रविवार, 20 सितंबर 2009

भारतीय जनता पार्टी आम चुनाव के पूर्व और आम चुनाव के बाद

भारतीय राजनीति में वर्ष २००९ के आम चुनाव का परिणाम कुछ हद तक आश्चर्यजनक रहा । किसी भी राजनैतिक पंडित या सेफ़ोलोजिस्ट को यह अंदाजा नहीं था कि कांग्रेस २१५ लोकसभा सीटें प्राप्त करेगी । साथ ही भरतीय जनता पार्टी ( भाजपा ) को पिछली लोकसभा से २२ सीटें कम मिलेंगी । मगर यह हुआ । इसके परिणामस्वरूप भाजपा मे आज लगभग वही स्थिति है जैसी कांग्रेस मे १९९८ की हार के बाद थी । जब कांग्रेस मे जबरदस्त उथल पुथल हुई और पार्टी से टूट कर तमिल मनीला, त्रिणमूल , तिवारी कांग्रेस, लोकतांत्रिक कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस जैसी लगभग आधा दर्जन पार्टियां अस्तित्व मे आयीं ।
इसी परिप्रेक्ष मे आज भाजपा मे जिस तरह की उथल पुथल चल रही है वह असमान्य न होते हुये भी सहज नही कहा जा सकता । परंतु इस बात का निरपेक्ष भाव से आकलन होना चाहिये की जब लोकसभा के चुनाव से ठीक पहले राज्यों के चुनावों में और कुछ उपचुनावों मे भाजपा की स्थिति ठीक ठाक नजर आ रही थी तो अचानक लोकसभा चुनाव मे कांग्रेस और भाजपा का अन्तर पिछली लोकसभा के ७ सीटों से बढ़कर इस लोकसभा मे लगभग १०० सीटों का क्यों हो गया । मेरे विचार मे लोकसभा चुनाव से ठीक पहले भाजपा किसी भी तरह से न तो विनिंग टीम जैसी नजर आ रही थी न ही व्यवहार कर रही थी । इसके आकलन पर निम्न बातें मुख्यतया: स्पष्ट होती हैं।
१. पार्टी का मीडिया से सम्बंध । आजकल न्यूज चैनेलों का जमाना है इससे कोई इन्कार नही कर सकता । खास कर अंग्रेजी के दो तीन चैनेल एक तरह से जो एजेंडा सेट कर रहे हैं और बाकी के चैनेल, हिंदी वालों सहित, उसे ही फालो करते हैं । अगले दिन समाचार पत्रों की सुर्खिंया भी उसी से प्रेरित होती हैं । आप देखिये कि सत्ता मे कांग्रेस है परंतु सत्ताजनित सारी नेगेटिव बातों की वजह से भाजपा सुर्खियों मे छायी रहती है । पिछले तीन चार सालों मे भाजपा की छोटी से छोटी कमी पूरे जोर शोर से प्रसारित हुई है और कांग्रेस की बड़ी से बड़ी कमी को सरसरी तौर पर प्रसारित किया गया । चाहे लोकसभा मे पैसे लेकर प्रश्न पूछने का मामला हो, लोकसभा मे पैसे देकर बहुमत खरीदने का मामला हो या वरुण गांधी की सीडी हो, इसका विश्लेषण कीजिये ।
जब पैसे लेकर प्रश्न पूछने की बात आयी तो जहां अन्य पार्टियों से एक या दो सदस्य लिप्त मिले थे भाजपा से आठ या नौ । क्या कांग्रेस से भी आठ या दस सदस्य नही हो सकते थे । या इस आपरेशन दुर्योधन का लक्ष्य भाजपा थी और बाकी एक दो सदस्य संतुलन के लिये शामिल किये गये थे । क्योंकि सत्तापक्ष द्वारा जिस तत्परता से और जितनी कड़ी कार्यवायी इस केस मे हुई आज तक किसी अन्य राजनैतिक केस मे इतनी तत्परता से और इतनी नैतिकतापूर्ण तरीके से कभी नही हुई ।
अब लोकसभा में पैसे देकर वोट खरीदने का मामला लीजिये, इस केस मे परिणाम पहले केस से बिल्कुल उलट हुआ । जिन पर पैसे देने का आरोप लगा वे पाक साफ़ बच निकले और जिन्होने इसका भंडाफोड किया वे फंस गये । जांच पूरी हो गयी फ़ैसला भी आ गया मगर यह बात स्पष्ट नहीं हुई कि समाजवादी पार्टी के एम पी रात के अंधेरे मे भाजपा एम पी के घर क्यों गये और भाजपा एम पी को अमर सिंह के घर क्यों बुला कर ले गये । अमर सिंह जी किस बात का उलाहना देते रहते हैं कि कांग्रेस के लिए उन्होने जो कुछ किया उसका फल उन्हे धोखा मिला। क्या उन्होने कांग्रेस के लिए कोई डर्टी कार्य किया था और उन्हे उसका सही सिला नही मिला? कहीं उन्हे इस बात का दर्द तो नही है? साथ ही मीडिया यह नही पूछता कि इतने भाजपा व अन्य पार्टियों के सदस्यों को तोड कर लोक सभा मे बहुमत साबित करने वाले प्रधानमंत्री को कभी भी नैतिकता के सवाल पर मन मे द्वंद नही हुआ, जब कि आपरेशन दुर्योधन मे लिप्त सदस्यों को संसद से उच्च नैतिकता के लिए ही निकाला गया था ।
