रविवार, 15 अगस्त 2010

बुधवार, 11 अगस्त 2010

स्वतंत्रता दिवस पर मुद्दे ( १ ) : क्या भारत के प्रधानमंत्री का पद प्रशासनिक है या राजनैतिक ?


प्रश्न इसलिए कि जब श्री मनमोहन सिंह जी प्रधानमंत्री बने तो यह व्यवस्था बतायी गयी कि सोनिया जी यूपीए की अध्यक्ष के रूप मे पोलिटिकल मैनेजमेंट करेंगी और प्रधान मंत्री प्रशासनिक मैनेजमेंट करेंगे । उस समय कुछ सवाल जरूर उठे थे लेकिन तब के भावुकता भरे माहौल मे इस पर गंभीरता से विचार नहीं हुआ । लेकिन अब जब कि यूपीए का दूसरा कार्यकाल शुरू हुए भी एक साल से ज्यादा हो गये हैं तो इस प्रश्न पर पूरी गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए ।

प्रधानमंत्री का पद तो नितांत राजनैतिक मैनेजमेंट के लिए ही है , प्रशासनिक व्यवस्था के मैनेजमेंट के लिए तो कैबिनेट सेक्रेटरी होते हैं । दूसरी बात सरकार के मुखिया के तौर पर प्रधान मंत्री को सरकार के कार्यों के आधार पर अपनी पार्टी को चुनाव मे जनता के सामने भी ले जाना होता है और जवाब देना होता है । यह सरकार दुबारा चुन कर आयी है और कांग्रेस ज्यादा सीटों से जीत कर भी आयी है, लेकिन कहीं न कहीं जिस नैतिक उच्च मानदंड के साथ इस सरकार को राजनैतिक पहल करनी चाहिए थी वह दिखायी नही दे रहा है । जहां कहीं भी जिस निर्णायक राजनैतिक पहल की जरूरत है वहां पर यह सरकार बगलें झाकंते नजर आ रही है । चाहे नक्सलवाद का मामला हो , तेलंगाना का मामला हो , पाकिस्तान से संबंध का मामला हो, बलूचिस्तान मे भारत के गड़बड़ी फैलाने को लेकर पाकिस्तान का आरोप हो या कश्मीर का मामला हो । हर जगह यही नजर आ रहा है कि या तो केवल बात को टाला जा रहा है या बात बिगड़ रही है । वह पहल नही नजर आ रही जिसकी उम्मीद थी ।

प्रधान मंत्री भले ही एक राजनैतिक दल से चुना जाता हो परन्तु वह देश का मुखिया होता है । उसका व्यवहार स्टेट्समैन का होता है , उसे दूर द्रष्टा होना चाहिए । आज इन बातों का अभाव दिख रहा है । क्या इसका कारण यह है कि प्रधानमंत्री जो कि राज्यसभा से हैं और उन्होने कभी भी लोकसभा का चुनाव नहीं जीता है ऐसे मे वह नैतिक बल नहीं जुटा पा रहे हैं जो कि इसके पहले के प्रधानमंत्री कर सकते थे जैसे इन्दिरा जी , राजीव जी या फिर नरसिंहाराव जी और वाजपेयी जी हों । जब कि गंभीर और दूरगामी प्रभाव वाले मसले पर जब राजनीतिक आम सहमति बनानी होती है तो प्रधानमंत्री जी को स्वयं के बजाय सोनिया जी पर निर्भर रहना पड़ता है । इसलिए उन्हे पहले वहीं पर ही जूझना पड़ता है । यह बात हम सब न्यूक्लियर डील के मुद्दे पर देख चुके हैं जब प्रधानमंत्री को इस्तीफे की धमकी तक देनी पड़ी थी , तब कहीं जा कर उन्हे पार्टी का समर्थन मिला था । ऐसे मे यह तो जाहिर है कि इस तरह की धमकी कितनी बार दी जा सकती है । इसलिए ज्यादातर मसलों पर कोई निर्णायक पहल के बजाय किसी तरह टाइम काटने वाला रवैया ज्यादा लग रहा है ।


इन हालातों मे क्या यह उचित नहीं होगा कि देश को ऐसा प्रधानमंत्री मिले जो राजनैतिक हो , राजनैतिक मैनेजमेंट भी करे और स्टेट्समैन की तरह राजनैतिक इनीसियेटिव ले ।


( १५ अगस्त आने वाला है इस अवसर पर कुछ मुद्दे जिन पर हमे निरपेक्ष भाव से विचार करना चाहिए - इसी श्रंखला में पहला लेख )

रविवार, 1 अगस्त 2010

मैत्री दिवस

मैत्री दिवस पर अपने सब मित्रों के नाम , जिनके बिना यह जीवन निरर्थक होता, मै दो महाकवियों गोस्वामी तुलसी दास और राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर की रचना उद्‍धृत कर रहा हूं :

१. राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर रचित रश्मि रथी से जहां श्री कृष्ण से संवाद के दौरान कर्ण के मुख से कवि ने मैत्री का अति सुन्दर बखान किया है :

मैत्री की बड़ी सुखद छाया,
शीतल हो जाती है काया,

धिक्कार योग्य होगा वह नर ,
जो पाकर भी ऐसा तरुवर,

हो अलग खड़ा कटवाता है ,
खुद आप नहीं कट जाता है ।


जिस नर की बाँह गही मैने,
जिस तरु की छाँह गही मैने,

उस पर न वार चलने दूंगा,
कैसे कुठार चलने दूंगा ?

जीते जी उसे बचाउंगा,
या आप स्वयं कट जाउंगा ।

मित्रता बड़ा अनमोल रतन,
कब इसे तोल सकता है धन ?

धरती की है क्या बिसात ?
आ जाय अगर बैकुंठ हाथ,

उसको भी न्योवछवर कर दूं,
कुरुपति के चरणों मे धर दूं ।



२. गोस्वामी तुलसी दास कृत श्री राम चरित मानस के किष्किन्धा काण्ड से जहां श्री राम संवाद के दौरान सुग्रीव को अपनी मित्रता का भरोसा दिलाते हुए मित्र के गुणों का अति सुन्दर बखान कर रहे हैं :


जे न मित्र दुख होहिं दुखारी,
तिन्हही बिलोकत पातक भारी।

निज दुख गिरि सम रज करि जाना,
मित्र क दुख रज मेरु समाना ।

जिन्हके अस मति सहज न आई ,
ते सठ कत हठि करत मिताई ।

कुपंथ निवारि सुपंथ चलावा ,
गुन प्रकटै अवगुनहिं दुरावा ।

देत लेत मन संक न धरई ,
बल अनुमानि सदा हित करई ।

बिपत काल कर सतगुन नेहा ,
श्रुति कह संत मित्र गुन एहा ।

आगे कह हित वचन बनाई ,
पीछे अनहित मन कुटिलाई ।

जाके चित एहि गति सम भाई ,
अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई ।

सेवक सठ नृप कृपन कुनारी ,
कपटी मित्र सूल सम चारी ।

सखा सोच त्यागहु बल मोरे ,
सब बिधि घटब काज मैं तोरे ।



मैत्री दिवस पर सबको हार्दिक शुभकामनाएं ।

मरीचिका का पुनर्जन्म

दिन पहले की बात है , मुझ कई मित्रों ने SMS किया और कई ने इमेल पर लिखा कि मेरा ब्लॉग मौजूद नही है , जब मैने चेक किया तो पाया कि गूगल ने मेरा ब्लॉग हटा दिया है । कुछ जानकारी उनको देने के बाद यह आश्वासन दिया गया कि जांच के बाद पुन: इसे चालू किया जायेगा ।

इस बीच मैने ज़ाकिर अली जी के ब्लॉग "तस्लीम" पर पूछा भी , क्यों कि मैने सुन रखा था कि अर्शिया जी के ब्लॉग के साथ भी ऐसा हो चुका था । ज़ाकिर जी ने बताया कि थोड़ा समय लगेगा और जांच के बाद चालू हो जायेगा । आज फ्रेन्डशिप डे के दिन, यह ब्लॉग तीन दिन बाद गायब रहने के बाग फिर से वेब पर उपलब्ध है । इस बीच सभी मित्रों को धन्यवाद देता हूं जिन्होने इमेल या SMS स से सम्पर्क किया । आशा है अब यह हमेशा मौजूद रहेगा ।

शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

वाह सचिन

आज जब अनेक अशांत कर देने वाले समाचारों से दिन अटा पड़ा है , इस सब के बीच एक समाचार मन को सुकून देने वाला मिला , सचिन का दोहरा शतक जो उन्होने श्रीलंका के विरुद्ध दूसरे टेस्ट मे लगाया , जो उनका अड़तालिसवां शतक भी है ।

मैं स्कूल और कालेज के दिनो मे क्रिकेट पर बहुत ज्यादा केंद्रित रहता था, अन्य खेल भी देखता सुनता था लेकिन क्रिकेट हर भारतीय की तरह मुझे भी दीवाना बनाता था । हर खिलाड़ी का रिकार्ड और पोस्टर अपनी फाइल मे रखना और उसे अपडेट करते रहना एक तरह से डियुटी सा होता था । लेकिन धीरे धीरे शायद उम्र का असर हो या शायद फिक्सिंग के आरोप का असर, इस खेल से मन थोड़ा दूर हो गया । अब तो बस कुछ खास हुआ तो नज़र दौड़ा लेता हूं ।

लेकिन इन सब से अलग सचिन के लिए सम्मान कभी भी कम नहीं हुआ । जब कभी भी उन पर किसी ने विवाद उठाने की कोशिश की, वह स्वयं विवादित हो गया लेकिन सचिन निर्विवाद ही रहे । उदाहरण के लिए साउथ अफ़्रिका मे गेंद पर नाखून लगाने का मामला हो, आस्ट्रेलिया मे हरभजन के विवाद मे उन्हे खीचने का मामला हो या अभी ताजा ताजा बाल ठाकरे का लेख हो । इसका कारण है उनका खेल के प्रति अगाध प्रेम और फ़ोकस । उन्हे समाचारों मे रहने के लिए ज़ुबान नही बल्ला चलाने का शौक है । मै उनके रिकार्ड पर नही लिखना चाहता वो सब जानते हैं । बस यह कहना चाहता हूं कि सत्रह साल की उम्र से अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर खेलने वाले सचिन आज सैंतिस साल के सचिन उतने ही फ़िट हैं और उतना ही फ़ोकस्ड हैं यही उअनकी महानता का राज़ है । उनकी वजह से हम जैसे व्यक्ति भी फ़िक्सिंग विवाद के बाद भी इस खेल से जुड़ सक रहे हैं । आखिर उन्हे क्रिकेट का भगवान ऐसे ही नहीं कहा जाता है ।

इस परेशानी भरे जीवन मे खुशी का एक मौका देने और भारतीय होने पर गर्वान्वित होनी का मौका देने के लिए मै सचिन को धन्यवाद देता हूं । ऐसे व्यक्तित्व हमारा देशवासी है इस पर नाज़ करता हूं ।

शुक्रवार, 25 जून 2010

एक थे बांका के दिग्विजय सिंह

मेरा मानना है कि श्री दिग्विजय सिंह जी कुछ ऐसे राज नेताओं मे से थे जो आम जनता की लड़ाई लड़ते थे । अपने वचन के पक्के थे । अपने सम्बन्ध लाभ हानि के हिसाब से नहीं तय करते थे । सही बात के लिए किसी भी हद तक जा सकते थे । उन्होने जार्ज साहेब के लिए पार्टी से लड़ाई की , जार्ज साहेब के साथ तब खड़े थे जब पूरी पार्टी उनसे किनारा कर रही थी । दिग्विजय जी चन्द्रशेखर जी के करीबी थे , परन्तु ध्यान दीजिए, वी पी सिंह जी के निधन के बाद उनके अन्तिम संस्कार मे शामिल होने वाले चंद लोगो मे से एक दिग्विजय जी थे , जब कि मीडिया भी उस समय मुम्बई पर आतंकवादी हमलों पर केंद्रित था और बाकी लोग भी ।


राज्य सभा की सीट से इस्तीफ़ा दे कर लोक सभा निर्दलीय लड़ना , नितीश कुमार के विरोध के बाद भी जीतना , उनके बारे मे सब कुछ बता जाता है । वे बिहार मे एक नया किसान आन्दोलन खड़ा करने की कोशिश कर रहे थे वह शायद अब रुक जाये । ऐसे व्यक्ति का असमय जाना देश के लिए एक अपूर्णीय क्षति है ।

ईश्वर उनकी आत्मा को शांति और उनके परिवार को इस दुख को सहने की क्षमता प्रदान करे यही प्रार्थना है ।

सोमवार, 24 मई 2010

झारखंड का तमाशा - भारतीय जनता पार्टी की किरकिरी

एक कहावत सुनी थी चौबे चले छब्बे बनने दूबे बन कर लौटे । यह कहावत भारतीय जनता पार्टी ( भाजपा ) पर पूरी तरह लागू होती है । कहां तो भाजपा केंद्र मे कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार को हिलाने की कोशिश मे बजट पर कटौती प्रस्ताव लायी और कहां झारखंड की अपनी साझा सरकार गवां बैठी ।

ज्यादा पुरानी बात नही है , यूपीए वन सरकार के अन्तिम वर्ष मे जब संयुक्त विपक्ष ने अपना अविश्वास प्रस्ताव पेश किया तब भी परिणाम ऐसा ही हुआ था । उस समय भी विपक्ष एकजुट नही रहा । संदेश यही गया था कि क्षेत्रीय दल जैसे समाजवादी पार्टी ( सपा) किसी भी हालत मे सत्ता के नजदीक या सत्ता मे बने रहना चाहते हैं अत: किसी भी समय कहीं भी चले जायेगें । अब तो यह याद करना मुश्किल हो गया है कि कब सपा वाम मोर्चे के साथ है और कब उनसे दूर । लेकिन उससे बढ़ कर मुख्य विपक्षी दल भाजपा के कई सांसद जिस तरह या तो यूपीए के पक्ष मे वोट डाले या गैर हाज़िर रहे उससे भाजपा की अनुशासित पार्टी होने की छबि को भारी धक्का लगा । भाजपा के सांसदों का पैसे के लिए हमेशा बिकने को तैयार रहने जैसे आरोप पर आम लोगों का विश्वास होने लगा । इसके साथ वोट फ़ॉर नोट मामला भी जिस तरह हैंडल किया गया उसने रही सही कसर पूरी कर दी । यह पहला मौका था जब एक राजनैतिक दल स्वंय अपने विरोधियों के उपर स्टिंग कर रहा था , अपने सांसदों का सहारा लेकर । लेकिन जिस टीवी चैनेल के सहारे स्टिंग किया गया वह बैक आउट कर गया तो कांग्रेस ने लगभग यह आरोप उलट कर भाजपा पर प्रायोजित कार्यक्रम द्वारा भ्रष्टाचार फैलाने और संसद मे नोट लहरा कर गरिमा को ठेस पहुंचाने का मेसेज जनता तक पहुंचा दिया । कांग्रेस को ज्यादा मेहनत भी नहीं करनी पड़ी , आखिर कुछ महीने पहले ही पैसे लेकर प्रश्न पूछने के आरोप मे निकाले गये सांसदों मे भाजपा के सर्वाधिक सांसद थे । इस तरह उस समय भी सबसे ज्यादा नुकसान भाजपा का ही हुआ । उनके सांसद टूट गये , चैनेल ने स्टिंग मे साथ देने के बावजूद पूरा स्टिंग नही दिखाया और साथ ही साथ पूरा मीडिया भाजपा से थोड़ा दूर हो गया । यानी हर तरह से भाजपा की छबि धूमिल हुई । इसका खामियाज़ा चुनावों भुगतना पड़ा और भाजपा की लगभग २५ सीटें कम आयीं ।

