा न ताव बस मुख्यमंत्री बनने और बनाने के फेर मे पड़ गयी , सारे नेता अपना अपना जुगाड़ बैठाने मे लग गये । लेकिन यह भी अन्तिम नहीं था , इस बीच कितनी बार झारखण्ड मुक्ति मोर्चा और भाजपा मे सरकार साझा होने , केवल भाजपा की सरकार बनने और २८-२८ महीने सरकार बनाने का शिगूफ़ा छोड़ा गया बता पाना मुश्किल है । ऐसे मे एक बार खबर आना कि शिबु २५ मई को इस्तीफ़ा देगें और फिर शिबु सोरेन का यह बयान कि मै इस्तीफा नहीं दे रहा और मुख्य मंत्री बना रहूंगा , किसी उबाऊ प्रहसन के वीभत्स होने जैसा लगा । दिल कहने लगा "और नही बस और नहीं" ।

अब भाजपा ने थक हार कर समर्थन वापसी का पत्र राज्यपाल को दे दिया , लेकिन अपनी पूरी किरकिरी कराने और उपहास का पात्र बनने के बाद । इन सारे प्रकरणों को देखने के बाद यह प्रश्न स्वाभाविक है कि क्या भाजपा का आदर्श राजनैतिक उदाहरण प्रस्तुत करने का दावा केवल खोखला ही है ?

बुधवार, 19 मई 2010

गोरखा चौकीदार - एक परम्परा भरोसे की

आज रात मे देर से सोया, असल मे कहीं गया हुआ था और घर आने मे देर हो गयी । वैसे तो दिल्ली में यह कोई अजीब बात नही है , देर तो अक्सर हो ही जाया करती है । आज यह बात याद कर रहा हूं तो खास बात यह है कि जब मै गाड़ी पार्क करके सीढ़ियां चढ़ रहा था तो सीटी की आवाज के साथ सड़क पर डंडे पटकने की अवाज आयी । यह चौकीदार के आस पास होने की सूचना थी । यह आवाज तो जैसे मैं भूल ही गया था , मुझे अपना बचपन याद हो आया ।

मैं हाई स्कूल पास करके आगे की पढ़ाई के सिलसिले मे दिल्ली आया था । यहां ग्यारहवीं मे एडमीशन लिया था । मैं चूंकि छोटे से गांव से आया था , मेरी बड़े शहर के कुछ तौर तरीकों के बारे मे समझ कम थी , उनमे से एक यह चौकीदार वाली बात भी थी । हमारे गांव मे तो जब देर रात कुत्ते जोर से भौंकते थे तो बड़े बुजुर्ग , जो ऐसा लगता है रात को अक्सर कम ही सोते थे और एक तरह से चौकीदार की भूमिका मे होते थे , अपनी चारपाई पर लेटे -लेटे पुकार कर एक दूसरे को सावधान करते हुए कहते थे कि ध्यान देना शायद कोई चोर वगैरह तो नहीं है । परन्तु यहां मामला दूसरा था ।

असल मे मेरी शुरू से आदत थी कि मैं देर रात जाग कर ही पढ़ता था मुझसे सुबह उठ कर पढ़ाई कभी नहीं हुई । इस बात के लिए घर वालों से हमेशा शिक्षा - सलाह मिलती थी कि सुबह उठ कर पढ़ा करो सुबह दिमाग ताजा रहता है और पाठ जल्दी याद होता है । लेकिन मै सुबह जब भी पढ़ने की कोशिश किया मुझे नीद ही आयी , याद वाद कुछ नही हुआ । इस तरह मैं अपनी आदत के अनुसार रात मे देर तक जाग कर पढ़ता था, रात ११-१२ बजे के बाद कालोनी मे बिल्कुल सन्नाटा सा हो जाता था । उन दिनो दिल्ली मे ज्यादातर स्ट्रीट लाइटें टंग्स्टन बल्ब की ही होती थीं । सड़कों पर थोड़ा उजाला और थोड़ा अंधेरा होता था , आज जैसे मरकरी लाइट के बड़े - बड़े टावर नहीं होते थे । ऐसे मे चौकीदार की सीटी और उसके लाठी की आवाज सब को सुरक्षा का बोध देती थी । मै जब पढ़ाई मे ब्रेक करके बीच बीच मे थोड़ी देर के लिए कमरे से बाहर आ जाता और बालकॉनी मे छज्जे पर आधा झुका हुआ खड़ा होकर सड़क पार के पार्क की तरफ ऐसे ही शून्य मे देखता रहता था । उसी समय कभी कभी चौकीदार उधर से गुजरता , नीचे से ही पूछ लेता - क्या शाब अभी तक सोया नहीं ? पढ़ाई कर रहा था क्या ? मैं उत्तर देता हां , और कैसे हो ? उत्तर मिलता ठीक हूं और इस प्रक्रिया मे वह आगे निकल चुका होता । क्योंकि इस दौरान वह रुकता नहीं था सारी बात चलते चलते ही करता था । इनका नाम शेरबहादुर था जो उस समय करीब ५५ - ६० साल के रहे होगें ।