वरुण गांधी की सीडी के मामले को देखिये, उसी समय कांग्रेस के एक बड़े नेता इमरान किदवई का सीडी भी आया था जिसमें वे इस्लाम के नाम पर वोट देने की अपील कर रहे थे और भाजपा को वोट देने वाले के मुसलमान होने पर सवाल उठा रहे थे । मगर मीडिया मे हंगामा सिर्फ़ वरुण पर हुआ ।
यह मैने कुछ उदाहरण दिये, परंतु पूरे दौर मे मीडिया रिपोर्टिंग और चर्चाओं मे एक पैटेर्न था । उपर्युक्त बातें उसके प्रतीक के रूप मे दी गयी हैं। इस लिये पार्टी को इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि मीडिया से कैसे सम्बंध सुधार हो और नकारात्मक छबि से कैसे बाहर निकला जाय ।
२. पार्टी के नेताओं मे भितरघात और केन्द्रीय नेताओं के अहं के टकराव का खुल कर प्रदर्शन । जिसके दो उदाहरण दूंगा । एक कल्याण सिंह का चुनाव से ठीक पहले पार्टी छोड़ना । जहां भाजपा उत्तर प्रदेश में सबसे पहले उम्मीद्वारों की घोषणा करके सबसे आगे संघर्ष का बिगुल बज़ाती लग रही थी वहीं कल्याण सिंह के चुनाव की पूर्वसंध्या पर पार्टी छोडने से लगभग पूरी पार्टी , खास कर उत्तरप्रदेश मे लकवा ग्रस्त सी हो गयी और आज भी उसी हालात मे है । कल्याण सिंह ने तो खैर अपने आपको सिर्फ़ लोध जाति के नेता होने तक सीमित कर लिया और जिन मुलायम सिंह की टक्कर के नेता थे उनका कृपापात्र बन कर स्वयं से कैसे आंख मिलाते होगें वे ही जाने । इस बात ने उत्तर भारत और खास कर उत्तर प्रदेश मे पार्टी नेताओं की विचारधारा और जनसेवा के प्रति प्रतिबद्धता को सवालों के घेरे मे खड़ा कर दिया । अब इन बातों से वोटर तो टूटेगा ही ।
दूसरा उदाहरण अरुण जेटली के रूठने का है जब महायुद्ध द्वार पर था तो पार्टी के नीतिनिर्धारक रूठ कर कोपभवन मे जा कर बैठ गये । बात चाहे जो भी रही हो, सुधांशु मित्तल से उनका कोई भी बैर रहा हो मगर उन्हे इस बात का अहसास तो होना ही चाहिए था कि वे पार्टी के मुख्य नीति निर्धारक हैं और उनका यह आचरण, वह भी चुनाव के दौरान, कार्यकर्ताओं मे असमंजस पैदा करेगा और वोटरों दूर करेगा ।
ऐसा लग रहा था कि भाजपा के नेताओं ने यह मान लिया था कि सत्ता मिलना अवश्यसंभावी है अत: चुनाव के पहले ही सत्ता की मलाई के लिये गोटी बिठाने मे व्यस्त हो गये और चुनाव हार गये ।
३. आडवाणी जी के नेतृत्व को जेडीयू जैसे सहयोगी ने तो पूरी तरह माना मगर अरुण शोरी जैसे विचारक मोदी का केस आगे बढाने मे लग गये और २००९ के बज़ाय २०१४ के चुनाव मे पूरी पार्टी को उलझा दिया । आज वही शोरी साहब मोदी को न हटाने का दोषी आडवानी जी को बता रहे हैं और हार की जिम्मेदारी निर्धारित करने की मांग कर रहे हैं।
स्वयं आडवाणी जी कंधार मामले पर जिस तरह अपने को पूरी पार्टी और वाजपेयी सरकार के निर्णय से दूर करते नज़र आये वह भी किसी के गले नही उतरा और उनकी छबि सुधरने के बज़ाय धूमिल हो गयी ।
उपर्युक्त बातों से ज़ाहिर है कि जब आप की छबि मीडिया मे नकारात्मक हो, आपके सेनापति विरोधी खेमे मे शामिल हो जायें , नीतिनिर्धारक कोपभवन मे रूठ कर बैठे हों, मुख्य नेता के बराबर दूसरे नेता की छबि चमकायी जाय , २००९ को छोड़ कर २०१४ मे उलझा जाय तो आप २००९ मे कैसे जीत सकते हैं । भाजपा को अपने प्रतिबद्ध वोटरों का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि उन्हे ११५ तक सीटे मिल गयी वरना ऐसे हालात मे १०० के नीचे भी जा सकते थे ।
( चुनाव बाद की स्थिति और भविष्य की राह पर दूसरे भाग मे अगले सप्ताहांत तक लिखूंगा )