यूपीए टू के एक साल खत्म होने से पहले लगभग वही हाल हो गया जब लोकसभा मे बजट प्रस्तावों पर कटौती प्रस्ताव लाया गया । इस बार ऐसा लग रहा था कि भाजपा बिना किसी तैयारी के जंग जीत लेने का गुमान पाले बैठी थी । ऐसा कहने का कारण यह है कि पार्टी १९९८ मे गिरधर गोमांग द्वारा मुख्य मंत्री रहते हुए लोकसभा मे वोट देकर वाजपेयी जी की सरकार गिराने का बदला चुकाने को बेताब दिखी , इसलिए शिबु सोरेन को झारखण्ड का मुख्यमंत्री होते हुए भी लोकसभा मे वोट डालने के लिए बाध्य किया । परन्तु यह प्रहसन हो गया क्योंकि शिबु सोरेन ने सरकार के पक्ष मे वोट कर दिया और ठीक उसके बाद भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी के साथ डिनर करने पहुंच गये । इसके अलावा भाजपा के तीन सांसद अनुपस्थित रहे । यह सारी बातें एक अनुशासित , गंभीर और देश को विकल्प देने का दावा करने वाले दल की तो नहीं हो सकती ।

हद तो तब हो गयी जब भाजपा ने दिल्ली मे उच्च स्तरीय मीटिंग मे समर्थन वापसी का निर्णय ले लिया लेकिन जैसे ही शिबु सोरेन के पुत्र हेमन्त सोरेन ने भाजपा को सरकार बनाने का चारा फेंका , पार्टी ने आव देखा न ताव बस मुख्यमंत्री बनने और बनाने के फेर मे पड़ गयी , सारे नेता अपना अपना जुगाड़ बैठाने मे लग गये । लेकिन यह भी अन्तिम नहीं था , इस बीच कितनी बार झारखण्ड मुक्ति मोर्चा और भाजपा मे सरकार साझा होने , केवल भाजपा की सरकार बनने और २८-२८ महीने सरकार बनाने का शिगूफ़ा छोड़ा गया बता पाना मुश्किल है । ऐसे मे एक बार खबर आना कि शिबु २५ मई को इस्तीफ़ा देगें और फिर शिबु सोरेन का यह बयान कि मै इस्तीफा नहीं दे रहा और मुख्य मंत्री बना रहूंगा , किसी उबाऊ प्रहसन के वीभत्स होने जैसा लगा । दिल कहने लगा "और नही बस और नहीं" ।

अब भाजपा ने थक हार कर समर्थन वापसी का पत्र राज्यपाल को दे दिया , लेकिन अपनी पूरी किरकिरी कराने और उपहास का पात्र बनने के बाद । इन सारे प्रकरणों को देखने के बाद यह प्रश्न स्वाभाविक है कि क्या भाजपा का आदर्श राजनैतिक उदाहरण प्रस्तुत करने का दावा केवल खोखला ही है ?

बुधवार, 19 मई 2010

गोरखा चौकीदार - एक परम्परा भरोसे की

आज रात मे देर से सोया, असल मे कहीं गया हुआ था और घर आने मे देर हो गयी । वैसे तो दिल्ली में यह कोई अजीब बात नही है , देर तो अक्सर हो ही जाया करती है । आज यह बात याद कर रहा हूं तो खास बात यह है कि जब मै गाड़ी पार्क करके सीढ़ियां चढ़ रहा था तो सीटी की आवाज के साथ सड़क पर डंडे पटकने की अवाज आयी । यह चौकीदार के आस पास होने की सूचना थी । यह आवाज तो जैसे मैं भूल ही गया था , मुझे अपना बचपन याद हो आया ।

मैं हाई स्कूल पास करके आगे की पढ़ाई के सिलसिले मे दिल्ली आया था । यहां ग्यारहवीं मे एडमीशन लिया था । मैं चूंकि छोटे से गांव से आया था , मेरी बड़े शहर के कुछ तौर तरीकों के बारे मे समझ कम थी , उनमे से एक यह चौकीदार वाली बात भी थी । हमारे गांव मे तो जब देर रात कुत्ते जोर से भौंकते थे तो बड़े बुजुर्ग , जो ऐसा लगता है रात को अक्सर कम ही सोते थे और एक तरह से चौकीदार की भूमिका मे होते थे , अपनी चारपाई पर लेटे -लेटे पुकार कर एक दूसरे को सावधान करते हुए कहते थे कि ध्यान देना शायद कोई चोर वगैरह तो नहीं है । परन्तु यहां मामला दूसरा था ।

असल मे मेरी शुरू से आदत थी कि मैं देर रात जाग कर ही पढ़ता था मुझसे सुबह उठ कर पढ़ाई कभी नहीं हुई । इस बात के लिए घर वालों से हमेशा शिक्षा - सलाह मिलती थी कि सुबह उठ कर पढ़ा करो सुबह दिमाग ताजा रहता है और पाठ जल्दी याद होता है । लेकिन मै सुबह जब भी पढ़ने की कोशिश किया मुझे नीद ही आयी , याद वाद कुछ नही हुआ । इस तरह मैं अपनी आदत के अनुसार रात मे देर तक जाग कर पढ़ता था, रात ११-१२ बजे के बाद कालोनी मे बिल्कुल सन्नाटा सा हो जाता था । उन दिनो दिल्ली मे ज्यादातर स्ट्रीट लाइटें टंग्स्टन बल्ब की ही होती थीं । सड़कों पर थोड़ा उजाला और थोड़ा अंधेरा होता था , आज जैसे मरकरी लाइट के बड़े - बड़े टावर नहीं होते थे । ऐसे मे चौकीदार की सीटी और उसके लाठी की आवाज सब को सुरक्षा का बोध देती थी । मै जब पढ़ाई मे ब्रेक करके बीच बीच मे थोड़ी देर के लिए कमरे से बाहर आ जाता और बालकॉनी मे छज्जे पर आधा झुका हुआ खड़ा होकर सड़क पार के पार्क की तरफ ऐसे ही शून्य मे देखता रहता था । उसी समय कभी कभी चौकीदार उधर से गुजरता , नीचे से ही पूछ लेता - क्या शाब अभी तक सोया नहीं ? पढ़ाई कर रहा था क्या ? मैं उत्तर देता हां , और कैसे हो ? उत्तर मिलता ठीक हूं और इस प्रक्रिया मे वह आगे निकल चुका होता । क्योंकि इस दौरान वह रुकता नहीं था सारी बात चलते चलते ही करता था । इनका नाम शेरबहादुर था जो उस समय करीब ५५ - ६० साल के रहे होगें ।

चौकीदारों की एक परम्परा सी थी , केवल बड़े लोग अपनी कोठियों पर चौकीदार रखते थे , जो ज्यादातर नेपाल के गुरखा जवान होते थे । बाकी कालोनियों मे सामुहिक तौर पर ये गुरखा जवान इसी तरह सीटी बजा कर और डंडा सड़क पर पटक कर पहरा देते थे । गुरखा लोगों की इमानदारी और वफ़ादारी अपने आप मे एक मिसाल है । यह अपने आप मे मानव इतिहास की सबसे बड़ी बिश्वास की धरोहर होगी जिसकी शायद ही कोई दूसरी मिसाल हो जहां एक व्यक्ति , एक परिवार या कोई एक समूह नहीं बल्कि पूरे के पूरे समाज पर लोग ऐसा विश्वास रखते हों । पीढ़ी दर पीढ़ी लोग अपनी सुरक्षा को उनके हवाले करके इतना निश्चिन्त हो जाते हों । आज कल कभी कभी ऐसे किस्से सुनने मे आ जाते हैं जिनमे नेपाल के लोग आपराधिक घटना मे संलिप्त हों , लेकिन उन दिनों ऐसी बात अजूबा थी । मुझे नहीं याद कि कोई ऐसी घटना मैने सुनी हो । मै नही जानता कि इनकी नियुक्ति कैसे होती थी , लेकिन ये खुद ही घर - घर जाकर, उन दिनों दो ( आजकल बीस ) रुपये वसूल करते थे । इस तरह एक स्थायी सुरक्षा व्यवस्था कार्य कर रही थी ।

जिन दिनो मै कालेज पास किया उन्ही दिनों एक रात मुझे एक अजनबी चौकीदार रात मे दिखा , जो बिना बातचीत के आगे बढ़ गया । देखने मे उम्र मे भी कम था , मैने अगले दिन जब इस बारे मे पता किया तो पता चला कि पहले वाले बुजुर्ग चौकीदार ने अब रिटायरमेंट ले लिया है । उनके तीन बेटों और एक बेटी के परिवार ने इस काम को आपस मे बांट लिया है । इस तरह अब तीन तीन महीने ये चारों बारी बारी से चौकीदारी करेंगें । यह साधारण बात तभी समझ आयी कि हमारे मुहल्ले की चौकीदारी शेरबहादुर के परिवार के लिए एक संपत्ति है जिसे उनके परिवार ने आपसी समझौते मे बराबर से बांट लिया है । इस संपत्ति का कोई दस्तावेज नही था और न ही कोई रजिस्ट्री हुई थी । लेकिन परिवार की एक स्थाई आमदनी का ज़रिया थी जिसे परिवार ने मौखिक समझौते से बंटवारा कर लिया था । आज जब दिल्ली के ज्यादातर कालोनियों मे रेजिडेंट वेलफेयर एसोसियेशन बन गयी है और उन्होने चारों तरफ से दीवार बनाकर गेट लगा दिये गये हैं । उन गेटों पर सुरक्षा एजेन्सियों के गार्ड तैनात रहते हैं , ऐसे मे यह सुनने मे अटपटी सी बात लग सकती है लेकिन हमारे मुहल्ले मे अभी भी वह पुरानी परम्परा कायम है ।

आज जब सीढ़ियां चढ़ते हुए मैं अपने पुराने विचारों मे खोया हुआ अपने फ्लैट तक पहुंचा तो फिर नीचे वापस आ गया , मेरे मन मे यह जिज्ञासा हुई कि चौकीदार के परिवार के बारे मे पता करूं । मैं खड़ा होकर उसके आने का इन्तजार करने लगा । असल में अपनी जीविका के सिलसिले मे व्यस्तता के कारण मैं दिन भर घर रहता नही हूं दिन मे जब चौकीदार पैसा ले जाता है मै मौजूद नहीं होता इस लिए आज की स्थिति के बारे मे अनभिज्ञ हूं । इस बीच जैसे ही वह पास आया मैने बुला कर उसका नाम पूछ कर बात चीत का सिलसिला शुरू किया । आधे घंटे की बात से जो पता चला वह संक्षेप मे यह है कि आज जिनसे मेरी मुलाकात हुई वे श्यामबहादुर अपनी तीसरी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं । शेरबहादुर इनके दादाजी थे , उनकी मृत्यु आज से पंद्रह साल पहले हो चुकी है । दूसरी पीढ़ी यानी श्याम के पिताजी की , वह भी रिटायर पर ही समझिये , उनमे से कुछ स्वयं आते हैं और कुछ के बच्चे । तीसरी पीढ़ी तक आते आते परिवार के हिस्सेदारों की संख्या बढ़कर पंद्रह हो गयी है । शेरबहादुर के चार बच्चों की अगली पीढ़ी मे किसी के दो , किसी के तीन और किसी के चार बच्चे हैं , इस तरह अब हर एक का नम्बर बराबर से नही आता । हिस्से के मुताबिक किसी का नम्बर जल्दी और किसी का देर से आता है । सारा बंटवारा मौखिक ही है । ये लोग अब चौकीदारी के साथ साथ सुबह कारें भी धोते हैं जिससे अतिरिक्त आमदनी होती है । अपनी बारी खत्म होने पर अगले आने वाले नये हिस्सेदार को कार धोने की संपत्ति भी पास कर दी जाती है । इस तरह चौकीदारी की पुरानी पूंजी के भले ही कई हिस्सेदार हो गये हों लेकिन नई पीढ़ी ने आमदनी का नया स्रोत - कार धुलाई का जोड़ कर आमदनी को बढ़ाया ही है ।

इसके बाद मैं उपर आ कर सोने चला गया लेकिन रात भर सोचता रहा कि मानवीय समबन्धों के कितने रूप हो सकते हैं और हम इतने पास रहकर भी कितनी बातों से अनजान रहते हैं या इतने व्यस्त रहते हैं कि जिनके भरोसे सब कुछ छोड़ दिया है उनके बारे मे कितना कम जानते हैं ।

शनिवार, 8 मई 2010

गालियां ही गालियां , बस एक बार सुन तो लें ( तर्ज - रिश्ते ही रिश्ते )

लोग गाली क्यों देते हैं ? गाली देने वाला गाली दे देता है परन्तु उसे पाने वाले की क्या मनो दशा होती है ? न्यूज एंकरों की भाषा मे कहें तो उसे कैसा लग रहा होता है ? मेरे विचार मे गालियां देने का मुख्य कारण दूसरे को नीचा दिखाना या अपमानित करना होता है । यह भी कहा जा सकता है दोस्तों मे मज़ाक मे भी गालियों का प्रयोग होता है और उसे अपमानित करने की मानसिकता के दायरे मे नही रखा जा सकता । इस बात मे दम तो नज़र आता है लेकिन अगर थोड़ा ध्यान से देखें तो पायेंगे कि दोस्तों मे गालियों वाले शब्दों का प्रयोग केवल यह साबित करने के लिए होता है कि हमारी दोस्ती इतनी प्रगाढ़ है कि अपमानजनक शब्दों के बावज़ूद दोस्त बुरा नही मानता है । यहां भी अपमान मौजूद है लेकिन एक कसौटी की तरह जिस पर दोस्ती को कसा जा रहा है और उसकी प्रगाढ़ता को साबित किया जाता है ।

गालियां मोटे तौर पर दो तरह की होती हैं , आम बोल चाल की भाषा मे हम एक को वेज ( श्लील ) और दूसरे को नॉन वेज ( अश्लील ) कहते है । वेज गालियों की श्रेणी मे वे गालियां आती जो आम तौर पर रिश्तों पर केंद्रित न होकर गुणों पर ज्यादा केंद्रित होती हैं जैसे किसी को कम-अक्ल बताने के लिए गधा या उल्लू कहा जाता है या किसी को तुच्छ या अति चापलूस बताने के लिए कुत्ता कहा जाता है । कुछ कम स्तर की गालियां ( वैसे कुछ लोग इन्हे गाली नही मानते ) भी हैं जैसे जब कोई छात्र बिना अर्थ समझे और आत्मसात किये अपने पाठ का रट्टा लगाता है तो उसे तोता - रटन्त से सम्बोधित करते हैं । नॉन वेज गालियां रिश्तों और रिश्तेदारियों पर केंद्रित होती हैं । ये उन रिश्तों के मूलभूत तत्व को सरेआम उजागर करके आपको अपमान सहने वाली अवस्था मे ला खड़ा करती हैं । वैसे देखा जाय तो रिश्ते इंसान को इंसान बनाते हैं परन्तु उन्ही रिश्तों का जिक्र गालियों के रूप मे , उसे हैवान बना देता है । ऐसा क्यों होता है ? इसका सीधा सपाट उत्तर है कि रिश्ते जिस नाम से पुकारे जाते वे तो इंसान को बहुत प्यारे लगते हैं , परन्तु उन रिश्तों के जो मूल भूत तत्व होते हैं वे सार्वजनिक तौर पर समाज मे चर्चा का विषय नही होते । बल्कि ज्यादातर लोग अकेले मे भी उन मूलभूत तत्वों को संज्ञारूप मे नहीं पुकारते , हां जब गाली देना हो तो भले ही कहें - तेरी ....... , वगैरह ।

वेज गालियों मे जहां पर किसी की व्यक्तिगत कमजोरी को सार्वजनिक करके उसे नीचा दिखाने की कोशिश होती है वहीं नॉन वेज गालियों व्यक्ति के महत्वपूर्ण रिश्तों से बिना जिम्मेदारी उठाये उनका आनन्द लेने की चेष्ठा की जाती है । इसकी थोड़ी सी व्याख्या की जाय तो अर्थ यह हुआ कि पिता को जो आनन्द एक पिता की जिम्मेदारी उठाने का कर्तव्य निभाने पर प्राप्त है वह जब कोई बिना जिम्मेदारी के प्राप्त करने का दावा करता है तो वह मां की गाली बन जाती है । यही प्रक्रिया अन्य रिश्तों के साथ भी है ।

