शनिवार, 28 नवंबर 2009

भेद

क्यों कभी कभी ऐसा है लगता,
पीठ से मेरे यह लहू सा टपकता,

लहू जो किसी घाव से है निकला,
घाव जो किसी खंजर से है मिला,

खंजर जो किसी हाथ ने था चलाया,
हाथ जो मेरे किसी अपने ने बढ़ाया,

मेरे अपने जो मेरे गले से लिपटे,
गले से लिपटे क्योंकि प्रिय थे मेरे,

प्रिय थे मेरे तभी तो हमने मिलकर,
विश्वास का एक पुल किया था निर्मित,

इस पुल पर खड़ा मैं मैत्री का बोझ उठाये,
हूं अचम्भित सोचता कोई यह भेद तो बताये,

क्यों हमेशा विश्वास के पुल से होकर,
मैत्री के बदले रक्त होता है प्रवाहित,

क्यों कभी कभी ऐसा है लगता,
पीठ से मेरे यह लहू सा टपकता ।

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपने बखूबी भेद को लिख दिया
    वाह

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  2. क्यों हमेशा विश्वास के पुल से होकर,
    मैत्री के बदले रक्त होता है प्रवाहित,

    क्यों कभी कभी ऐसा है लगता,
    पीठ से मेरे यह लहू सा टपकता ।
    विश्वास्घात की गहरी वेदना है इस रचना मे बहुत सुन्दर शुभकामनायें

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  3. आह!! अपनों से मिली चोट की कराह!! वही सुन सकता है जिसने खाई हो..मैं सुन पाया आपको!!

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