एक कहावत सुनी थी चौबे चले छब्बे बनने दूबे बन कर लौटे । यह कहावत भारतीय जनता पार्टी ( भाजपा ) पर पूरी तरह लागू होती है । कहां तो भाजपा केंद्र मे कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार को हिलाने की कोशिश मे बजट पर कटौती प्रस्ताव लायी और कहां झारखंड की अपनी साझा सरकार गवां बैठी ।
ज्यादा पुरानी बात नही है , यूपीए वन सरकार के अन्तिम वर्ष मे जब संयुक्त विपक्ष ने अपना अविश्वास प्रस्ताव पेश किया तब भी परिणाम ऐसा ही हुआ था । उस समय भी विपक्ष एकजुट नही रहा । संदेश यही गया था कि क्षेत्रीय दल जैसे समाजवादी पार्टी ( सपा) किसी भी हालत मे सत्ता के नजदीक या सत्ता मे बने रहना चाहते हैं अत: किसी भी समय कहीं भी चले जायेगें । अब तो यह याद करना मुश्किल हो गया है कि कब सपा वाम मोर्चे के साथ है और कब उनसे दूर । लेकिन उससे बढ़ कर मुख्य विपक्षी दल भाजपा के कई सांसद जिस तरह या तो यूपीए के पक्ष मे वोट डाले या गैर हाज़िर रहे उससे भाजपा की अनुशासित पार्टी होने की छबि को भारी धक्का लगा । भाजपा के सांसदों का पैसे के लिए हमेशा बिकने को तैयार रहने जैसे आरोप पर आम लोगों का विश्वास होने लगा । इसके साथ वोट फ़ॉर नोट मामला भी जिस तरह हैंडल किया गया उसने रही सही कसर पूरी कर दी । यह पहला मौका था जब एक राजनैतिक दल स्वंय अपने विरोधियों के उपर स्टिंग कर रहा था , अपने सांसदों का सहारा लेकर । लेकिन जिस टीवी चैनेल के सहारे स्टिंग किया गया वह बैक आउट कर गया तो कांग्रेस ने लगभग यह आरोप उलट कर भाजपा पर प्रायोजित कार्यक्रम द्वारा भ्रष्टाचार फैलाने और संसद मे नोट लहरा कर गरिमा को ठेस पहुंचाने का मेसेज जनता तक पहुंचा दिया । कांग्रेस को ज्यादा मेहनत भी नहीं करनी पड़ी , आखिर कुछ महीने पहले ही पैसे लेकर प्रश्न पूछने के आरोप मे निकाले गये सांसदों मे भाजपा के सर्वाधिक सांसद थे । इस तरह उस समय भी सबसे ज्यादा नुकसान भाजपा का ही हुआ । उनके सांसद टूट गये , चैनेल ने स्टिंग मे साथ देने के बावजूद पूरा स्टिंग नही दिखाया और साथ ही साथ पूरा मीडिया भाजपा से थोड़ा दूर हो गया । यानी हर तरह से भाजपा की छबि धूमिल हुई । इसका खामियाज़ा चुनावों भुगतना पड़ा और भाजपा की लगभग २५ सीटें कम आयीं ।
यूपीए टू के एक साल खत्म होने से पहले लगभग वही हाल हो गया जब लोकसभा मे बजट प्रस्तावों पर कटौती प्रस्ताव लाया गया । इस बार ऐसा लग रहा था कि भाजपा बिना किसी तैयारी के जंग जीत लेने का गुमान पाले बैठी थी । ऐसा कहने का कारण यह है कि पार्टी १९९८ मे गिरधर गोमांग द्वारा मुख्य मंत्री रहते हुए लोकसभा मे वोट देकर वाजपेयी जी की सरकार गिराने का बदला चुकाने को बेताब दिखी , इसलिए शिबु सोरेन को झारखण्ड का मुख्यमंत्री होते हुए भी लोकसभा मे वोट डालने के लिए बाध्य किया । परन्तु यह प्रहसन हो गया क्योंकि शिबु सोरेन ने सरकार के पक्ष मे वोट कर दिया और ठीक उसके बाद भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी के साथ डिनर करने पहुंच गये । इसके अलावा भाजपा के तीन सांसद अनुपस्थित रहे । यह सारी बातें एक अनुशासित , गंभीर और देश को विकल्प देने का दावा करने वाले दल की तो नहीं हो सकती ।
हद तो तब हो गयी जब भाजपा ने दिल्ली मे उच्च स्तरीय मीटिंग मे समर्थन वापसी का निर्णय ले लिया लेकिन जैसे ही शिबु सोरेन के पुत्र हेमन्त सोरेन ने भाजपा को सरकार बनाने का चारा फेंका , पार्टी ने आव देखा न ताव बस मुख्यमंत्री बनने और बनाने के फेर मे पड़ गयी , सारे नेता अपना अपना जुगाड़ बैठाने मे लग गये । लेकिन यह भी अन्तिम नहीं था , इस बीच कितनी बार झारखण्ड मुक्ति मोर्चा और भाजपा मे सरकार साझा होने , केवल भाजपा की सरकार बनने और २८-२८ महीने सरकार बनाने का शिगूफ़ा छोड़ा गया बता पाना मुश्किल है । ऐसे मे एक बार खबर आना कि शिबु २५ मई को इस्तीफ़ा देगें और फिर शिबु सोरेन का यह बयान कि मै इस्तीफा नहीं दे रहा और मुख्य मंत्री बना रहूंगा , किसी उबाऊ प्रहसन के वीभत्स होने जैसा लगा । दिल कहने लगा "और नही बस और नहीं" ।
अब भाजपा ने थक हार कर समर्थन वापसी का पत्र राज्यपाल को दे दिया , लेकिन अपनी पूरी किरकिरी कराने और उपहास का पात्र बनने के बाद । इन सारे प्रकरणों को देखने के बाद यह प्रश्न स्वाभाविक है कि क्या भाजपा का आदर्श राजनैतिक उदाहरण प्रस्तुत करने का दावा केवल खोखला ही है ?