चौकीदारों की एक परम्परा सी थी , केवल बड़े लोग अपनी कोठियों पर चौकीदार रखते थे , जो ज्यादातर नेपाल के गुरखा जवान होते थे । बाकी कालोनियों मे सामुहिक तौर पर ये गुरखा जवान इसी तरह सीटी बजा कर और डंडा सड़क पर पटक कर पहरा देते थे । गुरखा लोगों की इमानदारी और वफ़ादारी अपने आप मे एक मिसाल है । यह अपने आप मे मानव इतिहास की सबसे बड़ी बिश्वास की धरोहर होगी जिसकी शायद ही कोई दूसरी मिसाल हो जहां एक व्यक्ति , एक परिवार या कोई एक समूह नहीं बल्कि पूरे के पूरे समाज पर लोग ऐसा विश्वास रखते हों । पीढ़ी दर पीढ़ी लोग अपनी सुरक्षा को उनके हवाले करके इतना निश्चिन्त हो जाते हों । आज कल कभी कभी ऐसे किस्से सुनने मे आ जाते हैं जिनमे नेपाल के लोग आपराधिक घटना मे संलिप्त हों , लेकिन उन दिनों ऐसी बात अजूबा थी । मुझे नहीं याद कि कोई ऐसी घटना मैने सुनी हो । मै नही जानता कि इनकी नियुक्ति कैसे होती थी , लेकिन ये खुद ही घर - घर जाकर, उन दिनों दो ( आजकल बीस ) रुपये वसूल करते थे । इस तरह एक स्थायी सुरक्षा व्यवस्था कार्य कर रही थी ।

जिन दिनो मै कालेज पास किया उन्ही दिनों एक रात मुझे एक अजनबी चौकीदार रात मे दिखा , जो बिना बातचीत के आगे बढ़ गया । देखने मे उम्र मे भी कम था , मैने अगले दिन जब इस बारे मे पता किया तो पता चला कि पहले वाले बुजुर्ग चौकीदार ने अब रिटायरमेंट ले लिया है । उनके तीन बेटों और एक बेटी के परिवार ने इस काम को आपस मे बांट लिया है । इस तरह अब तीन तीन महीने ये चारों बारी बारी से चौकीदारी करेंगें । यह साधारण बात तभी समझ आयी कि हमारे मुहल्ले की चौकीदारी शेरबहादुर के परिवार के लिए एक संपत्ति है जिसे उनके परिवार ने आपसी समझौते मे बराबर से बांट लिया है । इस संपत्ति का कोई दस्तावेज नही था और न ही कोई रजिस्ट्री हुई थी । लेकिन परिवार की एक स्थाई आमदनी का ज़रिया थी जिसे परिवार ने मौखिक समझौते से बंटवारा कर लिया था । आज जब दिल्ली के ज्यादातर कालोनियों मे रेजिडेंट वेलफेयर एसोसियेशन बन गयी है और उन्होने चारों तरफ से दीवार बनाकर गेट लगा दिये गये हैं । उन गेटों पर सुरक्षा एजेन्सियों के गार्ड तैनात रहते हैं , ऐसे मे यह सुनने मे अटपटी सी बात लग सकती है लेकिन हमारे मुहल्ले मे अभी भी वह पुरानी परम्परा कायम है ।