गालियों का इतिहास बहुत पुराना है , इनका जिक्र रामायण और महाभारत मे भी आता है । याद कीजिए वह प्रसंग जब भरत और शत्रुघ्न ननिहाल से लौट कर आते हैं और राम , सीता व लक्ष्मण के वनवास और पिता की मृत्यु का समाचार उन्हे पता चलता है तो भरत द्वारा माता कैकेयी के प्रति कुछ अपशब्दों का जिक्र है जिन्हे गाली की श्रेणी मे कहा जा सकता है , भरत द्वारा माता कैकेयी के प्रति इन शब्दों को गोस्वामी तुलसीदास जी ने इस चौपायी के रूप मे दिया है :

"बर मांगत मन भ‍इ नहिं पीरा । गरि न जीह मुह परेउ न कीरा ॥"

इसी तरह मंत्री सुमंत जब गंगा तट पर वनवास गमन के समय पिता राजा दशरथ का संदेश सुनाते हैं , उस समय लक्ष्मण के द्वारा कुछ शब्दों का भी जिक्र है जो शायद अपशब्द ही हो सकते हैं , परन्तु उन्हे गोस्वामी जी ने मर्यादा के अनुरूप न पा कर कुछ इस तरह लिखा है :

पुनि कछु लखन कही कटु बानी । प्रभु बरजे बड़ अनुचित जानी ॥
सकुचि राम निज सपथ देवाई । लखन संदेसु कहिय जनि जाई ॥

कुछ और भी प्रसंग हैं रामायण मे जहां इस तरह के असंसदीय भाषा का अंदेशा होता है लेकिन अपशब्दों और गालियों का सबसे रोचक प्रसंग तो महाभारत मे है जहां श्री कृष्ण ने शिशुपाल को गालियां देने की एक लिमिट दे दी । यानी शिशुपाल को पूरी छूट थी कि वह १०० गालियां दे सकता था , जैसे ही उसने यह लिमिट पार किया , श्री कृष्ण ने उसका सिर सुदर्शन चक्र से काट दिया । इससे यह भी साबित होता है कि गालियां सहने की भी एक सीमा होती है , उसके बाद इसका परिणाम भयंकर हो सकता है ।

इन सब के बीच मे मुझे लगता है कि गालियों से जुड़ी एक सबसे रोचक परम्परा के जिक्र किये बिना यह पूरी चर्चा अधूरी रह जायेगी , वह है उत्तर भारत खास कर अवधी और भोजपुरी भाषी क्षेत्र मे ससुराल मे दूल्हे और उसके सगों के स्वागत में गायी जाने वाली गालियों के गीत । जो लोग इस परम्परा से सम्बद्ध हैं , इस बात की याद आते ही उनके चेहरे पर मुस्कान जरूर आ गयी होगी । जब कोई बारात आती है या शादी के बाद दूल्हा या दूल्हे के सगे ससुराल जाते हैं , तो उनके भोजन के समय जब वे खाना खाने बैठते हैं , उस समय व्यंजनो की थाली तो उनके सामने सजा कर परोसी ही जाती है साथ ही साथ , महिला मंडली द्वारा , नेपथ्य से गाली भरे गीत ढोलक की मधुर थाप के साथ गाये जाते हैं । यह एक शगुन जैसा होता है । लोग खूब मजे लेकर इसका आनंद उठाते हैं , खास-खास लोगों के नाम लिख कर , गाने वाली महिला मंडली के पास पंहुचाये जाते हैं , ताकि किसी का नाम छूट न जाय और वह बाद मे इस बात को लेकर बुरा न मान जाय या नाराज न हो जाय । इस तरह हर खास खास को नाम से और बाकी सबको आम तौर पर गाली मिलती है । बिल्कुल रामलीला के मंच से होने वाली उद्दघोषणाओं की तरह । मेरी जानकारी मे कुछ ऐसे किस्से भी हैं जब खाने के समय गाली वाले गीत न सुनाई पड़ने पर लोगों ने खाना खाने से मना कर दिया और खाना तभी खाया जब गालियां गाने वाली महिला मंडली आ गयी और गाना शुरू कर दिया ।

गाली पुराण के महाग्रंथ मे गाली देने वाले बड़े बड़े महारथी हैं । समाज का कोई क्षेत्र नही बचा है , सबके अपने अपने तरीके हैं कोई खुलकर गाली देता है कोई परिमार्जित शब्दों मे गाली देता है , मैं तो यहां तक कहूंगा कि इनके बिना समाज अधूरा है । गाली देने से आपकी भड़ास निकल जाती है , चित्त को शांति मिलती है , गाली देने वाले का स्ट्रेस रिलीज होता है । ये सबसे बड़ी स्ट्रेस बस्टर हैं । इनकी वजह से सुनने वाले को परेशानी हो सकती है परन्तुं इन्हे देने वाला सही इस्तेमाल करे तो हर तनाव से मुक्त होकर आनन्द का अनुभव करता है । गालियों मे मंत्रों जैसी शक्ति है , आत्मानंदित करने की और विनाश करने की भी। सब कुछ बस इनके उपयोग के तरीके पर निर्भर है ।

रविवार, 25 अप्रैल 2010

सरकार की चाल - हर दिन नये कमाल

आजकल हिंदी ब्लॉग जगत मे एक ही मुद्दा सबको उद्वेलित करता है वह है धर्म की बुराई , इसके लिए बहुत से लोग दूसरे के धर्म मे क्या क्या बुराइयां है उसके विशेषज्ञ बन जायेंगे । लेकिन जो मुख्य बात है , एक जिम्मेदार समाज, जिम्मेदार सरकार और जिम्मेदार मीडिया बनाया जाय उस पर बहस हो क्योंकि वही मिल कर इस देश को सही दिशा देगें जो इसे २०२० तक महाशक्ति बनाएगा , उस पर से नज़र नही रखी जा रही है ।

मरे विचार मे आईपीएल का भ्रष्टाचार इस सरकार का सबसे बड़ा आर्थिक भ्रष्टाचार बन कर उभर रहा है जिसमें कई केंद्रीय मंत्री और सांसद सीधे रूप से जुड़े दिखाए पड़ रहे हैं । इसके साथ दूसरा पहलू यह है कि आम जनता मे इसकी लोकप्रियता कम होती नहीं नज़र आ रही है । तो क्या सोचा जाय , यह कैसी भावना है , यह कैसा दृष्टिकोण है । इसी पर चर्चा मे मेरे एक मित्र ने कहा कि देश की जनता को छोड़ दीजिए , ’ कुछ दिनों पहले तक हर बम विस्फोट के बाद इसी व्यवहार को स्पीरिट ओफ़ मुम्बई / इन्डिया ’ के नाम से ग्लोरीफाई किया जा रहा था । बाद मे समझ मे आया कि या तो यह मज़बूरी है या बेपरवाही ( जैसे सड़क पर एक्सीडेंट देखकर भी आगे बढ़ जाते हैं और अगर अपने किसी के साथ ऐसा हो जाय तब लगता है कि लोगों मे इंसानियत मर गयी है ) । यानी जब तक अपने किसी को चोट न लगी हो बेपरवाह रहो । इसलिए आज जब मैच देखने वालों मे कोई कमी नहीं हो रही चाहे टीवी पर हो या स्टेडियम में तो यह कोई अजीब बात नही है इस तरह के व्यवहार को स्वाभाविक ही मानकर चला जाना चाहिए । वैसे भी हमारे देश मे घूस लेने वाले का कभी सामाजिक बहिष्कार नही हुआ ।

सरकार जिस तरह आईपीएल की जांच कर रही है , खबरें लीक कर रही है ऐसा लगता है कि कुछ और ही स्कोर सेटेल किया जा रहा है । २००९ चुनावों मे जीत के बाद कांग्रेस ने यह कोशिश किया कि नये , युवा , प्रोफेसनल और इमानदार छबि वाले चेहरे सामने लाये गये जो आगे चल कर राहुल गांधी की भविष्य की टीम के कर्णधार बनेगें , उनमे से थरूर बहुत ही अहम थे । लेकिन जिस तरह आर्थिक भ्रष्टाचार के शक मे उनको हटाने के लिए मजबूर होना पड़ा , खासकर ऐसा लगता है कि ललित मोदी ने यह सब एन सी पी ( शरद पवार ) के संरक्षण से किया , इसलिए कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व आहत है और अब चौतरफा तीर चलाए जा रहे हैं ।

एक और बात , राजनीति के चलने मे काले धन की भी बहुत भूमिका होती है । अपने विरोधी ( या सहयोगी भी ) को नियन्त्रित करने के लिए उसके इस सोर्स को सुखाने की भी कोशिश हो सकती है । जहां तक जांच से दूध का दूध और पानी का पानी हो ने बात कही जा रही है तो एक ही जवाब - " हा हा हा " । हम सब यह तमाशा अनेकों बार देख चुके हैं । बोफोर्स जांच , यूटीआई घोटाले की जांच , वोट फॉर नोट पर जांच , तेलगी पर जांच जैसे बहुत से उदाहरण हैं । अगर राजनीतिज्ञ शामिल होंगे तो कुछ नही मिलेगा । हां अगर केवल उद्योगपति शामिल हो तो कुछ आशा है जैसे सत्यम केस मे कुछ सत्य बाहर आया मगर वह भी पूरा नहीं था ।

ललित मोदी के आईपीएल से हटते ही , शशि थरूर के बदले एक-एक का स्कोर बराबर हो जायेगा , पवार और कांग्रेस मिल कर महाराष्ट्र और दिल्ली मे सरकार चलाएंगे , जांच तो चलती रहेगी । दूसरा नया मुद्दा मिल जायेगा या यूं कहे मिल ही गया है " टेलीफोन टेपिंग का " , सारे बिजी रहेगें , हम आप और संसद भी ।

आखिर मे संसद के सत्र के आस पास ही क्यों इस तरह की बातें निकलती हैं , यह जानबूझ कर मुख्य और जनता से जुड़े मुद्दों से बहस को भटका कर , संसद को हंगामे की भेंट चढ़ाने की चाल तो नहीं । अब कहां है महंगाई पर बहस , कहां है न्युक्लियर लायबिलिटी पर बहस और कहां है महिला आरक्षण पर बहस । सब बातें नेपथ्य मे चली गयीं । भाजपा की रैली और अन्य विपक्ष की रैली के बाद महगांई हर समाचार माध्यम पर बहस का मुख्य मुद्दा होना चाहिए था लेकिन देखिए जिस दिन भाजपा की रैली थी सारे चैनेल आईपीएल , ललित मोदी , शशि थरूर और सुनन्दा पुश्कर पर बहस कर रहे थे , हां थोड़ी बहुत चर्चा अगर थी तो लगने वाले जाम की या नितिन गड़करी के हीट स्ट्रोक से गिर जाने की । अब जिस दिन वाम पंथी व अन्य दल रैली करेंगे उसदिन टेलीफोन टेपिंग पर अख़बारों मे , संसद मे और टीवी पर बहस हो रही होगी , इसका पूरा इन्तजाम कर लिया गया है ।

टेलीफोन टेपिंग के रहस्य का खुलासा किसने किया - आउट लुक और विनोद मेहता ने । आज तक तो मुझे आउट लुक स्वतंत्र पत्रिका कम कांग्रेस संदेश ज्यादा और विनोद मेहता जी स्वतंत्र संपादक कम और कांग्रेस के प्रवक्ता ज्यादा नज़र आते थे । आज यह चमत्कार कैसे , क्या सचमुच ये सरकार की पोल खोल रहे हैं या उसके साथ मिल कर बड़ी बात को दबाने के लिए छोटा हंगामा खड़ा कर रहे हैं ।

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

शाहरुख खान भी आईपीएल की जांच के घेरे में ??

एक छोटी सी ट्वीट आज देश की सबसे बड़ी समस्या बन गयी या जान बूझ कर बनायी जा रही है । जो बात सबसे अचंभित कर रही है कि न मंहगाई , न नक्सल समस्या , न बिजली की कमी और न शिक्षा , स्वास्थ्य जैसी समस्यायें , कोई भी बात आज महत्वपूर्ण नही रह गयी है । आज केवल आईपीएल चर्चा मे है वह भी अनुचित कारणों से । क्या और मंत्रियों की बलि लेगा यह विवाद , जैसा कि नजर आ रहा है थरूर साहब तो गये ही अब प्रफुल्ल पटेल , उनकी बेटी और शरद पवार की बेटी व सांसद सुप्रिया सुले पर आरोप लग रहे हैं । इसके साथ सुपर स्टार शाहरुख खान को भी नोटिस दिया गया है । यह गंभीर मामला है क्योंकि शाहरुख खान कांग्रेस के करीबी माने जाते हैं । आखिर अभी कुछ दिन पहले ही राहुल गांधी उनकी फिल्म को प्रदर्शित होने देने के लिए अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन दे चुके हैं । ऐसे मे यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या कोई बचा है या यह तमाशा सचमुच काला अध्याय बनेगा और कई नामचीन लोगों को अपने घेरे मे लेगा ।

तरह तरह की जांच की बात की जा रही है जिनमे से एक मांग संयुक्त संसदीय समिति ( जेपीसी ) की भी हो रही है । यह मांग एक नयी चाल भी हो सकती है क्योंकि जेपीसी के सदस्यों मे दलों को प्रतिनिधित्व उनके संसद मे उनके संख्या बल के आधार पर जगह दी जाती है । ऐसे मे शासन करने वाले मोर्चे का बहुमत वहां रहेगा और परिणाम भी काफी हद तक उनके मुताबिक ही आना निश्चित है । पिछली कुछ जेपीसी की जांच का तो यही हश्र हुआ है । चाहे बोफोर्स के समय हो या अभी २००८ मे नोट फॉर वोट वाले मामले पर हो । वैसे यह भी सवाल उठता है कि जब राजनैतिक लोग शक के घेरे मे हैं तो वे क्यों स्वयं इसकी जांच कर रहे हैं आखिर उच्चतम न्यायालय के तीन जजों की समिति क्यों न बनाई जाय और उसे उच्चतम न्यायालय के सारे अधिकार प्राप्त हों जिससे वह जिसे चाहे बुला सके और जो रिकार्ड चाहे मंगा सके , चाहे देश से या विदेश से ।

मामला इतना गंभीर है कि प्रधानमंत्री वित्त मंत्री और गृह मंत्री के अलावा कई बार राजीव शुक्ला से चर्चा कर चुके हैं और आज सोनिया गांधी से भी मंत्रणा कर चुके हैं । इस हालत पर मुझे याद आता है , डॉ धर्मवीर भारती के प्रसिद्ध नाटक ’ अन्धा युग ’ जिसके स्थापना भाग मे विष्णु पुराण को उद्दॄत करते हुए लिखा है :

’ततश्चानुदिनमल्पाल्प ह्रास
व्यवच्छेददाद्धर्मार्थह्योर्जगतस्संक्षयो भविष्यति ।’

उस भविष्य में
धर्म-अर्थ ह्रासोन्मुख होगें
क्षय होगा धीरे -धीरे सारी धरती का ।

’ततश्चार्थ एवाभिजन हेतु ।’

सत्ता होगी उनकी
जिनकी पूंजी होगी ।

’कपटवेष धारणमेव महत्व हेतु ।’

जिनके नकली चेहरे होंगे
केवल उन्हे महत्व मिलेगा ।

’एवम चाति लुब्धक राजा
सहाश्शैलानामन्तरद्रोणी: प्रजा संश्रियष्यन्ति ।’

राजशक्तियां लोलुप होगीं ;
जनता उनसे पीडित होकर
गहन गुफाओं मे छिपकर दिन काटेगी ।

( गहन गुफाएं ! वे सचमुच की या अपने कुंठित अंतर की )


मतलब यह कि महंगाई चरम पर है , देश की बड़ा हिस्सा नक्सलवादी माओ वादी हिंसा से ग्रस्त है और देश का शासक वर्ग , अन्य उच्च वर्ग ( एलीट क्लास ) के साथ मिलकर काले पैसे से सबसे लोकप्रिय खेल का तमाशा खड़ा करके जनता को लूटने मे लगा है । इस सब को टैक्स मे छूट भी दिया जा रहा है । आखिर जनता क्या करे कहां जाय ।

