शनिवार, 6 मार्च 2010

मक़बूल फ़िदा हुसैन के बहाने

हुसैन की पेंटिंग, उनका विरोध और उनके निर्वासन के बारे मे बहुत कुछ लिखा जा रहा है । मेरे विचार मे हुसैन का विरोध ज्यादा इस कारण नही है कि इन पेंटिंगों मे हिंदू देवियों को नंगा दिखाया गया है । इस देश में ऐसे कई मंदिर हैं जहां नग्न अवस्था में मूर्तियां और भित्ति चित्र हैं और वे संस्कृति का हिस्सा हैं । यहां नागा साधुओं और दिगम्बर जैन संतों का ऐसा समाज है जो संस्कृति का हिस्सा है । वे सब नग्न रहते हैं क्योंकि इस बात में उनकी पवित्र आस्था है । लेकिन हुसैन साहब के बारे में यह सोच है कि जिन्हे हुसैन पसंद नही करते उसे नंगा दिखाते हैं । तो उनके द्वारा देवी देवताओं का नग्न चित्रण श्रद्धा के कारण नही बल्कि नफ़रत के कारण होना माना जा रहा है । इसके लिए उनकी हिटलर और मदर टेरेसा की पेंटिंग का उदाहरण दिया जाता है ।

दूसरा कारण यह भी है कि हुसैन की एक फिल्म मे एक गाने को लेकर मुस्लिम कट्टरवादियों द्वारा हंगामा किया गया था । उस गाने मे शायद नायिका के लिए " नूर अल नूर " शब्द का इस्तेमाल हुआ था, जिस पर विरोध करने वालों का कहना था कि इस शब्द से पैगंबर हज़रत मुहम्मद साहब (PBUH) को संबोधित किया जाता है इसलिए इसे किसी और के लिए इस्तेमाल नही किया जा सकता और इसे फिल्म से हटाया जाय । इसके जवाब मे हुसैन साहब ने फिल्म ही वापस ले ली, उसका वितरण और प्रसारण रोक दिया था और सारा आर्थिक नुकसान स्वंय उठाया था । जब उस समय उनसे इसका कारण पूछा गया तो उन्हों ने कहा था कि यह उनकी फिल्म है वे उसके साथ कुछ भी कर सकते हैं और इस पर सफाई देना उनके लिए आवश्यक नहीं है । हो सकता है कि हुसैन साहब ने यह कदम दुखी होकर या बेबस होकर उठाया हो परन्तु हिंदू चरम पंथी इसे उनके व्यवहार मे दोहरे मानदंड के रूप मे साबित करते हैं । इससे यह कहा जाता है कि देखो जब मुसलमानों ने एक शब्द का मुद्दा उठाया तो फिल्म ही वापस ले ली , लेकिन हिंदू देवी देवताओं की नंगी तस्वीरें बना कर उनका अपमान कर रहे हैं और सीनाजोरी कर रहे हैं । इस पर उनका मुसलमान होना भी एक मुद्दा बन जाता है ।

भारत मे इस समय हर धर्म, जाति और क्षेत्र से एक अतिवादी वर्ग उभर कर सामने आ रहा है जो हंगामा खड़ा करने की कोशिश मे लगा रहता , क्योंकि इस बहाने से उसकी दुकानदारी चल जाती है । आज के हज़ार चैनेलों के युग में यह और भी आसान है। बस आप बीस पच्चीस आदमी जुटाइये और पांच दस चैनेल वालों को बुलाइये और तमाशा करिये , उसे फिल्मों जैसा शूट कर लिया जायेगा और फिर बार बार वही सीन टीवी पर ऐसे प्रसारित किया जाता है जैसे पूरा देश उस हंगामे मे शामिल है । इसका प्रभाव ज्यादा पड़ता है , वास्तविकता से कई हज़ार गुना ज्यादा । इसका फ़ायदा ऐसे अतिवादी लोग उठा रहे हैं और मीडिया अपनी टीआरपी के लिए इन्हे उकसाता भी रहता है ।

भारत सरकार, विभिन्न प्रदेशों की सरकारें और तथाकथित सेकुलर वर्ग भी हिंदू अतिवादियों का विरोध तो जम कर करते हैं, यहां तक कि उन्हे परास्त करने के लिए सारे नियम, कानून और भाषा संयम भी तोडने में उन्हे कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाते। वहीं जब मुद्दा मुस्लिम और क्रिस्चियन चरम पंथियों का आता है तो विरोध नरम शब्दों नाम मात्र का होता है और कई बार सेकुलर ताकतें सहयोग की मुद्रा मे भी आ जाती हैं । जैसे कि सटानिक वर्सेस पर कांग्रेस सरकार, तस्लीमा नसरीन के मामले पर सीपीएम, मी नाथूराम गोड़से बोल्तोय के मामले पर महाराष्ट्र सरकार और द विंची कोड के मुद्दे पर आंध्र प्रदेश की सरकार का उदाहरण सबके सामने है। ऐसे और भी बहुत उदाहरण गिनाये जा सकते हैं , इन से यह साबित होता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सरकारों और सेकुलर वादियों और बुद्धिजीवियों के व्यवहार मे सम रूपता नहीं है । यह किसी न्याय और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए लड़ाई के बज़ाय अहं और राजनैतिक वर्चस्व की लड़ाई नज़र आती है ।

सरकार को एक नीति बनानी चाहिए और उस पर एक सा व्यवहार करना चाहिए, इसके लिए यदि राजनैतिक कीमत भी यदि देनी पड़े तो भी , वरना यह सब सिर्फ़ तमाशेबाजी ज्यादा कुछ नहीं माना जायेगा ।

और अन्त में हुसैन को कतर जैसे देश में ज्यादा स्वतंत्रता मिलेगी यह सोचना मूर्खता ही होगी, कतर कोई अमेरिका या यूरोप नहीं है । इस तरह की गफ़लत जो तथाकथित सेकुलर फैला कर प्वाइंट स्कोर करने की कोशिश कर रहे हैं, वह सिर्फ़ और सिर्फ़ हास्यास्पद है।