बुधवार, 19 मई 2010

गोरखा चौकीदार - एक परम्परा भरोसे की

आज रात मे देर से सोया, असल मे कहीं गया हुआ था और घर आने मे देर हो गयी । वैसे तो दिल्ली में यह कोई अजीब बात नही है , देर तो अक्सर हो ही जाया करती है । आज यह बात याद कर रहा हूं तो खास बात यह है कि जब मै गाड़ी पार्क करके सीढ़ियां चढ़ रहा था तो सीटी की आवाज के साथ सड़क पर डंडे पटकने की अवाज आयी । यह चौकीदार के आस पास होने की सूचना थी । यह आवाज तो जैसे मैं भूल ही गया था , मुझे अपना बचपन याद हो आया ।

मैं हाई स्कूल पास करके आगे की पढ़ाई के सिलसिले मे दिल्ली आया था । यहां ग्यारहवीं मे एडमीशन लिया था । मैं चूंकि छोटे से गांव से आया था , मेरी बड़े शहर के कुछ तौर तरीकों के बारे मे समझ कम थी , उनमे से एक यह चौकीदार वाली बात भी थी । हमारे गांव मे तो जब देर रात कुत्ते जोर से भौंकते थे तो बड़े बुजुर्ग , जो ऐसा लगता है रात को अक्सर कम ही सोते थे और एक तरह से चौकीदार की भूमिका मे होते थे , अपनी चारपाई पर लेटे -लेटे पुकार कर एक दूसरे को सावधान करते हुए कहते थे कि ध्यान देना शायद कोई चोर वगैरह तो नहीं है । परन्तु यहां मामला दूसरा था ।

असल मे मेरी शुरू से आदत थी कि मैं देर रात जाग कर ही पढ़ता था मुझसे सुबह उठ कर पढ़ाई कभी नहीं हुई । इस बात के लिए घर वालों से हमेशा शिक्षा - सलाह मिलती थी कि सुबह उठ कर पढ़ा करो सुबह दिमाग ताजा रहता है और पाठ जल्दी याद होता है । लेकिन मै सुबह जब भी पढ़ने की कोशिश किया मुझे नीद ही आयी , याद वाद कुछ नही हुआ । इस तरह मैं अपनी आदत के अनुसार रात मे देर तक जाग कर पढ़ता था, रात ११-१२ बजे के बाद कालोनी मे बिल्कुल सन्नाटा सा हो जाता था । उन दिनो दिल्ली मे ज्यादातर स्ट्रीट लाइटें टंग्स्टन बल्ब की ही होती थीं । सड़कों पर थोड़ा उजाला और थोड़ा अंधेरा होता था , आज जैसे मरकरी लाइट के बड़े - बड़े टावर नहीं होते थे । ऐसे मे चौकीदार की सीटी और उसके लाठी की आवाज सब को सुरक्षा का बोध देती थी । मै जब पढ़ाई मे ब्रेक करके बीच बीच मे थोड़ी देर के लिए कमरे से बाहर आ जाता और बालकॉनी मे छज्जे पर आधा झुका हुआ खड़ा होकर सड़क पार के पार्क की तरफ ऐसे ही शून्य मे देखता रहता था । उसी समय कभी कभी चौकीदार उधर से गुजरता , नीचे से ही पूछ लेता - क्या शाब अभी तक सोया नहीं ? पढ़ाई कर रहा था क्या ? मैं उत्तर देता हां , और कैसे हो ? उत्तर मिलता ठीक हूं और इस प्रक्रिया मे वह आगे निकल चुका होता । क्योंकि इस दौरान वह रुकता नहीं था सारी बात चलते चलते ही करता था । इनका नाम शेरबहादुर था जो उस समय करीब ५५ - ६० साल के रहे होगें ।

चौकीदारों की एक परम्परा सी थी , केवल बड़े लोग अपनी कोठियों पर चौकीदार रखते थे , जो ज्यादातर नेपाल के गुरखा जवान होते थे । बाकी कालोनियों मे सामुहिक तौर पर ये गुरखा जवान इसी तरह सीटी बजा कर और डंडा सड़क पर पटक कर पहरा देते थे । गुरखा लोगों की इमानदारी और वफ़ादारी अपने आप मे एक मिसाल है । यह अपने आप मे मानव इतिहास की सबसे बड़ी बिश्वास की धरोहर होगी जिसकी शायद ही कोई दूसरी मिसाल हो जहां एक व्यक्ति , एक परिवार या कोई एक समूह नहीं बल्कि पूरे के पूरे समाज पर लोग ऐसा विश्वास रखते हों । पीढ़ी दर पीढ़ी लोग अपनी सुरक्षा को उनके हवाले करके इतना निश्चिन्त हो जाते हों । आज कल कभी कभी ऐसे किस्से सुनने मे आ जाते हैं जिनमे नेपाल के लोग आपराधिक घटना मे संलिप्त हों , लेकिन उन दिनों ऐसी बात अजूबा थी । मुझे नहीं याद कि कोई ऐसी घटना मैने सुनी हो । मै नही जानता कि इनकी नियुक्ति कैसे होती थी , लेकिन ये खुद ही घर - घर जाकर, उन दिनों दो ( आजकल बीस ) रुपये वसूल करते थे । इस तरह एक स्थायी सुरक्षा व्यवस्था कार्य कर रही थी ।