जब से यह पढ़ा कि शाहरुख खान ने भी मॉरिसस मे रजिस्टर्ड कम्पनियो द्वारा पैसा लगाया है , थोड़ा धक्का लगा क्योंकि शाहरुख सबसे अधिक और उचित टैक्स देने वालों मे शुमार होते हैं । ईश्वर करे कुछ आदर्श तो बचे रहें , उनके विरुद्ध कुछ न मिले ।

रविवार, 18 अप्रैल 2010

आईपीएल , शशि थरूर और फ़िराक गोरखपुरी की कथा

आज सबसे ज्यादा चर्चा खबरिया चैनेलों पर आईपीएल की हो रही है , दांतेवाड़ा पर कम और सुनन्दा पुश्कर पर ज्यादा समय लगा रहा है मीडिया । इस बीच थरूर साहेब सफाई दे रहे हैं कभी चैनेलों पर , कभी संसद को , कभी वित्त मंत्री को , कभी कांग्रेस अध्यक्ष को और अब प्रधान मंत्री को । बेचारे समझ नही पा रहे है कि उन्होने क्या गलती कर दी । इतने सुलझे हुए अधिकारी थे , यूएनओ मे पूरा कैरियर बिता कर आये , सारे विश्व के मीडिया की समझ रखते हैं , भाग्य साथ होता तो यूएन के सेक्रेटरी जनरल होते और पूरी दुनिया के मीडिया को संभाल रहे होते । लेकिन बेचारे जबसे मंत्री बने हैं एक कंट्रोवर्सी से दूसरी कंट्रोवर्सी मे फंसते और बचते समय बिता रहे हैं ।

थरूर साहेब बार बार कह रहे हैं कि सुनन्दा मेरी मित्र तो हैं मगर कोई रिश्ता नही है मतलब पत्नी नहीं हैं । वे बार बार समझा रहे हैं कि वे विदेश राज्य मंत्री हैं और आईपीएल उनके मंत्रालय का मामला नहीं है, लेकिन मीडिया के मित्रगण यह सब मानने और समझने को तैयार नही हैं । उनकी समझ मे यह भी नही आ रहा कि सुनन्दा को लाभ मिलने मे क्या गलत बात है ? आखिर पत्नी को लाभ दिलवाते तो गलत हो सकता था लेकिन महिला मित्र को लाभ कानूनी नज़र से घूस तो नहीं कहा जा सकता । अब नैतिकता का मुद्दा मत उठाइये वह तो केवल विरोधियों के लिए होता है ।

इस बात पर मुझे , बचपन मे हिंदी की मशहूर पत्रिका धर्मयुग मे फ़िराक गोरखपुरी साहेब के बारे मे छपा एक किस्सा जो उनके भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने के अवसर का है वह स्मरण हो आया । उन्होने उस समय मंच से एक किस्सा सुनाया था जो कुछ इस तरह है :

एक बार एक नगर मे कुछ लोगों ने यह विचार किया कि अपने शहर की विधवा महिलाओं के कल्याण के लिए कुछ करना चाहिए । लोगों ने तुरन्त एक विधवा कल्याण नाम से संस्था बना दी और नगर के एक बड़े समाजसेवक को इसका प्रधान नियुक्त कर दिया । उत्साही लोगों ने मिलकर घर घर जा कर इस संस्था के लिए चंदा भी इकट्टा किया । काफी धन इकट्ठा हो जाने के बाद लोगों ने सब कुछ प्रधान जी को सुपुर्द कर दिया । बहुत समय बीत गया तो लोगों को ध्यान आया कि प्रधान जी से जा कर मिला जाय और पता किया जाय कि विधवा कल्याण पर उन्होने क्या कदम उठाये हैं और भविष्य के लिए उनकी क्या योजना है । कई लोग प्रधान जी से मिलने उनके घर गये और शिकायत किया कि धन का क्या हुआ और वे उसे कैसे खर्च कर रहे हैं ?

प्रधान जी ने जवाब दिया - मित्रों , धन पूरी तरह सुरक्षित है और बैंक मे वैसा ही पड़ा है आप लोग बिल्कुल चिन्तित न होवें इसका सदुपयोग भी विधवा कल्याण के लिए ही होगा ’आखिर जब मैं मरूंगा तो मेरी पत्नी विधवा होगी कि नही’ ।

तो साहब थरूर हों , ललित मोदी हों या कोई और हो , खेल मे क्या रुचि ले रहा है और खेल का कितना कल्याण कर रहा है उसका तो पता नहीं लेकिन यह बिल्कुल स्पष्ट है कि अपने रिश्तेदारों और बेनामी तरीके से अपना कल्याण कर रहा है इसमे कोई दो राय नहीं है ।

सबसे बड़ी बात - इस तमाशे को टैक्स मे छूट दिया जा रहा है । यानी लूट चौतरफा ।

बुधवार, 7 अप्रैल 2010

रक्तबीज

हर तरफ़ उगे हैं,
आइने ही आइने,
जिनमे दिखायी पड़ते हैं,
अनगिनत प्रतिबिंब।

चाहता हूं इनमे दिखें,
केवल मोहक मनभावन,
पर दिखायी देते हैं,
कुंठित और बीभत्स।

बीभत्सता जो है सृजित,
हमारे कलुषित विचारों से,
जो है पोषित पुष्पित पल्लवित,
द्वेष लालच व साज़िश से।

जब बंद करता हूं आखें,
तो सारे बिंब समाते मस्तिष्क में,
रोक लूं आखों को देखने से,
कैसे रोकूं सोचने से मस्तिष्क को।

क्या करूं कैसे बचूं,
मारकर पत्थर जो तोड़ा इनको,
हर टूट से बनेंगे सैकडों आइने,
और उनमे उतने ही प्रतिबिंब।

रुक गया हाथ रख दिया पत्थर,
समझ गया कि समाधान पत्थर नहीं,
इसके प्रहार से जन्म लेता है रक्तबीज,
जो केवल बढ़ाता है बीभत्सता।

रविवार, 4 अप्रैल 2010

सानिया मिर्ज़ा की शादी

सानिया की शादी पर इतना बवाल क्यों हो रहा है , इससे बढ़कर यह सवाल है कि यह बवाल उचित है या नहीं ? भारतीय उपमहाद्वीप मे शादी ब्याह तो खुशी का ऐसा मौका होता है जिसमे दो व्यक्ति तो जीवन भर के लिए एक दूसरे से जुड़ते ही हैं दो परिवार भी साथ साथ जुड़ते हैं । इसके अतिरिक्त यह व्यक्तिगत से बढ़कर सामाजिक रिश्ता भी होता है । विवाह दो परिवारों व दो समाजों के बीच एक जुड़ाव की कड़ी के रूप मे होता है । समाज का निर्माण मनुष्य के व्यापारिक रिश्तों और वैवाहिक रिश्तों से ही होता है । इसीलिए इसकी कामयाबी के लिए सबका साथ , आशीर्वाद और शुभकामनाएं ली जाती हैं ।

सानिया और शोएब की शादी का मामला सीधा नहीं है इसमे एक नही कई मोड़ हैं । मै किसी के व्यक्तिगत मामलों पर कभी नहीं लिखता लेकिन इस मामले मे हो रहा हंगामा इसे व्यक्तिगत के दायरे से बाहर ला रहा है । सानिया इस देश की बेटियों के लिए आदर्श हैं , मैने खुद अपनी एक कविता मे उनका ज़िक्र किया है । कुछ साल पहले जब किसी मौलवी ने उनकी ड्रेस को लेकर फ़तवा दिया था तो इसका जबरदस्त विरोध हुआ था । इसके अलावा भी सेलिब्रटी होने के कारण उनके बारे मे छोटी बड़ी बाते समाचार बनती ही रहती हैं । इस लिहाज से उनकी शादी पर चर्चा तो स्वाभाविक है और जब शादी एक पाकिस्तानी क्रिकेट स्टार से हो तो चर्चा और भी लाज़िमी है । लेकिन यह चर्चा खुशनुमा और पॉजिटिव के बज़ाय नेगेटिव हो रही है । इस खुशी की बात को नेगेटिव मोड़ पर लाने क्या क्या पहलू हैं , एक नज़र उनपर डालते हैं ।

सोहराब मिर्ज़ा पहलू :

सानिया की सगाई जुलाई ०९ मे सोहराब मिर्ज़ा से तय हुई , पूरे ज़श्न के माहौल मे , दोनो की तस्वीरें मीडिया मे आयीं , लेकिन सगाई छ: महीने मे टूट गयी , कारण का खुलासा नही हुआ । दोनो परिवारों ने केवल यह कहा कि सोहराब और सानिया दोनो ने अपनी इच्छा से अलग होने का फ़ैसला किया है । अब सानिया ने इस बात का खुलासा किया है कि अब से करीब छ: महीने पहले ( यानी सोहराब से सगाई के तीन महीने बाद ) से उनके और शोएब के बीच डेटिंग चल रही है । हमे सानिया की बात का विश्वास करना चाहिए , फिर भी भारतीय समाज के हिसाब से यह अजीब ही है कि सगाई के बाद सानिया किसी दूसरे के साथ डेटिंग कर रही थीं ।

या सच यह हो सकता है , जैसी कि अफ़वाह है , कि सानिया सोहराब से शादी करना ही नही चाहती थी , उन्हे शुरू से ही शोएब से शादी करनी थी लेकिन उनका परिवार उनके पाकिस्तान मे बसने और शादी के बाद टेनिस छोड़ देने की शोएब की शर्त मानने लिए तैयार नही था । इसके पीछे भारत पाकिस्तान के बीच के हालात भी एक कारण हो सकता है । इस लिए सोहराब जो कि एक पारिवारिक मित्र हैं उनसे सानिया की सगाई कर दी गयी । इस बात का इशारा कुछ महीने पहले के सानिया के एक इन्टरव्यू से मिलता है , जब उन्होने यह कहा था कि जब खेलना है तो शादी क्यों करें । लगता है कि सोहराब से सगाई के बाद शोएब तथा उनके परिवार पुनर्विचार करने पर मजबूर हुआ और इन दोनो बातों पर छूट देने के लिए राज़ी हो गया । इसी लिए यह बात जोर देकर कही गयी कि दोनो शादी के बाद दुबई मे रहेंगे और सानिया भारत के लिए खेलती रहेंगी । इससे भारत मे मौजूद पाकिस्तान विरोधी माहौल को सानिया विरोधी बनने से रोकने मे थोड़ी सहायता भी मिली है ।

लेकिन दोनो सूरतों मे सोहराब मिर्ज़ा के नज़रिये से देखें तो बेचारे इस्तेमाल ही हुए ।


राजनैतिक और सांप्रदायिक पहलू :

भारत मे कुछ राजनैतिक दल ( जैसे कि शिव सेना ), समाजवादी पार्टी के अबु आज़मी और कुछ अराजनैतिक हंगामा ग्रुप ( जैसे प्रमोद मुथालिक की श्री राम सेना ) जैसे लोग हैं जिनका एक ही काम है कि किसी भी मुद्दे को लेकर उसे या तो साम्प्रदायिक रंग दे देते हैं या उसे भारतीय संस्कृति पर हमला घोषित कर देते हैं । कोई किसी से शादी कर रहा है इसमे क्यों हाय तोबा । लेकिन अजीब बात है कि बाल ठाकरे जैसा व्यक्ति संपादकीय लिख रहा है , उनके कार्यकर्ता पोस्टर जला रहे हैं और सानिया को भारत से नही खेलने देने की घोषणा कर रहे हैं । बहुत दिनो से सोये पड़े प्रमोद मुथालिक को भी टीवी पर आने का मौका मिल गया ।

यह सब ज्यादा से ज्यादा मीडिया पोजिशनिंग से अधिक कुछ नही है । भारत मे आज के माहौल मे ऐसी बातों पर लोग थोड़ा बहुत कन्सर्न भले जता दें लिकिन उद्द्वेलित नही होते । इसलिए मुझे नहीं लगता कि इस बात पर मामला गर्म रहेगा । वैसे भी शादी के बाद लडकी अपने ससुराल जाती ही है , यहां तो लड़की को पराया धन ( यानी पति के परिवार की ) मानते ही हैं । बस थोड़ी बहुत कसक यदि है तो वह पाकिस्तान को लेकर है , दूल्हा अगर पाकिस्तानी नही होता तो इनमे से किसी को अपनी राजनीति चमकाने का मौका नही मिलता । लेकिन अब इस बात को ज्यादा मुद्दा बनाने का कोई लाभ नहीं ।


आयशा सिद्दीक़ी पहलू :


आयशा हर टीवी चैनल पर छायी हुई हैं । उन्हे पूरी सहानुभूति भी मिल रही है । उन्होने इतना सबूत तो लोगों के सामने रख ही दिया है कि शोएब का चरित्र शक के दायरे मे आ गया है । अब यह तो साफ है कि निकाह हुआ था , अब शोएब की तरफ से यह मुद्दा उठाया जा रहा है कि निकाह नामा तो है लेकिन प्रोसेस पूरा नही हुआ । इससे साफ जाहिर होता है कि दाल मे कुछ काला तो है । आज जब शोएब और सानिया एक पवित्र रिश्ते मे बंधने जा रहे हैं तो यह शक और धोखे का माहौल ठीक नहीं है । यदि सचमुच आयशा के साथ निकाह हुआ था तो यह शादी सानिया ,आयशा और कानून सब के साथ अन्याय होगा । इसलिए स्थिति साफ हो तो अच्छा होगा नही तो बाद मे इसका परिणाम ज्यादा दुखद हो सकता है ।

अंत मे शोएब पहलू :


शोएब मलिक की एक ही छबि हमारे मन मे बसी हुई है जब ट्वन्टी-ट्वन्टी विश्व कप के फाइनल मे भारत से हारने के बाद उन्होने पूरे दक्षिण एशिया के मुसलमानों से माफ़ी मागी थी कि उनके लिए वे विश्व कप नही जीत पाये , यानी उस भारत से हार गये जो हिंदू बहुल है । यह उस पाकिस्तानी मानसिकता को ज़ाहिर कर रहा था जो मानता है कि विभाजन के बाद पाकिस्तान ही मुसलमानो का प्रतिनिधित्व कर सकता है ।

ऐसे व्यक्ति से क्या हम यह उम्मीद करें कि वे अपनी पत्नी को यह छूट देगें कि वे भारत की नागरिक बनी रहें , भारत के लिए खेले और मेडल जीते । लेकिन जब ऐसी घोषणा सानिया और शोएब दोनो ने किया है तो शायद हो सकता है कि शोएब बदल गये हैं या सानिया ने बदलने पर मजबूर कर दिया है या फिर बाद मे सानिया बदल जायेंगी । यह तो समय ही तय करेगा ।


आज तो केवल इतना ही : सानिया-शोएब को सुखी और सफल वैवाहिक जीवन के लिए शुभकामनाएं । शायद इससे भारत और पाकिस्तान के बीच कुछ मिठास आये ताकि सम्बन्ध अच्छे बने और आज जो नेगेटिव चर्चा है उसका परिणाम पॉजिटिव हो । आमीन

शनिवार, 3 अप्रैल 2010

त्रयी

मन तो है बावरा,
शांति की खोज मे ,
हो रहा है उतावला ।

बुधवार, 31 मार्च 2010

प्रथम प्रेम फुहार

तुम्हारी चितवन के तीर
मेरा मन हुआ अधीर
रह गयी अमिट पीर

रविवार, 28 मार्च 2010

डेविड कोलमैन हेडली की स्वीकारोक्ति ( ३ ) - परिप्रेक्ष : भारत का राजनैतिक व सामाजिक द्वंद

