इस वीराने अन्धियारे के बीच,
इस अल्प प्रकाशित कमरे में,
इस अर्ध रात्रि की बेला में,
मैं हूँ मेरा अकेलापन है,
सबको समेटे खामोशी की चादर है।
जागती हुई मेरी आंखो में ,
बन्द पलकों के पीछे,
मेरे मन के पर्दे पर,
अगनित मनोभाव दर्शाते,
रूप तुम्हारा बिम्बित होता है।
कभी कुछ कहती हुई तुम,
कभी कुछ समझाती हुई तुम,
कभी बात बे बात झल्लाती हुई तुम,
कभी मनुहार करती हुई तुम,
अनेकों रूप तुम्हारा प्रकट होता है।
यदि मैं नींद में गहरे जाऊं,
शायद सपने में तुम आओ,
या शायद सिर्फ़ नींद ही आये,
न सपने आयें न तुम आओ,
नींद में तो सब कुछ अनिश्चित है।
इन जागती आखों बन्द पलकों में,
तुमसे हो रहा है मिलन,
इनके खुलते ही है तुमसे वियोग,
नींद में स्वप्न और स्वप्न में तुम्हारे आने की अनिश्चित्ता,
इनके बीच विकल मैं और मेरा असमंजस है।