जिन दिनो मै कालेज पास किया उन्ही दिनों एक रात मुझे एक अजनबी चौकीदार रात मे दिखा , जो बिना बातचीत के आगे बढ़ गया । देखने मे उम्र मे भी कम था , मैने अगले दिन जब इस बारे मे पता किया तो पता चला कि पहले वाले बुजुर्ग चौकीदार ने अब रिटायरमेंट ले लिया है । उनके तीन बेटों और एक बेटी के परिवार ने इस काम को आपस मे बांट लिया है । इस तरह अब तीन तीन महीने ये चारों बारी बारी से चौकीदारी करेंगें । यह साधारण बात तभी समझ आयी कि हमारे मुहल्ले की चौकीदारी शेरबहादुर के परिवार के लिए एक संपत्ति है जिसे उनके परिवार ने आपसी समझौते मे बराबर से बांट लिया है । इस संपत्ति का कोई दस्तावेज नही था और न ही कोई रजिस्ट्री हुई थी । लेकिन परिवार की एक स्थाई आमदनी का ज़रिया थी जिसे परिवार ने मौखिक समझौते से बंटवारा कर लिया था । आज जब दिल्ली के ज्यादातर कालोनियों मे रेजिडेंट वेलफेयर एसोसियेशन बन गयी है और उन्होने चारों तरफ से दीवार बनाकर गेट लगा दिये गये हैं । उन गेटों पर सुरक्षा एजेन्सियों के गार्ड तैनात रहते हैं , ऐसे मे यह सुनने मे अटपटी सी बात लग सकती है लेकिन हमारे मुहल्ले मे अभी भी वह पुरानी परम्परा कायम है ।

आज जब सीढ़ियां चढ़ते हुए मैं अपने पुराने विचारों मे खोया हुआ अपने फ्लैट तक पहुंचा तो फिर नीचे वापस आ गया , मेरे मन मे यह जिज्ञासा हुई कि चौकीदार के परिवार के बारे मे पता करूं । मैं खड़ा होकर उसके आने का इन्तजार करने लगा । असल में अपनी जीविका के सिलसिले मे व्यस्तता के कारण मैं दिन भर घर रहता नही हूं दिन मे जब चौकीदार पैसा ले जाता है मै मौजूद नहीं होता इस लिए आज की स्थिति के बारे मे अनभिज्ञ हूं । इस बीच जैसे ही वह पास आया मैने बुला कर उसका नाम पूछ कर बात चीत का सिलसिला शुरू किया । आधे घंटे की बात से जो पता चला वह संक्षेप मे यह है कि आज जिनसे मेरी मुलाकात हुई वे श्यामबहादुर अपनी तीसरी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं । शेरबहादुर इनके दादाजी थे , उनकी मृत्यु आज से पंद्रह साल पहले हो चुकी है । दूसरी पीढ़ी यानी श्याम के पिताजी की , वह भी रिटायर पर ही समझिये , उनमे से कुछ स्वयं आते हैं और कुछ के बच्चे । तीसरी पीढ़ी तक आते आते परिवार के हिस्सेदारों की संख्या बढ़कर पंद्रह हो गयी है । शेरबहादुर के चार बच्चों की अगली पीढ़ी मे किसी के दो , किसी के तीन और किसी के चार बच्चे हैं , इस तरह अब हर एक का नम्बर बराबर से नही आता । हिस्से के मुताबिक किसी का नम्बर जल्दी और किसी का देर से आता है । सारा बंटवारा मौखिक ही है । ये लोग अब चौकीदारी के साथ साथ सुबह कारें भी धोते हैं जिससे अतिरिक्त आमदनी होती है । अपनी बारी खत्म होने पर अगले आने वाले नये हिस्सेदार को कार धोने की संपत्ति भी पास कर दी जाती है । इस तरह चौकीदारी की पुरानी पूंजी के भले ही कई हिस्सेदार हो गये हों लेकिन नई पीढ़ी ने आमदनी का नया स्रोत - कार धुलाई का जोड़ कर आमदनी को बढ़ाया ही है ।

इसके बाद मैं उपर आ कर सोने चला गया लेकिन रात भर सोचता रहा कि मानवीय समबन्धों के कितने रूप हो सकते हैं और हम इतने पास रहकर भी कितनी बातों से अनजान रहते हैं या इतने व्यस्त रहते हैं कि जिनके भरोसे सब कुछ छोड़ दिया है उनके बारे मे कितना कम जानते हैं ।