जब मैने इस लेख की पहली कड़ी में यह मुद्दा उठाया था कि डेविड एक डबल एजेंट था और अमेरिकी सुरक्षा एजेन्सीज उसे भारतीय एजेन्सीज को नही सौपेंगी , तो वह प्रारंभिक समाचारों पर आधारित एक विश्लेषणात्मक अनुमान था, अब यह बात सही साबित हो रही है । अमेरिकी प्रतिनिधियों ने इस तरह का बयान दे दिया है और भारत के गॄह मंत्री श्री पी चिदंबरम सफाई दे रहे हैं कि हम कोशिश जारी रखेंगे और निराश नहीं हैं , जब कि आज हर समझदार व्यक्ति जो थोड़ा बहुत भी अन्तर्राष्ट्रीय मामलों पर नज़र रखता है उसे पता है कि अब हैडली से भारत जो भी जानकारी पायेगा वह केवल वही होगी जो अमेरिकी चाहेंगे या जितना और जैसा चाहेंगे जिसे अंग्रेजी मे कहेंगे " सूटेबल टू अमेरिका " । इसके विपरीत हमने अमेरिकी एजेन्सीज को खुली छूट दिया कसाब से पूछ-ताछ करने के लिए । हमने इस आशा मे यह कदम उठाया था कि अमेरिका पाकिस्तान पर यह दबाव डालेगा कि वह २६/११ से जुड़े लोगों पर कानूनी कार्यवायी करे चाहे वे स्टेट एक्टर हों या नॉन स्टेट एक्टर हों , डेविड हैडली का एंगल तो तब चर्चा में था ही नही । आज हाल यह है कि ’न खुदा ही मिला न विसाले सनम’ , आज हमे पाकिस्तान भी बहला और घुमा रहा है और अमेरिका भी केवल मीठी मीठी बातें कर रहा है ठोस बात कुछ नही । भारत सरकार अपनी झेंप मिटाने के लिए कोशिश जारी रखने वाले बयान दे रही है । भारत सरकार कर भी क्या सकती है भारत के आर्थिक वर्चस्व मे वृद्धि के बावज़ूद हमारा स्थान हमेशा पाकिस्तान के साथ जोड़ कर ही देखा जाता है । भारत की आज तक की सभी सरकारें इसके लिए जिम्मेदार हैं क्योंकि जैसे ही पाकिस्तान को अमेरिका कोई सहायता , आर्थिक या सामरिक , देता है हम चिल्लाना शुरू कर देते हैं । मै पूछता हूं क्यों भाई , आप क्यों अपने को पाकिस्तान से जोड़ते हो , उसे जो भी मिलता है मिलने दो , आप मे इतना आत्मविश्वास होना चाहिए कि हमारी जो भी जरूरते बढ़ेगीं वह हम अपने आन्तरिक सोर्स से पूरा कर लेगें । यह न होकर जब हम शोर मचाते हैं और वैसा ही पाकिस्तान भारत को लेकर शोर मचाता है, जो उसके हितों के हिसाब से सही भी है, ऐसे में अमेरिकी थिंक टैंक यह मान कर चलता है कि भारत और पाकिस्तान को अलग करके नही देखा जा सकता । यहां छुट-पुट प्रतीकात्मक बातों पर नही बल्कि संपूर्ण परिदॄश्य की बात हो रही है । इसीलिए अमेरिका पाकिस्तान पर न तो अपेक्षित दबाव बना रहा है न स्वंय ही भारत को २६/११ से जुड़ी जानकारियां खुले दिल से दे रहा है ।

इन परिस्थितियों मे भारत की सरकार मे शामिल राजनैतिक पार्टियों मुख्यतया कांग्रेस को इस फ्रसट्रेसन से निकलने का रास्ता चाहिए , वह रास्ता कैसे पाया जा रहा है यह दिखाई दे रहा है । इस पर चर्चा से पहले मै २६/११ हमले के समय के माहौल पर ध्यान दिलाना चाहूंगा । उस हमले ठीक पहले के समय एक शब्दावली का प्रयोग मीडिया मे उछाला जा रहा था ’सैफ्रन टेरॉर’ । यह एक प्रायोजित कार्यक्रम था जिसके द्वारा आतंकवाद का एक संतुलन बनाने का प्रयास किया जा रहा था । जी हां अगर इस्लामिक आतंकवाद की जुमला प्रचलित है जिसे हिंदूवादी दल प्रयोग करते हैं तो उसके जवाब में सैफ्रन आतंकवाद चुनावी साल मे ढूंढा गया । ऐसा माहौल बनाने की कोशिश हुई थी कि उस दौरान बहुत सारी आतंक वादी घटनाएं हिंदूवादी ग्रुपों द्वारा की गयी और नागपुर एंगल रख कर उसे आर एस एस से भी जोड़ने की कोशिश हुई । पेड न्यूज के जमाने मे चुनाव जीतने के लिए ऐसे हथकंडों मे मीडिया का उपयोग भी भरपूर किया गया । यह शायद और बड़े स्तर पर होता लेकिन २६/११ ने फोकस वापस ला कर आतंक की मुख्य धारा पर केंद्रित कर दिया । जहां कांग्रेस अपने लिए माहौल बनाने मे प्रयासरत थी और भाजपा अपने वोट बैंक पर हमला होते देख मन मसोस रही थी , वहीं २६/११ ने अचानक ऐसा लगा कि पाशा पलट दिया , उसी दिन दिल्ली मे वोटिंग हो रही थी भाजपा को लाभ लेने की हड़बड़ी थी ऐसे मे गुजरात के मुख्यमंत्री श्री नरेंद्र मोदी घटना स्थल पर पहुंच गये । यह कार्य एक राजनैतिक दल द्वारा राष्ट्र के दुख की घड़ी का राजनैतिक लाभ उठाने के नंगे प्रयास के तौर पर देखा गया । इस सोच ने पाशा पलट दिया , बहुसंख्यक वर्ग इस बात से बिदक गया , साथ ही मुस्लिम समुदाय ने अधिक से अधिक संख्या मे निकल कर वोट किया और भाजपा का गणित उलट गया । इससे यह भी जाहिर होता है कि राजनैतिक लाभ लेने के मामले मे कोई दूध का धुला नहीं है । २६/११ के बाद सैफ्रन आतंक की चर्चा दब गयी मामला ठंडे बस्ते मे है शायद कभी उचित परिस्थितियां आयें तो इसका चर्चा को उछाला जायेगा ।

आज जब कूटनीतिक स्तर पर २६/११ के मामले मे धक्का लगा तो वापस अयोध्या और गुजरात मामले को गर्माया जा रहा है । मुझे लगता है कि भारत के राजनैतिक दल सामजिक वैमनस्य को हवा देकर हमेशा महौल को अपने लाभ के हिसाब से गर्माये रखना चाहते हैं । जब भाजपा शासन मे थी तो हमने देखा कि कैसे १९८४ के सिख विरोधी दंगो और बोफोर्स की दलाली को गर्माया जाता था । कांग्रेस उसके जवाब मे गुजरात के मुद्दे को और कारगिल युद्ध के समय कॉफ़िन इम्पोर्ट की दलाली का मुद्दा उठाती थी । आज बोफोर्स को दफ़न कर दिया गया , उसकी दलाली का पैसा लंदन के बैंक से निकल जाने दिया गया , उसको लेकर कोई जिम्मेदारी फिक्स नही हुई किसी बाबू की भी नही । कॉफ़िन मामला भी साथ ही साथ दफ़न हो गया , क्योंकि उसमे कुछ खास था भी नहीं केवल एक ओडिट ऑबजेक्सन को राजनैतिक मुद्दा बनाया गया था । अब १९८४ के दंगे और अयोध्या के बाबरी और गुजरात के २००२ के दंगों के मामले पर तमाशा जारी है ।

साथ ही यह सवाल भी जायज़ है कि हम किस अधिकार से पाकिस्तान और अमेरिका से यह अपेक्षा करते हैं कि वे खुले दिल से २६/११ के दोषियों को पकड़ने मे हमारी सहायता करें और सजा दिलवायें जब कि हमारी सरकार यह खुलासा करने के लिए तैयार नहीं है कि २६/११ के आरोपियों की सहायता करने वाले लोकल कौन थे । लोकल मुस्लिमों के शामिल होने की तरफ पूरा इशारा है और सरकार इसके राजनैतिक दुश्प्रभाव का आकलन करके उसे छुपा रही है ।

इस पूरे परिदॄश्य से क्या समझा जाय कि भारत मे जो भी जांच होगी , जो न्यायिक प्रक्रिया होगी या जो भी आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था होगी वह वोट बैंक को नज़र मे रख कर होगी , चाहे उससे हिंदू मुसलमान मे वैमनस्य बढ़े , चाहे हमारे इस विद्वेष का लाभ देश के बाहर बैठे दुश्मन कैसे भी उठावें ।

बुधवार, 24 मार्च 2010

राम - कृपानिधान ( राम नवमी के अवसर पर - एक दॄष्टिकोण )

प्रभु श्री राम पर कितना कुछ सब को पता है और कितना लिखा - पढ़ा जाता है इसे शब्दों मे बांधना एक साधारण मनुष्य के लिए अकल्पनीय है । दिन भर जाने अनजाने हम राम का स्मरण करते हैं । ऐसे मे मेरे जैसे एक साधारण व्यक्ति के लिए उनके जीवन चरित या महिमा की विवेचना , वह भी सीमित शब्दों मे थोड़ा मुश्किल सा लगता है । राम के कॄपानिधान रूप पर चर्चा करते हुए आज मै राम की उस प्रतिज्ञा को स्मरण करना चाहता हूं जो अक्सर ज्यादा चर्चित नहीं होती । इस घटना का ज़िक्र अरण्य कांड मे आता है ।

प्रभु श्री राम , लक्ष्मण और सीता जी चित्रकूट छोड़ कर वन के भीतरी भाग मे प्रवेश कर रहे हैं । वे सब ॠषि सरभंग के आश्रम मे पहुंचते हैं, वहां पर एक ऐसी घटना घटित होती है जो रामचरित मानस में अपनी तरह से अनूठी है । यहां ॠषि सरभंग श्री राम के स्वागत और सम्मान के बाद अपने तपोबल से उत्पन्न अग्नि मे जल कर प्राण त्याग देते हैं । उसके ठीक बाद आश्रम के पास अस्थियों का पहाड़ देख कर जब श्री राम के प्रश्न करने पर अन्य ऋषि लोग श्री राम को बताते हैं कि यह पहाड़ उन मुनियों की अस्थियों से बना है जिन्हे राक्षसों ने मार दिया है तो यह सुन कर प्रभु के नेत्रों मे आंसू भर आये और उन्होंने प्रतिज्ञा किया :

निशिचर हीन करहुं महि भुज उठाइ प्रण कीन्ह ।
सकल मुनिन्ह के आश्रमहिं जाइ जाइ सुख दीन्ह ॥

यह वह घटना है जो प्रभु के कॄपानिधान और दया सिंधु रूप को सामने लाती है । इस घटना के प्रभाव और महत्व को समझने के लिए हमे यह ध्यान देना होगा कि उस समय क्या हुआ होगा और उस समय क्या राजनैतिक और सामाजिक परिस्थितियां थी ।

ऐसा लगता है कि ॠषि सरभंग ने शायद राम का ध्यान पूरी तरह मुनियों और तपस्वियों की तकलीफों की तरह आकर्षित करने के लिए अग्नि समाधि ले ली इसे आप आत्म दाह भी कह सकते हैं । यह पूरी तरह से पूर्व नियोजित होगा क्यों कि रावण की लंका जैसे विकसित और शक्तिशाली साम्राज्य के मुकाबले अयोध्या ही दूसरा साम्राज्य था जो उसे परास्त कर सकता था । राम की कीर्ति अहिल्या उद्धार जहां राम दकियानूसी सामाजिक कुरीतियों से शापित अहिल्या को प्रतिस्थापित करते हैं ( इस पर चर्चा कभी फिर ) , विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा के समय और बाद मे सीता विवाह के समय शिव धनुष भंग आदि से पूरी तरह फैल चुकी थी, वे ही एक मात्र विकल्प जान पड़ते थे जो पीढ़ी दर पीढ़ी से नीरीह मुनियों के समाज को हर समय मौत के ग्रास बनने और भय और आतंक मे जीने के अभिशाप से मुक्ति दे सकने मे सक्षम थे । यदि बिना परिस्थिति को पूरी तरह समझे राम वहां से आगे चले जाते तो यह अवसर शायद फिर से नहीं मिलता । इसलिए यह स्वाभविक ही लगता है कि ॠषि सरभंग ने पूरे समाज के कल्याण के लिए राम का ध्यान पूरी तरह आकर्षित करना चाहते थे और इस लिए उन्होने अपने आप को न्यौछावर कर दिया । इस बात का प्रभु राम पर वांछित असर भी पड़ा और उन्होने आस पास के बारे मे पूरी जानकारी ली और वस्तुस्थिति से अवगत होने पर उनका मन ऐसा द्रवित हुआ कि उनके नेत्र भर आये । उन्होने दोनो हाथ उठा कर यह प्रतिज्ञा की कि धर्मपारायण जीवन यापन करने वाले निरीह मुनियों की अकारण हत्या करने और आतंकित करने वाले इन आतताइयों से इस पॄथ्वी को मुक्त कर दूंगा । यह किसी एक व्यक्ति या समूह को राहत देने की प्रतिज्ञा नहीं थी । यह पूरी पॄथ्वी को आतंक के राज से मुक्ति की प्रतिज्ञा थी । इसके बाद प्रभु सब मुनियों के आश्रमों मे गये और एक एक को ढ़ाढ़स दिया ।

यह घटना राम के शेष वनवास के दिनों के लिए जो उनका उद्देश्य था उसको सार्थक करने मे एक महती भूमिका निभाती है । अब आप पूरी तरह अन्दाजा लगा सकते हैं कि आगे की घटनाएं इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए या तो स्वाभाविक तौर पर हुई होगीं या कुछ को प्रायोजित किया गया होगा । संक्षेप मे नीचे दी गयी बातें विचारणीय हैं :

१. क्या राम विश्वामित्र मित्र के आश्रम मे इसी अन्तिम संकल्प मे सफलता के लिए तैयारी के लिए युद्ध विद्या सीखने गये थे । विवाहोपरान्त राज्य प्रबंध संभालने से पहले इन आततायियों का समूल नाश आवश्यक था । क्या राम का वनवास इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए था ।

२. क्या भरत राम से मिलने पूरी सेना के साथ इस लिए वन गये क्यों कि वे चाहते थे कि यदि राम को सैन्य बल की आवश्यकता हो तो अयोध्या उसके लिए तैयार है और राम वन के प्रथम छोर चित्रकूट से आगे बढ़कर वन के भीतरी भाग मे स्थित मुख्य लक्ष्य तक पहुंचने मे देर न करें । राम इस युद्ध को स्थानीय वनवासियों की सहायता से ही लड़ना चाहते थे और उसके लिए उचित कारण भी चाहते थे जिससे रावण को किसी भी हालात मे पीड़ित होने और बाहरी शत्रु के आक्रमण का आरोप लगाने का अवसर न मिले । क्या इसी लिए भरत के जाने के बाद राम ने चित्रकूट छोड़ दिया और वन के अत्यन्त भीतरी भाग मे प्रवेश कर गये ।

सीता हरण वह नैतिक कारण बना और सुग्रीव के रूप मे स्थानीय लोगों की सहायता मिली जिसने रावण को सहानुभूति का पात्र नहीं बनने दिया, चाहे इसके लिए परिस्थितियां निर्माण हुईं या की गयीं । राम रावण युद्ध एक आततायी साम्राज्य के विनाश के लिए हुआ जिसने एक ऐसे क्षेत्र मे यानी वनांचल मे मौत, भय और आतंक का राज फ़ैला रखा था ,जहां शायद पूरी तरह अयोध्या साम्राज्य का अधिकार नहीं था और जो शायद रावण के अधिकार में भी नहीं था, जबकि खर और दूषण की चौकी इस क्षेत्र मे स्थापित थी । ऐसे मे रावण राज को इस तरह के राजनैतिक और नैतिक हथियार से मारने की आवश्यकता पड़ी जो केवल सीधे युद्ध जीत कर नहीं प्राप्त की जा सकती थी । एक बात और रावण युद्ध के बाद या कहें उसके पहले ही राम ने विभीषण को लंका का राजा घोषित करके यह स्पष्ट कर दिया था कि लंका पर जीत का अर्थ अयोध्या के साम्राज्य का विस्तार नहीं होकर एक आततायी साम्राज्य व उसके तंत्र का अन्त ही था और राज सत्ता स्थानीय लोगों के पास ही रहेगी ।

