शनिवार, 26 सितंबर 2009

भाजपा आम चुनाव २००९ के बाद और भविष्य की राह

प्रथम भाग मे हमने इस बात पर विचार किया कि कैसे भाजपा ने चुनाव से ठीक पहले हर मामले मे गूफ़ अप किया और अप्रत्याशित परिणाम आया । इस लिए उनके वे नेता गण जो सत्ता की आशा लगाए हुए बैठे थे, उनका बेहद निराश होना स्वाभाविक था । इस निराशा के माहौल मे इस बात की जिम्मेदारी पार्टी पर आ पड़ी है कि आगे का रास्ता क्या हो । पार्टी मे नया नेतृत्व कैसे आये । अब इस परिदृश्य मे सत्ता संघर्ष खुल कर सामने आ गया है जिसमे एक तरह से कीचड़ उछालो प्रतियोगिता चल रही है । हर छोटे बड़े नेता को लग रहा है कि उसके पास भाजपा का अगला वाजपेयी या आडवाणी बनने का मौका है इस लिए एक दूसरे की टांग खिचाई मे लगा हुआ है ।

भाजपा के दोनो शीर्षस्थ नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी और श्री लाल कृष्ण आडवाणी लगभग ४० वर्षों से यानी जनसंघ के समय से अब तक पार्टी का पर्याय बने हुए हैं । उनके बीच सामंजस्य था यह सभी मानते हैं, मतभेद भी रहे होगें परंतु वे मर्यादा के दायरे से बाहर कभी नही आये । मतभेदों की बात कभी कभी मीडिया में उठती थी मगर खुली उठा पटक कभी नही हुई । आज की स्थिति यह है कि वाजपेयी जी सन्यास आश्रम मे हैं और आडवाणी जी गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास तीनो के भवंर मे हैं और भ्रम की स्थिति पैदा हो रही है। चूंकि वे प्राइम मिनिस्टर इन वेटिंग थे और इस बात से पूर्ण आश्वस्त थे कि वे प्रधान मंत्री बनेंगे और देश की बाग डोर अपने हाथ मे लेगें, इस लिए गृहस्थ आश्रम की मन:स्थिति उनमे मौज़ूद है । वानप्रस्थ इस लिए कि उन्होने चुनाव परिणाम आने के बाद सक्रिय राजनीति से हटने की घोषणा की लेकिन अगली पीढी का नेता चुनने तक ६ महीने के लिए नेतृत्व का जिम्मा लेना स्वीकार कर लिया । सन्यास इस लिए कि वे अच्छी तरह जानते हैं कि अब उन्हे सक्रिय राजनीति से सन्यास लेना ही होगा, आज नही तो कल ।

इन सब के बीच भ्रम की स्थिति इस लिए पैदा हुई कि पार्टी के दूसरी पीढ़ी के कुछ नेता जिन्हे आडवाणी गुट भी कहा जाता है , उनके द्वारा यह प्रचारित किया जाने लगा कि आडवाणी जी पूरे कार्यकाल तक नेता विपक्ष बने रहेगें । इससे यह मेसेज़ आम लोगों और पार्टी कार्यकर्ताओं मे गया कि सन्यास की घोषणा एक छलावा थी । इस्तीफ़े की घोषणा हार के तात्कालिक दबाव से बचने की स्ट्रेटजी मात्र थी । एक ऐसा व्यक्ति जिसका इतना लम्बा कैरियर रहा हो उसके लिए यह उसके व्यक्तित्व का स्खलन ही साबित हुआ । यह लगभग उनके कंधार मामले पर दिये बयान वाली स्थिति जैसा उल्टा पड़ रहा है । जहां तब लोगों ने सोचा कि आडवाणी जी जिम्मेवारी से बचना चाहते हैं वहीं इस बार लोगों को लगा कि वे एन केन प्रकारेण कुर्सी से चिपके रहना चाहते हैं और सत्ता की लिप्सा से ग्रस्त हैं ।