आज जब सीढ़ियां चढ़ते हुए मैं अपने पुराने विचारों मे खोया हुआ अपने फ्लैट तक पहुंचा तो फिर नीचे वापस आ गया , मेरे मन मे यह जिज्ञासा हुई कि चौकीदार के परिवार के बारे मे पता करूं । मैं खड़ा होकर उसके आने का इन्तजार करने लगा । असल में अपनी जीविका के सिलसिले मे व्यस्तता के कारण मैं दिन भर घर रहता नही हूं दिन मे जब चौकीदार पैसा ले जाता है मै मौजूद नहीं होता इस लिए आज की स्थिति के बारे मे अनभिज्ञ हूं । इस बीच जैसे ही वह पास आया मैने बुला कर उसका नाम पूछ कर बात चीत का सिलसिला शुरू किया । आधे घंटे की बात से जो पता चला वह संक्षेप मे यह है कि आज जिनसे मेरी मुलाकात हुई वे श्यामबहादुर अपनी तीसरी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं । शेरबहादुर इनके दादाजी थे , उनकी मृत्यु आज से पंद्रह साल पहले हो चुकी है । दूसरी पीढ़ी यानी श्याम के पिताजी की , वह भी रिटायर पर ही समझिये , उनमे से कुछ स्वयं आते हैं और कुछ के बच्चे । तीसरी पीढ़ी तक आते आते परिवार के हिस्सेदारों की संख्या बढ़कर पंद्रह हो गयी है । शेरबहादुर के चार बच्चों की अगली पीढ़ी मे किसी के दो , किसी के तीन और किसी के चार बच्चे हैं , इस तरह अब हर एक का नम्बर बराबर से नही आता । हिस्से के मुताबिक किसी का नम्बर जल्दी और किसी का देर से आता है । सारा बंटवारा मौखिक ही है । ये लोग अब चौकीदारी के साथ साथ सुबह कारें भी धोते हैं जिससे अतिरिक्त आमदनी होती है । अपनी बारी खत्म होने पर अगले आने वाले नये हिस्सेदार को कार धोने की संपत्ति भी पास कर दी जाती है । इस तरह चौकीदारी की पुरानी पूंजी के भले ही कई हिस्सेदार हो गये हों लेकिन नई पीढ़ी ने आमदनी का नया स्रोत - कार धुलाई का जोड़ कर आमदनी को बढ़ाया ही है ।

इसके बाद मैं उपर आ कर सोने चला गया लेकिन रात भर सोचता रहा कि मानवीय समबन्धों के कितने रूप हो सकते हैं और हम इतने पास रहकर भी कितनी बातों से अनजान रहते हैं या इतने व्यस्त रहते हैं कि जिनके भरोसे सब कुछ छोड़ दिया है उनके बारे मे कितना कम जानते हैं ।

शनिवार, 8 मई 2010

गालियां ही गालियां , बस एक बार सुन तो लें ( तर्ज - रिश्ते ही रिश्ते )

लोग गाली क्यों देते हैं ? गाली देने वाला गाली दे देता है परन्तु उसे पाने वाले की क्या मनो दशा होती है ? न्यूज एंकरों की भाषा मे कहें तो उसे कैसा लग रहा होता है ? मेरे विचार मे गालियां देने का मुख्य कारण दूसरे को नीचा दिखाना या अपमानित करना होता है । यह भी कहा जा सकता है दोस्तों मे मज़ाक मे भी गालियों का प्रयोग होता है और उसे अपमानित करने की मानसिकता के दायरे मे नही रखा जा सकता । इस बात मे दम तो नज़र आता है लेकिन अगर थोड़ा ध्यान से देखें तो पायेंगे कि दोस्तों मे गालियों वाले शब्दों का प्रयोग केवल यह साबित करने के लिए होता है कि हमारी दोस्ती इतनी प्रगाढ़ है कि अपमानजनक शब्दों के बावज़ूद दोस्त बुरा नही मानता है । यहां भी अपमान मौजूद है लेकिन एक कसौटी की तरह जिस पर दोस्ती को कसा जा रहा है और उसकी प्रगाढ़ता को साबित किया जाता है ।