इन सारी बातों के बावज़ूद उपर्युक्त घटना का यह महत्व है कि राम शायद स्थानीय लोगों के दुखों को अपनी आखों से देखने के बाद इतने द्रवित हुए कि उन्होने यह प्रतिज्ञा की , यही बातें अयोध्या मे उन्हे बताई गयी थीं मगर कानो सुनी होने के कारण उतनी असरकारक नहीं हुई होगीं । अत: यह घटना राम को अपना सब कुछ दांव पर लगाने के लिए प्रेरित करती है और राम - रावण युद्ध का निर्णायक कारक बन कर उभरती है तथा राम के कॄपानिधान रूप को भी उभारती है ।

आज भी हम ऐसे ही आतंकवाद के दौर से गुजर रहे हैं जब नीरीह लोग बेवजह मारे जा रहे हैं , आतंकवाद एक पूर्ण विकसित साम्राज्य द्वारा प्रायोजित है और ऐसे क्षेत्र मे केंद्रित है जहां भारत पूरी तरह अपना अधिकार नहीं कर पा रहा और कई खर दूषण अपनी चौकी स्थापित किये बैठे हैं । इसका इलाज आतंक के तंत्र के समूल विनाश से ही होगा और उसके लिए राम जैसे त्याग व राजनैतिक कौशल की आवश्यकता होगी जहां हम विस्तारवादी से हट कर सुधारवादी भूमिका मे स्थानीय लोगों को प्रेरित करके उनका साथ प्राप्त कर सकें ।

सोमवार, 22 मार्च 2010

डेविड कोलमैन हेडली की स्वीकारोक्ति ( 2 ) - परिप्रेक्ष : भारतीय न्यायिक व्यवस्था

दूसरा विचार यह मन मे आता है कि हैडली ने पकडे जाने के चंद दिनों के भीतर अपना अपराध मान लिया इसे चमत्कार ही कहूंगा क्यों कि उसके आतंकवादी गुट का एक अदना सदस्य यानी फुट सोल्ज़र , आमिर कसा़ब ने भारतीय एजेंसियों के सामने व कोर्ट की कार्यवायी के दौरान ऐसी ऐसी कहानियां व घुमावदार बयान दिये कि बड़े से बड़ा उपन्यासकार भी बगले झांकने पर मज़बूर हो जाय ।

हम लोग इससे क्या समझें कि हैडली कच्चा खिलाड़ी है और कसाब पक्का या हैडली यह बात जानता है कि अमेरिका मे जांच , मुकदमा ,उस पर फ़ैसला और फ़ैसले पर अमल एक निश्चित अवधि के भीतर हो जायेगा । जब कि भारत मे पहले तो जांच पर उंगली उठेगी, फिर मुकदमे की कार्यवायी के दौरान अनेक कारण गिना कर या बिना किसी कारण के ही उसे असीमित अवधि तक खींचा जा सकता है । एक बार फ़ैसला आ भी जाये तो अपीलें होगीं और उनके खिलाफ फिर से अपीलें होगीं । सारी प्रक्रिया पूरी करने के बाद उच्चतम न्यायालय के फ़ैसले के बाद भी उस पर अमल होना असंभव है । यह बात केवल आलोचना के लिए नहीं लिख रहा हूं , अफ़जल गुरू के मामले मे पूरा देश देख रहा है कि यहां के कुछ एन जी ओ व तथाकथित सेकुलर लोग यह मानने के लिए तैयार नहीं हैं कि न्याय हुआ है । वह चाहते हैं कि जांच दोबारा हो , फिर से मुकदमा चले यानी न्याय वही जो उनके मन भाये । जब तक वह फ़ैसला नहीं आयेगा तब तक कोई बात नहीं मानी जायेगी । उससे भी बढ़ कर इस देश की सरकार व उनकी सबसे सफल कांग्रेसी मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने मिल कर लगभग तीन सालों से अफ़ज़ल गुरू की फ़ाइल रोक रखी है । यानी फ़ैसले पर अमल नहीं होने दिया जा रहा है । जनता भी इससे खुश ही होगी यानी बहुमत वाले लोग अवश्य खुश होगें तभी तो उन्हे चुन रहे हैं । राजनीतिज्ञ तो कुर्सी देख कर ही काम करते हैं , अगर उन्हे ऐसे निर्णय को लटका कर रखने से कुर्सी मिल रही है तो वे क्यों निर्णय करेंगें ।

हमारी पूरी व्यवस्था ढुलमुल तरीके से चल रही है । न्याय के नाम पर मज़ाक हो रहा है । पूरा तंत्र केवल और केवल अपराधियों और जालसाजों को लाभ पहुंचा रहा है । केवल आदर्शवाद कीए बातें ही रह गयी हैं । मामला इतना बिगड़ गया है कि जहां हाथ डाल दो आप को सड़ांध ही मिलेगी । आम जनता को भरोसा नहीं है कि वह सुबह घर से निकल रही है तो शाम को वापस आयेगी कि नहीं लेकिन फिर भी जनता ज्यादा चिन्ता मे दुबली नहीं हो रही है । वे सोचते हैं जो मरे वे कोई मेरे रिश्तेदार तो थे नहीं , उन्हे शमशान पहुंचाने तक शोक मना लिया बस अब क्यों बेकार का रोना । राजनेताओं के बारे मे जो कहें वह थोड़ा है, हम रोज टीवी पर देखते हैं कि वे किसी भी गंभीर विषय पर ऐसे बात करते हैं जैसे किसी मुहल्ले की लड़ाकू औरतें शाम को लड़ती हैं ।

इन सारी बातों को हैडली और कसाब जैसे लोग अच्छी तरह जानते हैं इस लिए वे अमेरिका में कानून और न्यायालय से डरेगें लेकिन भारत में न्याय प्रक्रिया के दौरान मज़ाक बनायेंगे, मुस्करायेंगे और कहानियां सुनायेंगे साथ ही खाने मे बिरियानी, देखने के लिए टीवी और शायद एसी वाला कमरा भी मागेंगे ।



(हम एक अन्य पहलू पर विचार अगले हिस्से मे करेगें )

रविवार, 21 मार्च 2010

डेविड कोलमैन हेडली की स्वीकारोक्ति ( १ )

जिस बात की आशंका शुरू से जताई जा रही थी वह सत्य निकली, आखिर डेविड हैडली ने अमेरिकी कोर्ट मे अपराध की स्वीकारोक्ति कर लिया है । अब जैसा भारतीय समाचार माध्यम बता रहे हैं उनसे दो तीन पहलू उभर कर आ रहे हैं ।

पहला यह बात पूरी तरह से साफ़ हो गयी है कि डेविड हैडली एक डबल एजेंट है । यानी वह एफ़ बी आई का एजेंट था जो पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान मे ड्रग के काले धंधे और उससे प्राप्त धन के आतंकवाद मे इस्तेमाल व इनमे शामिल लोगों की जानकारी के लिए इस्तेमाल किया जा रहा था । शायद हैडली दूसरे ग्रुप यानी पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान में जिन लोगों के संपर्क मे आया उनके उद्देश्यों से भी प्रभावित हो गया और उनका साथ देने लगा या यूं कहें कि वह उनमे से एक बन गया । जासूसी एजेंटों के बारे मे यह कोई नयी बात नहीं है ऐसा अक्सर पाया जाता है कि जासूसों को अपने लक्ष्य के बारे मे अंदर की खबर पाने के लिए टारगेट से घुल मिल कर उनमे से एक होना ही पड़ता है । तो क्या हैडली इसी प्रक्रिया के दौरान अपने को स्थापित करने के लिए मुंबई पर हमले का ताना बाना बुनने मे शामिल हो गया ।

यह प्रश्न उठाने के पीछे मेरे शक का कारण यह है कि डेविड जब भारत मे अपना जाल फैला रहा था और अपने टारगेट की रेकी कर रहा था तो वह एफ बी आई के रडार से बाहर नहीं था , यहां तक कि मुंबई हमलों के बाद भी जब वह भारत आया तो यह बात अमेरिकी एजेंसियों को मालूम थी, जिसे उन्होने भारतीय एजेंसियों को नहीं बताया । इससे यही लगता है कि मुंबई हमलों से पहले उसके अमेरिकी आका लोग यह सोचते होगें कि उसकी कार्यवाई का परिणाम और उस पर प्रतिक्रिया इतने बड़े पैमाने पर नहीं होगी और हमलों के बाद जब वह भारत आया तो वे नहीं चाहते होगें कि वह भारत मे पकड़ा जाय । भारत मे पकड़े जाने पर हैडली यदि मुंह खोल देता तो अमेरिकी चालों के कई भेद सबके सामने आ जाते, जो शायद अमेरिका की घोषित नीतियों से मेल न खाते हों ।

अब आज की परिस्थिति में हैडली भारत नहीं लाया जा सकता, उससे पूछताछ भी शायद ही हो सके और होगी भी तो अमेरिकी देखरेख में । इस हालात मे भारतीय एजेसियां जो भी उत्तर पायेंगी वह केवल और केवल अमेरिकी नजरिये वाला होगा । अब तक , सैनिक भाषा मे कहें तो हैडली की ’ डि ब्रीफ़िगं’ हो चुकी है, वह मृत्युदंड के भय से मुक्त है और कुछ अन्य आश्वासनों ने भी लैस होगा । इसके बाद उससे पूछताछ करके क्या हासिल होगा और जो पता चलेगा उससे सच्चाई से पर्दा उठेगा या उस सच्चाई से हम अवगत होगें जो अमेरिका चाहता है अमेरिका को सूट करता है , जिससे भारत और पाकिस्तान के बीच शक का जो महौल है वह कम नहीं होगा बल्कि और बढ़ेगा ।

(हम दूसरे और तीसरे पहलू पर विचार अगले हिस्सों मे करेगें )

शनिवार, 20 मार्च 2010

थोड़ा और उन्मुक्त

जीवन यात्रा के मध्यान्ह में,
एक दिन यूं ही बैठा था मै,
सोचता हुआ मन ही मन,
मूंद कर आखों की पलकें कुछ क्षण,
एक बार वापस जाऊं बचपन में,
फिर वो सब करूं जो किया था मैने,
वो भी करूं जो नहीं किया,
जो किया उसे उसी तरह से,
या किसी और तरह से,
जो नहीं किया डर के मारे,
उसे भी करूं सारे डर छोड कर किनारे,
सावन भादों के महीने में,
जलप्लावित तालाब में कूद जाऊं,
पार कर लूं एक ही गोते में,
या उसके काटता रहूं कई चक्कर ,
चढ़ जाऊं आम के ऊचें पेड़ की,
सबसे ऊचीं डाल पर,
तोड़ने वह पका आम,
जिसे देख कर कभी मन ललचाया था,
निकल जाऊं अकेले अंधेरी मध्य रात में,
खेतों की तरफ़, जहां है वह भूतों वाला बरगद,
उठा लूं अपनी साइकिल, चलाता रहूं यहां से वहां,
बिना किसी से पूछे, बिना बताए,
कह दूं सब टीचरों से,
मत पढ़ाओ मुझे केमिस्ट्री, बायोलोज़ी,
बस दे दो कहानियों की किताबें और पढ़ने दो वही,
वो जो क्लास में गुडिया सी थी प्यारी सी,
कर लूं उससे बहुत सारी फ़ालतू सी बातें,
जाड़े की सर्द रातों में सो जाऊं दादी की गोद में,
या उनींदा ही पड़ा रहूं चुपचाप,
चाहे कोई बुलाता रहे कितना भी,
इन्ही बेतरतीब से उठते खयालों के बीच,
सोचता रहा कि एक और यदि मिले मौका,
जी लूंगा अबकी बार थोड़ा और उन्मुक्त होकर,
पर आंख खोली तो बचपन न था वहां,
थे दो बूंद आंसू और उनसे भीगते मेरे गाल।

सोमवार, 15 मार्च 2010

महिला आरक्षण, महंगाई, पिछड़ा और सेकुलर राजनीति - भाग २(यक्ष प्रश्न का समाधान)

इस भाग मे इस यक्ष प्रश्न पर विचार करते हैं कि महिला आरक्षण पर कांग्रेस की जल्दबाजी के पीछे तत्कालिक और दीर्घकालिक रणनीति क्या है । यह मानना ही पड़ेगा कि एक राजनैतिक दल कोई ऐसा कदम नहीं उठायेगा जिससे उसे कोई तात्कालिक लाभ हो जाय चाहे दीर्घकालिक नुकसान हो, कम से कम जानबूझ कर तो नही ही उठायेगा । बल्कि वह तो ऐसा कदम उठायेगा जिससे उसे तात्कालिक कुछ नुकसान यदि हो भी जाय परन्तु दीर्घकालिक लाभ हो । मेरे विचार मे महिला आरक्षण पर कांग्रेस द्वारा इस समय उठाये कदम को इसी परिप्रेक्ष मे देखना उचित होगा ।

महंगाई की जवाबदारी से बचना तात्कालिक हो सकता है लेकिन यह मानना मूर्खता होगी कि कांग्रेस ने तात्कालिक लाभ के लिए दीर्घकालिक नुकसान उठायेगी । बल्कि उसका आकलन यह होगा कि उसे दीर्घकालिक लाभ भी मिलेगा । इसके बाद यह बात विचारणीय हो जाती है कि क्या हैं वे दीर्घकालिक लाभ और यदि सारा क्रेडिट व लाभ सिर्फ़ कांग्रेस को मिलने वाला है तो देश की तीन बड़ी पार्टियों कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी व सी पी एम में , जो कि तीन अलग राजनैतिक विचारधाराओं के आधार पर चलती हैं उनमे एकमत क्यों और कैसे हो गया है । यह सब जानते हैं कि बहुत कम ही या यूं कहें कि शायद ही कोई विषय हो जिस पर ये तीनो एक मत होते हों , चाहे मामला आर्थिक हो, राजनैतिक हो या विदेश नीति का हो । अक्सर कुछ न कुछ विवाद अवश्य रहता है । ऐसे मे क्या वजह है कि महिला आरक्षण पर ऐसी एकजुटता कि सरकार के मित्र दलों के सांसदो को इतिहास मे पहली बार मार्शलों के ज़रिये राज्यसभा से बाहर कर दिया गया ? बिना बहस के वोट कराने की तैयारी कर ली गयी, फिर झट से एक बह्स भी हो गयी जिसे संज्ञा दी गयी कि यह एक डि फक्टो बह्स थी जो डि ज्युरे भी मान ली गयी । भाई वाह ऐसा सामंजस्य कि पिछले बीस सालों मे पहली बार ऐसा मौका आया कि कोई सरकार गिराने के मुद्दे को छोड़ कर एक सकारात्मक मुद्दे पर तथाकथित सेकुलर राजनीति के पुरोधा जो सेकुलरिज्म का सर्टिफ़िकेट भी बांटते रहते हैं उन्होने भाजपा के साथ सुर मे सुर मिलाया और वोट किया ।

राजनीतिक इतिहास मे १९८९-९० एक मील का पत्थर जैसा है । इस वर्ष मंडल कमीशन के आंदोलन और उसके प्रत्युत्तर मे राममंदिर आंदोलन के बाद से अन्य पिछड़ा वर्ग व मुस्लिम वोटों का जो ध्रुवीकरण हुआ है कि ये दोनो वर्ग पूरी राजनीति का केंद्रबिंदु हो गये हैं । सर्व श्री लालू यादव , मुलायम सिंह यादव और शरद यादव की तिकड़ी ने सत्ता की चाभी लगभग अपने हाथ मे रख ली है । आप यह देख सकते हैं कि कोई भी सरकार बननी इन तीनो मे से एक या दो को साथ लिए बिना असंभव सी हो गयी है । इस राजनैतिक ताकत के आगे कांग्रेस , भाजपा और कम्युनिस्ट यानी तीनों विचारधारा वाली राजनैतिक शक्तियां अपने आप को बंधन युक्त पाती हैं और कुछ हद तक राजनैतिक ब्लैकमैल की शिकार भी । इन परिस्थितियों मे इनका तोड़ तो एक ही संभव है कि या तो इनके वोट बैंक में बिखराव हो या एक नया वोट बैंक खड़ा हो जो इनकी ताकत को घटा दे ।