विश्व के दूसरे समाज मे शायद सत्ता लिप्सा या उसके लिए जोड़ तोड़ को नकारात्मक दृष्टि से न देखा जाता हो मगर हमारे समाज मे इसे कभी भी सम्मान और पूजनीय दृष्टि से नही देखा गया है । यहां पर जो लोग त्याग की भावना दिखाते हैं, लोग उन्हे सिर आंखो पर बिठाते हैं और जो जोड़ तोड़ लगाता है उसे दुत्कार ही मिलती है । इस बात के कई उदाहरण दिये जा सकते हैं, माइथालोजिकल काल से लेकर ऐतिहासिक काल तक मगर मैं दो तात्कालिक उदाहरण दूंगा ।

पहला पूर्व प्रधानमंत्री श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह का जिन्होने अपने राजनैतिक कैरियर में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर डाकू समस्या के कारण इस्तीफ़ा देकर अपने लिए राजनैतिक स्थान बनाया था । इसी की अगली कड़ी मे वे सही मौके पर देश के रक्षा मंत्री के तौर पर इस्तीफ़ा देकर त्याग की मूर्ति बन गये थे । उस समय उनके लिए एक नारा लगता था ’राजा नही फ़कीर है देश की तकदीर है’ । उनकी इस छबि ने उन्हे प्रधानमंत्री पद तक पहुंचा दिया । लेकिन प्रधानमंत्री पद के चुनाव के लिए जनता दल की बैठक मे जिस तरह छल के सहारे उनको नेता बनाया गया उसने सारा मज़ा बेस्वाद सा कर दिया । उनकी चमक फ़ीकी पड़नी शुरु हो गई । फ़िर उन्होने जिस तरह श्री देवी लाल जी की एक रैली को असफल करने के लिए बिना किसी तैयारी के और बिना किसी बहस के ’मंडल कमीसन’ की सिफ़ारिसें लागू की, इस बात ने उनकी छबि पूरी तरह से बदल दी । अब वे कुर्सी से चिपके और कुर्सी के लिए हथकंडा अपनाने वाले नज़र आने लगे । श्री आडवाणी की रथ यात्रा के बाद जब भाजपा ने समर्थन वापस लिया तो उन्होने इस्तीफ़ा नही दिया बल्कि संसद मे बहस कराई , वोटिंग कराई और धर्म निरपेक्षता के नाम पर पद की शहादत दी । इन सब कोशिशों के बाद भी पुरानी विश्वसनीयता नही प्राप्त कर सके । अब लोग उन्हे फ़कीर वाले भाव से देखने को बिल्कुल तैयार नही थे । इसके बाद वे चुनावी राजनीति मे लगभग अप्रासंगिक हो गये थे । मेरे विचार मे पूरे देश मे अपने बूते एक से ज्यादा सीटें लाने मे असमर्थ थे । अपने अन्तिम वर्षों मे वे अपने को दिल्ली की झुग्गियों की राजनीति तक ही सीमित पा रहे थे ।

दूसरा उदाहरण श्रीमती सोनिया गांधी का है । जब उन्होने राजनीति मे कदम रखा, भारतीय राजनीति तो छोड़िये भारत के बारे मे उन्हे कितना पता था यह कहना मुश्किल है । जब श्री राजीव गांधी जी की हत्या हुई और सारा देश स्तब्ध था, तब कांग्रेस के बड़े नेताओं ने उन्हे पार्टी अध्यक्ष बनाने की कोशिश की थी लेकिन उन्होने बड़े डिग्नीफाइड तरीके से ठुकरा दिया था । इसके बाद श्री नरसिंहाराव जी की सरकार मे जैन कमीशन के मुद्दे पर हंगामा हुआ और उन्हे एक बार फिर परोक्ष रूप से राजनीति में लाने की कोशिश की गई और एक बार फिर उन्होने डिग्नीफाइड मौन से इसका उत्तर दिया। जैसा कि मैं इस लेख के पहले भाग में चर्चा कर चुका हूं कि किस तरह उस समय कांग्रेस पार्टी टूटी और उसमे से आधा दर्जन छोटी छोटी पार्टियां बन गयीं । उस समय भी लाइट वेट श्री सीता राम केसरी के स्थान पर सोनिया जी को अध्यक्ष बनाने के लिए पूरी पार्टी की तरफ से अनुरोध लेकर बड़े नेता उनके घर गये तब जाकर उन्होने पद स्वीकार किया । उनका सबसे बड़ा मास्टर स्ट्रोक रहा उनका प्रधान मंत्री पद न स्वीकार करना । जब उस समय उनके विदेशी मूल के मुद्दे पर हंगामा चल रहा था, उनका यह कदम उनकी सब खामियों को ढक गया और साथ ही लोगों तक यह मेसेज पहुचाने मे कामयाब रहा कि उन्हे बड़े से बड़े पद का लालच नहीं है । इस बात ने उन्हे समकालीन राजनीति का सबसे सम्मानित व्यक्तित्व बना दिया ।