गालियां मोटे तौर पर दो तरह की होती हैं , आम बोल चाल की भाषा मे हम एक को वेज ( श्लील ) और दूसरे को नॉन वेज ( अश्लील ) कहते है । वेज गालियों की श्रेणी मे वे गालियां आती जो आम तौर पर रिश्तों पर केंद्रित न होकर गुणों पर ज्यादा केंद्रित होती हैं जैसे किसी को कम-अक्ल बताने के लिए गधा या उल्लू कहा जाता है या किसी को तुच्छ या अति चापलूस बताने के लिए कुत्ता कहा जाता है । कुछ कम स्तर की गालियां ( वैसे कुछ लोग इन्हे गाली नही मानते ) भी हैं जैसे जब कोई छात्र बिना अर्थ समझे और आत्मसात किये अपने पाठ का रट्टा लगाता है तो उसे तोता - रटन्त से सम्बोधित करते हैं । नॉन वेज गालियां रिश्तों और रिश्तेदारियों पर केंद्रित होती हैं । ये उन रिश्तों के मूलभूत तत्व को सरेआम उजागर करके आपको अपमान सहने वाली अवस्था मे ला खड़ा करती हैं । वैसे देखा जाय तो रिश्ते इंसान को इंसान बनाते हैं परन्तु उन्ही रिश्तों का जिक्र गालियों के रूप मे , उसे हैवान बना देता है । ऐसा क्यों होता है ? इसका सीधा सपाट उत्तर है कि रिश्ते जिस नाम से पुकारे जाते वे तो इंसान को बहुत प्यारे लगते हैं , परन्तु उन रिश्तों के जो मूल भूत तत्व होते हैं वे सार्वजनिक तौर पर समाज मे चर्चा का विषय नही होते । बल्कि ज्यादातर लोग अकेले मे भी उन मूलभूत तत्वों को संज्ञारूप मे नहीं पुकारते , हां जब गाली देना हो तो भले ही कहें - तेरी ....... , वगैरह ।

वेज गालियों मे जहां पर किसी की व्यक्तिगत कमजोरी को सार्वजनिक करके उसे नीचा दिखाने की कोशिश होती है वहीं नॉन वेज गालियों व्यक्ति के महत्वपूर्ण रिश्तों से बिना जिम्मेदारी उठाये उनका आनन्द लेने की चेष्ठा की जाती है । इसकी थोड़ी सी व्याख्या की जाय तो अर्थ यह हुआ कि पिता को जो आनन्द एक पिता की जिम्मेदारी उठाने का कर्तव्य निभाने पर प्राप्त है वह जब कोई बिना जिम्मेदारी के प्राप्त करने का दावा करता है तो वह मां की गाली बन जाती है । यही प्रक्रिया अन्य रिश्तों के साथ भी है ।

गालियों का इतिहास बहुत पुराना है , इनका जिक्र रामायण और महाभारत मे भी आता है । याद कीजिए वह प्रसंग जब भरत और शत्रुघ्न ननिहाल से लौट कर आते हैं और राम , सीता व लक्ष्मण के वनवास और पिता की मृत्यु का समाचार उन्हे पता चलता है तो भरत द्वारा माता कैकेयी के प्रति कुछ अपशब्दों का जिक्र है जिन्हे गाली की श्रेणी मे कहा जा सकता है , भरत द्वारा माता कैकेयी के प्रति इन शब्दों को गोस्वामी तुलसीदास जी ने इस चौपायी के रूप मे दिया है :

"बर मांगत मन भ‍इ नहिं पीरा । गरि न जीह मुह परेउ न कीरा ॥"

इसी तरह मंत्री सुमंत जब गंगा तट पर वनवास गमन के समय पिता राजा दशरथ का संदेश सुनाते हैं , उस समय लक्ष्मण के द्वारा कुछ शब्दों का भी जिक्र है जो शायद अपशब्द ही हो सकते हैं , परन्तु उन्हे गोस्वामी जी ने मर्यादा के अनुरूप न पा कर कुछ इस तरह लिखा है :