तो असल मे यक्ष प्रश्न यही है कि क्या तीनो राष्ट्रीय पार्टियों और उनमे से ख़ासकर कांग्रेस के विचार मे यह नया वोट बैंक ओबीसी और माइनॉरिटी वोट बैंक की मौजूदा धार को कुंद करके उनकी सीटों को बढ़ाने मे सहायक होगा । इसी लिए कांग्रेस के कोर ग्रुप जिसमे अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री के अलावा कांग्रेस पार्टी के चाणक्य श्री प्रणव मुखर्जी ने ऐसा दांव खेला है कि महंगाई की चर्चा अब नेपथ्य मे चली गयी, हंगामा महिला आरक्षण पर हो रहा है और साथ ही भाजपा व कम्युनिस्ट दिल मसोस कर समर्थन देने के लिए बाध्य हैं, आखिर मुख्य श्रेय कांग्रेस ले भी ले तो भी जितना संभव हो ये बेचारे भी कुछ तो लाभ पा ही जायेंगे । इस तरह के साफ़ संकेत तीनों राष्ट्रीय दलों की मीडिया पोजिशनिंग से मिल भी रहा है । इसके उलट अगर भाजपा व कम्युनिष्ट यदि बिल का एनकेनप्रकारेण विरोध करेंगे तो भी कांग्रेस तो लाभ मे ही रहेगी , भाजपा और कम्युनिष्टों के हिस्से केवल महिला विरोधी होने की बदनामी ही आयेगी जिससे महिला वोटों का नुकसान होगा । यानी कांग्रेस के दोनो हाथों मे लड्डू है । यदि यह सब संभव हुआ तो सबसे अधिक नुकसान यादव तिकड़ी को होगा और अन्य पिछड़े व अल्पसंख्यक वोट बैंक के कमजोर पड़ते ही इनकी राजनैतिक ताकत का भी पराभव हो सकता है । यही वजह है कि ये तीनो सबसे ज्यादा विरोध कर रहे हैं व कुछ हद तक बौखलाए भी हुए हैं ।


अन्त मे वही प्रश्न फिर से कि क्या यह महिला आरक्षण का मुद्दा महंगाई से ध्यान हटाने के साथ साथ पिछड़े और सेकुलर राजनीति का अन्त कर देगा ? इसका उत्तर तो भविष्य के गर्भ मे है । यह मुद्दा जैसे जैसे आगे बढ़ेगा , नयी नयी परिस्थितियां उत्पन्न होंगी उन पर हम सब विचार प्रकट करते रहेंगे ।

शनिवार, 13 मार्च 2010

महिला आरक्षण, महंगाई, पिछड़ा और सेकुलर राजनीति - भाग १

यूपीए और श्री मनमोहन सिंह की दूसरी सरकार के एक वर्ष पूरे होने मे अभी कुछ महीने शेष हैं लेकिन इस बीच महौल राजनैतिक सरगर्मी से काफी भर गया है । यह किसी सरकार के लिए कुछ जल्दी लगता है क्योंकि पहले एक वर्ष या उससे कुछ ज्यादा ही समय तक अक्सर सरकारें हनीमून पीरियड का अनुभव करती हैं। वैसे तो समर्थक मीडिया के चलते श्री मनमोहन सिंह का पहला पूरा कार्यकाल हनीमून का रहा था क्योंकि मीडिया उनकी सरकार पर नज़र रखने के बज़ाय मुख्य विपक्षी दल भाजपा के पीछे पड़ा रहा था । परन्तु दूसरे कार्यकाल मे सरगर्मी कुछ जल्दी ही झेलनी पड़ रही है । इसका कारण है कि इस दस महीने मे महंगाई चरम पर पहुंच गयी है । सरकार अन्य वस्तुओं के दाम बढ़ने पर टरकाऊ जवाब दे कर बच निकलती है परन्तु खाद्य पदार्थों के दाम बेतहासा बढ़ने से अब यह संभव नही रहा । यह बात कृषि मंत्री शरद पवार के ज्योतिषी वाले जवाब के बाद सब समझ गये हैं ।

इस सबके साथ विपक्ष की पार्टियों मे अप्रत्यक्ष समझौते के तहत एकजुटता दिखी । इससे निपटने के लिए सरकार ने पहले वही पिछले १५ सालों से कामयाब फार्मूले का सहारा लिया कि भारतीय जनता पार्टी के साथ सेकुलर फोर्सेस कैसे खड़ी नज़र आयेंगी? लेकिन बात यह है कि महंगाई एक सर्वव्यापी विषय है जिसका असर सब पर पड़ता है इसलिए सारे विपक्षी दल सेकुलरिज्म की छूआछूत से परे हट कर, एक साथ दिख सकते हैं । साथ ही सरकार को कटघरे मे खड़े करने का इससे अच्छा मौका नहीं हो सकता था और इसका लाभ विपक्ष ने उठाया । यह खबर भी जोरशोर से आ रही थी कि सारे दल मिल कर फ़ाइनेंस बिल पर कट मोसन लायेंगे । ऐसे मे साफ था कि विपक्षी एकता न टूटी तो सरकार गिर भी सकती है या छोटे छोटे दलों के हाथ ब्लैक मेल हो सकती है। इसी समय कुछ टीवी कार्यक्रमों के ज़रिये इस तरह के सवाल उठा कर महौल बनाने की कोशिश भी हुई कि कम्युनिस्ट और लालू, मुलायम कैसे भाजपा के साथ खड़े होगें लेकिन इसका असर न होते देख सरकार की ओर से एक धमाकेदार खबर आयी कि सरकार लोक सभा और विधान सभाओं मे महिलाओं को ३३% सीटें आरक्षित करने वाले महिला आरक्षण बिल को संसद के इसी सत्र मे पास करवायेगी ।

जो पहला सवाल मेरे मन मे आया कि इस बजट सत्र मे जहां सरकार की प्राथमिकता फ़ाइनेंस बिल होना चाहिए वहां यह नया फ़ोकस क्यों ? इस तरह का तुरत फ़ुरत का धमाकेदार निर्णय निकट के इतिहास मे एक बार पहले भी हो चुका है जब १९८९ मे तत्कालीन प्रधान मंत्री वी पी सिंह ने अपने सहयोगी से दुश्मन बने देवी लाल की किसान रैली के उत्तर में, रातों रात मंडल कमीशन लागू करने की घोषणा करके पिछडों का मसीहा बनने की कोशिश की थी । इस प्रक्रिया में पिछडे वर्ग के सारे नेता देवी लाल से अलग हो गये थे जैसे लालू, मुलायम, शरद और नितीश । सभी जानते हैं कि श्री वी पी सिंह को इसका लाभ तो नहीं हुआ लेकिन उस राजनीति का असर गया नहीं है । इस पर चर्चा दूसरे भाग मे करेंगे ।

यह तो साफ ज़ाहिर है कि सरकार सोचती है कि इस बात पर हंगामा होगा । भाजपा कभी कांग्रेस के साथ मिल कर किसी बिल पर वोट नहीं करना चाहेगी और बहाने बनायेगी , साथ ही लालू मुलायम भी इसका समर्थन नहीं करेगें। इस अफ़रा तफ़री के महौल मे महंगाई की चर्चा नेपथ्य मे चली जायेगी । ऐसा कुछ हद तक हो भी गया लेकिन एक दांव उल्टा पड़ गया जब सरकार के समर्थक वर्ग भी उसकी नीयत पर सवाल उठाने लगे। यहीं सरकार घिर गयी, अब उसे अपनी साख बचाने के लिए राज्यसभा मे वोटिंग करवाने के लिए बाध्य होना पड़ा । इसमे फायदा उठाने के इरादे से यह प्रचारित करना शुरू किया गया कि श्रीमती सोनिया गांधी ने इस बिल को अपना निजी एजेंडा बना लिया है। राज्यसभा में वोटिंग के बाद श्रीमती सोनिया गांधी पहली बार खुल कर टीवी पर आयीं और अपने पसंदीदा चैनेल एनडीटीवी की बरखा दत्त को इंटरव्यू भी दिया और साथ ही संसद के बाहर सारे चैनेल्स को न्यूज बाइट भी दी । यह क्रेडिट लेने की जबरदस्त कोशिश थी जिसमे प्रधानमंत्री जी गायब दिखे और मीडिया ने इसका नोटिस भी लिया ।

इसके साथ एक कोलेट्रल डैमेज हुआ जिसमे सरकार को अपने ही मित्र पार्टियों के सांसदो को मार्शलों द्वारा सदन के बाहर निकलवाना पड़ा, जिससे उसके दोस्त बिदकते नज़र आ रहे हैं, उन्होने अपना समर्थन वापस ले लिया है । सरकार एक या दो सीटों से ही बहुमत मे बची है। ऐसे हालात में सरकार को हमेशा बचाव की मुद्रा मे रहना पड़ेगा । जिस बात से बचने के लिए महिला आरक्षण बिल को लाया गया वह स्थिति अब हमेशा खड़ी रहेगी । ऐसे हालात मे अब यह साफ नज़र आ रहा है कि कांग्रेस समझदारी दिखा रही है और जैसा १९८९ मे श्री वी पी सिंह ने किया था, उसके उलट कांग्रेस बात को ज्यादा दूर नहीं ले जायेगी । इस तरह ऐसा लगता है कि महिला आरक्षण विधेयक अब फिर एक बार सर्वानुमति की कोशिश के नाम पर लोकसभा मे या तो पेश ही नहीं होगा या पेश हुआ भी तो पास नहीं होगा और लटका रहेगा ।

(महिला आरक्षण बिल के केंद्र बिंदु बनने से संभावित दूरगामी राजनैतिक परिणाम पर विचार अगले भाग मे प्रस्तुत करूंगा )

शनिवार, 6 मार्च 2010

मक़बूल फ़िदा हुसैन के बहाने

हुसैन की पेंटिंग, उनका विरोध और उनके निर्वासन के बारे मे बहुत कुछ लिखा जा रहा है । मेरे विचार मे हुसैन का विरोध ज्यादा इस कारण नही है कि इन पेंटिंगों मे हिंदू देवियों को नंगा दिखाया गया है । इस देश में ऐसे कई मंदिर हैं जहां नग्न अवस्था में मूर्तियां और भित्ति चित्र हैं और वे संस्कृति का हिस्सा हैं । यहां नागा साधुओं और दिगम्बर जैन संतों का ऐसा समाज है जो संस्कृति का हिस्सा है । वे सब नग्न रहते हैं क्योंकि इस बात में उनकी पवित्र आस्था है । लेकिन हुसैन साहब के बारे में यह सोच है कि जिन्हे हुसैन पसंद नही करते उसे नंगा दिखाते हैं । तो उनके द्वारा देवी देवताओं का नग्न चित्रण श्रद्धा के कारण नही बल्कि नफ़रत के कारण होना माना जा रहा है । इसके लिए उनकी हिटलर और मदर टेरेसा की पेंटिंग का उदाहरण दिया जाता है ।

दूसरा कारण यह भी है कि हुसैन की एक फिल्म मे एक गाने को लेकर मुस्लिम कट्टरवादियों द्वारा हंगामा किया गया था । उस गाने मे शायद नायिका के लिए " नूर अल नूर " शब्द का इस्तेमाल हुआ था, जिस पर विरोध करने वालों का कहना था कि इस शब्द से पैगंबर हज़रत मुहम्मद साहब (PBUH) को संबोधित किया जाता है इसलिए इसे किसी और के लिए इस्तेमाल नही किया जा सकता और इसे फिल्म से हटाया जाय । इसके जवाब मे हुसैन साहब ने फिल्म ही वापस ले ली, उसका वितरण और प्रसारण रोक दिया था और सारा आर्थिक नुकसान स्वंय उठाया था । जब उस समय उनसे इसका कारण पूछा गया तो उन्हों ने कहा था कि यह उनकी फिल्म है वे उसके साथ कुछ भी कर सकते हैं और इस पर सफाई देना उनके लिए आवश्यक नहीं है । हो सकता है कि हुसैन साहब ने यह कदम दुखी होकर या बेबस होकर उठाया हो परन्तु हिंदू चरम पंथी इसे उनके व्यवहार मे दोहरे मानदंड के रूप मे साबित करते हैं । इससे यह कहा जाता है कि देखो जब मुसलमानों ने एक शब्द का मुद्दा उठाया तो फिल्म ही वापस ले ली , लेकिन हिंदू देवी देवताओं की नंगी तस्वीरें बना कर उनका अपमान कर रहे हैं और सीनाजोरी कर रहे हैं । इस पर उनका मुसलमान होना भी एक मुद्दा बन जाता है ।

भारत मे इस समय हर धर्म, जाति और क्षेत्र से एक अतिवादी वर्ग उभर कर सामने आ रहा है जो हंगामा खड़ा करने की कोशिश मे लगा रहता , क्योंकि इस बहाने से उसकी दुकानदारी चल जाती है । आज के हज़ार चैनेलों के युग में यह और भी आसान है। बस आप बीस पच्चीस आदमी जुटाइये और पांच दस चैनेल वालों को बुलाइये और तमाशा करिये , उसे फिल्मों जैसा शूट कर लिया जायेगा और फिर बार बार वही सीन टीवी पर ऐसे प्रसारित किया जाता है जैसे पूरा देश उस हंगामे मे शामिल है । इसका प्रभाव ज्यादा पड़ता है , वास्तविकता से कई हज़ार गुना ज्यादा । इसका फ़ायदा ऐसे अतिवादी लोग उठा रहे हैं और मीडिया अपनी टीआरपी के लिए इन्हे उकसाता भी रहता है ।

भारत सरकार, विभिन्न प्रदेशों की सरकारें और तथाकथित सेकुलर वर्ग भी हिंदू अतिवादियों का विरोध तो जम कर करते हैं, यहां तक कि उन्हे परास्त करने के लिए सारे नियम, कानून और भाषा संयम भी तोडने में उन्हे कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाते। वहीं जब मुद्दा मुस्लिम और क्रिस्चियन चरम पंथियों का आता है तो विरोध नरम शब्दों नाम मात्र का होता है और कई बार सेकुलर ताकतें सहयोग की मुद्रा मे भी आ जाती हैं । जैसे कि सटानिक वर्सेस पर कांग्रेस सरकार, तस्लीमा नसरीन के मामले पर सीपीएम, मी नाथूराम गोड़से बोल्तोय के मामले पर महाराष्ट्र सरकार और द विंची कोड के मुद्दे पर आंध्र प्रदेश की सरकार का उदाहरण सबके सामने है। ऐसे और भी बहुत उदाहरण गिनाये जा सकते हैं , इन से यह साबित होता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सरकारों और सेकुलर वादियों और बुद्धिजीवियों के व्यवहार मे सम रूपता नहीं है । यह किसी न्याय और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए लड़ाई के बज़ाय अहं और राजनैतिक वर्चस्व की लड़ाई नज़र आती है ।

सरकार को एक नीति बनानी चाहिए और उस पर एक सा व्यवहार करना चाहिए, इसके लिए यदि राजनैतिक कीमत भी यदि देनी पड़े तो भी , वरना यह सब सिर्फ़ तमाशेबाजी ज्यादा कुछ नहीं माना जायेगा ।

और अन्त में हुसैन को कतर जैसे देश में ज्यादा स्वतंत्रता मिलेगी यह सोचना मूर्खता ही होगी, कतर कोई अमेरिका या यूरोप नहीं है । इस तरह की गफ़लत जो तथाकथित सेकुलर फैला कर प्वाइंट स्कोर करने की कोशिश कर रहे हैं, वह सिर्फ़ और सिर्फ़ हास्यास्पद है।

शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

जहां जन्म की ठांव

पिछले दिनों मैं अपने शहर सुल्तानपुर गया था, जो लोग नहीं जानते हों , इसी जिले की अमेठी सीट से श्री राहुल गांधी लोक सभा सांसद हैं । अमेठी से पहले श्री संजय गांधी, श्री राजीव गांधी और श्रीमती सोनिया गांधी सांसद रह चुके हैं ।

चाहे शिव सेना और राज ठाकरे की "मनसे" कुछ भी कहे लेकिन जिस भूमि मे पैदा हुए और बचपन बीता वहां के लिए मन में अज़ब सा प्रेम भरा उत्साह हमेशा रहता है ।

एक नाराजगी भरा दोहा महा कवि रहीम का भी है :

रहिमन वहां न जाइये जहां जन्म की ठांव,
गुन अवगुन देखत नहीं लेत पाछिलो नांव ।


वैसे कवि रहीम ने यह बात दूसरे संदर्भ मे कही , उन्हे इस बात का सर्टिफिकेट नहीं देना था कि आप जन्म भूमि और कर्म भूमि मे किसे ज्यादा महत्व देते हैं बल्कि उन्हे शायद यह मलाल था कि अपने जीवन मे कितने ऊचें मकाम तक पहुंच जाओ, बचपन के मित्र बचपन वाले तरह से व्यवहार करते हैं । जबकि मुंशी प्रेमचन्द ने "गुल्ली डंडा" कहानी मे इसके विपरीत अनुभव लिखा, जहां नायक यह पाता है कि जब वह बड़ा अफ़सर बनने के बाद गांव जाता है तो बचपन का उसका दोस्त, जो अभी भी गांव मे रहता है उससे जान बूझ कर गुल्ली डंडे के खेल मे हार जाता है । इस बात से नायक दुखी होता है । खैर दोनो बातें अपनी तरह से ठीक हैं, हम सबको दोनो तरह के अनुभव होते रहते हैं।

मुझे यह दोनो बातें इस लिए याद आयीं क्योंकि इस यात्रा मे मैं अपने बाल सखा और अब सुल्तानपुर स्थित के एन आई आई टी के डायरेक्टर प्रोफ़ेसर ( डॉ ) के. एस. वर्मा से करीब पन्द्रह वर्ष बाद मिला, समयाभाव के कारण मुलाकात केवल पंद्रह बीस मिनट की रही और मुझे यह लगा कि शायद हम दोनो ही बचपन से आगे निकल आये हैं और कितना खुल कर कैसे व्यवहार करें इसकी द्विविधा महसूस कर रहे हैं ।

इन बातों से इतर, मैने कुछ फोटो अपने मोबाइल से लिए , जो नीचे दे रहा हूं, जो लोग सुल्तानपुर से हैं या कभी गये हैं उनकी याद ताज़ा हो जायेगी और जो नहीं गये उन्हे अपने शहर का चौक याद आ जायेगा । इस वसंत ऋतु में सरसों के पीले फूलों वाले खेत भी याद आ जायेंगे ।




सुल्तानपुर चौक






गुड़ मंडी के पास के बाज़ार की गलियां





वसंत ऋतु में सरसों के खेत



शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

एक फ़ालतू सी फिल्म है माई नेम इज़ खान

मेरा मानना है कि यह एक साधारण फिल्म है जो आज देश मे एक असाधारण माहौल की वजह से बिना मतलब के तारीफ़ बटोर रही है । यह फिल्म अमेरिका के ईराक़ तथा अफ़गानिस्तान युद्ध के बाद से पश्चिमी देशों मे उठे सवालों को अपनी समझ के हिसाब से डील करती है । फिल्मकार बहुत सारी बातें एक साथ डील करने की कोशिश मे है । हीरो को बिमारी है, वह मुसलमान है, उसे एक हिन्दू लडकी से प्यार करता है जो एक बच्चे की मां है, वह परी कथाओं का सा प्रेमी है जो प्यार को पाने के लिए हर हद को पार करता है । जो क्रिस्चियन बहुल समाज मे शक़ की नज़र से देखे जाने का प्रतिकार करता है ( वैसे शाहरुख़ खान करीब ६ महीना पहले अपनी सुरक्षा जांच पर बता ही चुके हैं कि वे खान थे तभी उन्हे रोका गया ,जबकि इसी देश के जार्ज फर्नाडीस सहित कितने लोगों की जांच हो चुकी है )। काई सारी बातें जो हंगामा कर सकने वाली हैं जो जान बूझ कर डाली गयीं है पर हंगामे का मौका अप्रत्यासित तौर पर दिया शिवसेना ने, जो राज ठाकरे का जवाब देने के लिए मौके के लिए बेकरार है चाहे सही या गलत ।

एक व्यक्ति जो ताकतवर के अन्याय ( सचमुच का या काल्पनिक ) से लड़ने का हौसला रखता है और इतना गुणी है ऊपर से बीमारी ग्रस्त है से हर कोई सहानुभूति रखेगा । साथ मे अगर शिव सेना जैसे नालायक दल हों जो बेकार का विरोध करें और राजीव शुक्ला जैसे दोस्तों ( वैसे पिछले १५ अगस्त को शाहरुख़ की जांच के हंगामे की शुरुआत शुक्ला जी द्वारा ही हुई थी ) से सुसज्जित कांग्रेस पार्टी के युवराज का सीधा समर्थन हो तो क्या कहने। इस देश मे जो भेड़ चाल वाला मीडिया सर्कस होता है उसमे एक साधारण सी फिल्म असाधारण ही बन जायेगी । इतनी पुलिस एक फिल्म दिखाने के लिए मौजूद थी , जब यूपी बिहार के लोग पिट रहे थे तब कहां थी । उसकी गोली चली भी तो एक निहत्थे, बेरोज़गार, गरीब बिहारी युवक को मारने के लिए । कहां थी सरकार कहां था कानून का राज । जो मंत्री फिल्म देखने के लिए आये थे वे क्या कर, कह व बोल रहे थे । इसके पीछे की राजनीति के खुलासे की अपेक्षा प्रबुद्ध पत्रकारों से रहेगी ।

यह एक लम्बी, उबाऊ और पश्चिमी देशों मे उठ रहे सवालों का उत्तर ढ़ूंढ़ती फिल्म है जिसका भारत की वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं है । वैसे भी शाहरुख की फिल्में ओवर्सीज मार्केट के लिए बनती हैं और यह उसी तरह की है इसी लिए शाहरुख़ इसके प्रचार के लिए देश के बाहर ज्यादा वयस्त रहे । शिवसेना ने जो प्रचार का मौका दिया उससे जो फ़ायदा मिला वह आइसिंग ओन केक जैसा है । संघ परिवार से नफ़रत करने वालों के लिए तो पता भी हिले वही काफ़ी है संघ पर टिप्पड़ी के लिए । देश के एलीट वर्ग का एक तबका किसी भी कीमत पर इस फिल्म को असाधारण साबित करने के लिए कटिबद्ध है ।

भारतीय मुसलमान समाज की सामयिक समस्यायों और आगे के रास्ते के बारे मे सही समझ वालों को आप लोग सुने और मौका दें तब न । मौलाना वहीउद्दीन की वार्ता के कुछ अंश उद्धरित किया है लिंक दे रहा हूं अगर समय मिले तो देखियेगा और अपना मत भी दीजिएगा ।
http://mireechika.blogspot.com/2009/12/blog-post_06.html

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

माइ नेम इज़ खान पर हंगामा

आज छुट्टी का दिन है । सुबह से ही मन अलसाया हुआ है । परन्तु थोड़ी देर से ही सही, उठा और नहा कर मंदिर भी हो आया । आज महाशिव रात्रि का पुण्य अवसर होने की वजह से बिना शिव जी को जल चढाये नाश्ता मिलने की गुंजाइश नहीं थी । मंदिर मे भीड़ मिलनी ही थी, करीब आधा घंटा लाइन मे लगने के बाद पूजा का अवसर मिला और धक्का मुक्की में किसी तरह शिव जी को जल चढ़ाया और त्रुटियों के लिए क्षमा मांग कर घर वापस आये तब जाकर नाश्ता मिला ।


अब खाली बैठे बैठे टीवी का रिमोट हाथ मे लिया देश दुनियां की खबर जानने के लिए, और पाया कि सारे चैनेलों पर बस एक ही खबर है - माइ नेम इज़ खान । आज की सबसे पहले खबर होनी चाहिए थी महाकुंभ का शाही स्नान , परन्तु आज मीडिया का फ़ोकस आज खान है । यह दूसरी बार हो रहा है जब त्योहार के दिन पूरा देश शाहरुख़ खान को लेकर मीडिया फ्रेन्जी का शिकार हो रहा है । लोगों को भूला नही होगा १५ अगस्त का दिन जब अमेरिका में सुरक्षा जांच को लेकर हंगामा हुआ था । उस समय जब यह आरोप लगा कि यह सब प्रचार के लिए हो रहा है तब शाहरुख़ पीछे हट गये थे परन्तु स्वतंत्रता दिवस जैसे राष्ट्रीय पर्व पर इस बात पर जो मीडिया सर्कस हुआ उसने मज़ा किरकिरा कर दिया था । आज फिर महाशिवरात्रि पर उससे बढ़ कर हालात हैं । यह मामला जल्दी खतम भी नहीं होने वाला ।

मेरा मनना है कि शहरुख़, मीडिया और शिव सेना जैसे दल तीनो को एक दूसरे की आवश्यकता है । इससे मुफ़्त का प्रचार मिल रहा है, परन्तु देश का कीमती समय बेकार की बातों पर लग रहा है । यहां हजारों किसान आत्महत्या कर लें पर लोकतन्त्र खतरे मे नही पड़ता , आज लोकतंत्र पर खतरा और राष्ट्र का सम्मान जैसे शब्दों का इस्तेमाल इस तरह के मुद्दों पर कुछ अधिक ही होने लगता है । मैं शाहरुख़ का विरोधी नहीं , मै फिल्म का भी विरोधी नही और शिव सेना का समर्थक तो कभी भी नही । परन्तु यह कहना चाहता हूं कि यह बात इतनी बड़ी नही जितना महत्व दिया जा रहा है । मुझे लगता है कि कुछ वेस्टेड इन्टेरेस्ट ऐसे हैं जो चाहते हैं कि गैर बुनियादी सवालों पर अगर फ़ोकस रहे तो सबके लिए अच्छा है , सरकार के लिए भी ।

क्या कोई ऐसा उपाय नहीं जिससे हमारा ( खासकर मीडिया का ) फ़ोकस उसी मात्रा में हर बात पर जाये जितना आवश्यक है - यह प्रश्न मैं सबके लिए रख रहा हूं ।

शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

सारे देश को सेकुलर सलाम

आज इकोनॉमिक टाइम्स में एक समाचार पढ़ा कि कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल के नेताओं बटाला हाउस केस मे शामिल आतंकवादी की मदद की । कांग्रेस के महा सचिव दिग्विजय सिंह आज़मगढ़ कथित आतंक वादी के घर सहानुभूति प्रकट करने गये और बटाला हाउस केस की निष्पक्ष जांच की मांग की । उन्हे अपनी सरकार के गृह मंत्रालय की पुलिस जांच पर भरोसा नही है ।

सारे देश को सेकुलर सलाम ।

रविवार, 10 जनवरी 2010

पुरुष समाज के मार्गदर्शक - श्री नारायण दत्त तिवारी

वैसे तो पिछले वर्ष घटित अनेक घटनाएं यादगार रहीं मगर वर्ष के जाते जाते श्री नारायण दत्त तिवारी की आंध्र प्रदेश के राजभवन से बिदाई ने कुछ प्रश्न तो खड़े किये परन्तु प्रश्नों से ज्यादा आशा की बहुत सारी किरणे दिखा गया । वैसे जिन परिस्थितियों मे तिवारीजी की बिदाई हुई वह अप्रत्याशित ही कही जायेगी ।

भारत मे राजनेताओं के निजी जीवन खास कर उनके बेड रूम की कहानियां और महिलाओं से उनके सम्बन्धों पर बहुत ज्यादा चर्चा नहीं होती । अनेक नेताओं के बारे मे लोग जानते भी हैं मगर सर्वजनिक रूप से कोई चर्चा नहीं करता । यही कारण है कि जब तिवारीजी जैसे सफल नेता जो राजनाति के शिखर पदों जैसे दो प्रदेशों के मुख्य मंत्री ( यह सौभाग्य केवल तिवारीजी को ही प्राप्त है ), केंद्र में विदेश मंत्री और वित्त मंत्री, पर रहे , उनके बारे मे ऐसा टेप आया तो स्वाभाविक रूप से चर्चा बहुत गरम रही । ऐसा कहा जाता है कि एक समय तिवारीजी प्रधानमंत्री बनने के करीब भी पहुंच गये थे लेकिन वे नैनीताल से चुनाव हार गये और फिर श्री नरसिंहाराव जी प्रधानमंत्री बने ।

जब वे आंध्रप्रदेश के राज्यपाल बने उसी समय के आस पास उनके जीवन का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू का भी लोगों के संज्ञान मे आया । दिल्ली हाई कोर्ट में एक मुक़दमा दायर किया गया जिसमे एक युवक ने यह दावा किया कि तिवारीजी उस युवक के अवैध पिता हैं । यह केस तकनीकी आधार पर खारिज़ हो गया इसलिए इस प्रकरण पर कोई निर्णयात्मक बात कहना मुश्किल है । परन्तु २००९ के अन्तिम दिनों मे टी वी पर बाकायदा एक टेप दिखाया गया जिसमे ८६ वर्ष के तिवारीजी तीन महिलाओं के साथ बिस्तर पर दिखे । इससे तिवारीजी राज भवन से विदा हो गये लेकिन उनकी रंगीन मिज़ाजी ने दो तरह की प्रतिक्रियाओं को जन्म दिया । एक तो हमेशा की तरह उच्चपदासीन लोगों के जीवन व्यवहार के बारे में, लेकिन दूसरी उनकी इस उम्र मे भी सक्रिय सेक्स लाइफ़ के बारे में । आज जहां तीस के ऊपर होते ही पुरुषों मे चिंता होनी शुरू हो जाती है और वे थर्टीप्लस, रिवाइटल, अनेक प्रकार के तेल और वियाग्रा ढूंढते रहते हैं वहां तिवारीजी की सक्रियता ईर्ष्या के साथ साथ उम्मीद की किरण भी जगाती है ।

देखिये तिवारीजी से ईर्ष्या तो होगी ही आखिर जहां आम पुरुष परफ़ार्मेंस एंजाइटी से परेशान और खिन्न रहता है वहां ८६ साल की उम्र में यह कारनामा, वह भी एक साथ तीन तीन सुंदरियों के साथ ! गुरू जी अब तो तुम्ही इस भटके समाज के पथप्रदर्शक हो । इसलिए अब जब आपका राजनैतिक जीवन समाप्त हो गया है आप निराश न हों , आपने सारी उम्र देश और समाज की सेवा की है, अब आपके पास ईश्वर ने एक और सेवा का मौका दिया है । आप अपनी डाइट और पौरुष शक्ति पर एक किताब लिखो, इससे आने वाली पीढ़ियां लाभान्वित होगीं । नीम हकीमों के चक्कर मे कौन पड़ेगा जब ऐसा आदर्श अपने अनुभव का पिटारा खोलेगा । मैं इस बात की गारंटी देता हूं कि यह किताब आल टाइम बेस्ट सेलर होगी । साथ ही , राजभवन छूटने के बाद अब जब सारी हसीनाएं और चमचे किनारा कर गये होंगे तो किताब लिख कर आप ब्यस्त रहेंगे, बोरियत दूर होने के साथ साथ अच्छी कमाई भी होगी । सबसे बड़ी बात समाज सेवा का जो बीड़ा आपने जीवन भर उठाया है वह भी अविरल गति से ज़ारी रहेगा। आमीन ।