मैने संक्षेप मे दोनो उदाहरण इस लिए दिये क्योंकि मेरे विचार मे पार्टी के एक वर्ग द्वारा यह प्रचार करने के बाद कि आडवाणी जी पूरे पांच साल तक नेता विपक्ष बने रहेगें, एक ऐसे व्यक्ति की गलत छबि प्रस्तुत हो रही है जिसका सराहनीय राजनैतिक कैरियर रहा है ।

भविष्य की राह के लिए यह सबसे जरूरी है कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व अपनी विश्वसनीयता प्राप्त करे, अत: आडवाणी जी दिसम्बर तक अवश्य रिटायर होवें । दूसरी बात यह भी जरूरी है कि पार्टी के उच्चतम पद के लिए प्रेस और इलेक्ट्रानिक मीडिया के माध्यम से एक दूसरे का चरित्र हनन बन्द हो चाहे वह सार्वजनिक बयानबाजी से हो रहा है या आफ द रेकार्ड ब्रीफ़िग से । आज यदि भाजपा के दूसरी पीढ़ी के नेता किसी एक को सर्वमान्य नेता नही मान पा रहे तो इसका कोई मान्य हल आपस मे बैठ कर निकालें । मेरे विचार मे एक नेता के बज़ाय एक ४ या ५ का समूह ’प्रेज़िडियम’ के रूप मे काम करे और सारे नीति गत निर्णय वही बहुमत के आधार पर ले । जहां तक सरकार बनने पर प्रधानमंत्री जैसे पद की बात है उसे बिल्कुल प्रजातान्त्रिक तरीके से पार्लियामेंट्री बोर्ड मे बहुमत के आधार पर तय किया जाना चाहिए । अन्य सरकारी पद का बटवारा जब पांच साल बाद यदि मौका आयेगा तो यही प्रेजिडियम आडवाणी जी की व शायद संघ की सलाह से तय कर सकता है ।आखिर अमेरिका में प्रेसीडेंट ओबामा और हिलेरी क्लिन्टन चुनाव पूर्व प्रतिद्वंदी होने के बावज़ूद आज मिल कर काम कर रहे हैं इस बात से प्रेरणा लेने की आवश्यकता है । इसकी गाइड लाइन मोटे तौर पर अभी ही तय की जा सकती है । यह आडवाणी जी के लिये एक बहुत बडी चुनौती है लेकिन इस तरह की व्यवस्था स्थापित कर के वे उस पार्टी को बचा सकते हैं जिसको यहां तक पहुंचाने मे उन्होने अपना जीवन लगा दिया । साथ ही एक विश्वसनीय और मज़बूत विपक्ष होने से भारतीय राजनीति का भविष्य भी उज्जवल होगा । इससे आडवाणी जी भी अपने गृहस्थ, वानप्रस्थ के द्वंद से निकल कर सन्तोषप्रद सन्यास आश्रम का जीवन व्यतीत कर पायेगें, श्री वाजपेयी जी और श्री ज्योति बसु जी की तरह ।

भाजपा का सफ़ल नेतृत्व परिवर्तन इस लिए भी जरूरी है क्योंकि सिर्फ़ सी पी एम ने अगली पीढ़ी को सफ़लता पूर्वक नेतृत्व सौंपा है बाकी पार्टियों मे चाहे रीज़नल हों या राष्ट्रीय नेता का फ़ैसला वंशवाद ही तय करता है।