पुनि कछु लखन कही कटु बानी । प्रभु बरजे बड़ अनुचित जानी ॥
सकुचि राम निज सपथ देवाई । लखन संदेसु कहिय जनि जाई ॥

कुछ और भी प्रसंग हैं रामायण मे जहां इस तरह के असंसदीय भाषा का अंदेशा होता है लेकिन अपशब्दों और गालियों का सबसे रोचक प्रसंग तो महाभारत मे है जहां श्री कृष्ण ने शिशुपाल को गालियां देने की एक लिमिट दे दी । यानी शिशुपाल को पूरी छूट थी कि वह १०० गालियां दे सकता था , जैसे ही उसने यह लिमिट पार किया , श्री कृष्ण ने उसका सिर सुदर्शन चक्र से काट दिया । इससे यह भी साबित होता है कि गालियां सहने की भी एक सीमा होती है , उसके बाद इसका परिणाम भयंकर हो सकता है ।

इन सब के बीच मे मुझे लगता है कि गालियों से जुड़ी एक सबसे रोचक परम्परा के जिक्र किये बिना यह पूरी चर्चा अधूरी रह जायेगी , वह है उत्तर भारत खास कर अवधी और भोजपुरी भाषी क्षेत्र मे ससुराल मे दूल्हे और उसके सगों के स्वागत में गायी जाने वाली गालियों के गीत । जो लोग इस परम्परा से सम्बद्ध हैं , इस बात की याद आते ही उनके चेहरे पर मुस्कान जरूर आ गयी होगी । जब कोई बारात आती है या शादी के बाद दूल्हा या दूल्हे के सगे ससुराल जाते हैं , तो उनके भोजन के समय जब वे खाना खाने बैठते हैं , उस समय व्यंजनो की थाली तो उनके सामने सजा कर परोसी ही जाती है साथ ही साथ , महिला मंडली द्वारा , नेपथ्य से गाली भरे गीत ढोलक की मधुर थाप के साथ गाये जाते हैं । यह एक शगुन जैसा होता है । लोग खूब मजे लेकर इसका आनंद उठाते हैं , खास-खास लोगों के नाम लिख कर , गाने वाली महिला मंडली के पास पंहुचाये जाते हैं , ताकि किसी का नाम छूट न जाय और वह बाद मे इस बात को लेकर बुरा न मान जाय या नाराज न हो जाय । इस तरह हर खास खास को नाम से और बाकी सबको आम तौर पर गाली मिलती है । बिल्कुल रामलीला के मंच से होने वाली उद्दघोषणाओं की तरह । मेरी जानकारी मे कुछ ऐसे किस्से भी हैं जब खाने के समय गाली वाले गीत न सुनाई पड़ने पर लोगों ने खाना खाने से मना कर दिया और खाना तभी खाया जब गालियां गाने वाली महिला मंडली आ गयी और गाना शुरू कर दिया ।

गाली पुराण के महाग्रंथ मे गाली देने वाले बड़े बड़े महारथी हैं । समाज का कोई क्षेत्र नही बचा है , सबके अपने अपने तरीके हैं कोई खुलकर गाली देता है कोई परिमार्जित शब्दों मे गाली देता है , मैं तो यहां तक कहूंगा कि इनके बिना समाज अधूरा है । गाली देने से आपकी भड़ास निकल जाती है , चित्त को शांति मिलती है , गाली देने वाले का स्ट्रेस रिलीज होता है । ये सबसे बड़ी स्ट्रेस बस्टर हैं । इनकी वजह से सुनने वाले को परेशानी हो सकती है परन्तुं इन्हे देने वाला सही इस्तेमाल करे तो हर तनाव से मुक्त होकर आनन्द का अनुभव करता है । गालियों मे मंत्रों जैसी शक्ति है , आत्मानंदित करने की और विनाश करने की भी। सब कुछ बस इनके उपयोग के तरीके पर निर्भर है ।