शनिवार, 8 मई 2010

गालियां ही गालियां , बस एक बार सुन तो लें ( तर्ज - रिश्ते ही रिश्ते )

लोग गाली क्यों देते हैं ? गाली देने वाला गाली दे देता है परन्तु उसे पाने वाले की क्या मनो दशा होती है ? न्यूज एंकरों की भाषा मे कहें तो उसे कैसा लग रहा होता है ? मेरे विचार मे गालियां देने का मुख्य कारण दूसरे को नीचा दिखाना या अपमानित करना होता है । यह भी कहा जा सकता है दोस्तों मे मज़ाक मे भी गालियों का प्रयोग होता है और उसे अपमानित करने की मानसिकता के दायरे मे नही रखा जा सकता । इस बात मे दम तो नज़र आता है लेकिन अगर थोड़ा ध्यान से देखें तो पायेंगे कि दोस्तों मे गालियों वाले शब्दों का प्रयोग केवल यह साबित करने के लिए होता है कि हमारी दोस्ती इतनी प्रगाढ़ है कि अपमानजनक शब्दों के बावज़ूद दोस्त बुरा नही मानता है । यहां भी अपमान मौजूद है लेकिन एक कसौटी की तरह जिस पर दोस्ती को कसा जा रहा है और उसकी प्रगाढ़ता को साबित किया जाता है ।

गालियां मोटे तौर पर दो तरह की होती हैं , आम बोल चाल की भाषा मे हम एक को वेज ( श्लील ) और दूसरे को नॉन वेज ( अश्लील ) कहते है । वेज गालियों की श्रेणी मे वे गालियां आती जो आम तौर पर रिश्तों पर केंद्रित न होकर गुणों पर ज्यादा केंद्रित होती हैं जैसे किसी को कम-अक्ल बताने के लिए गधा या उल्लू कहा जाता है या किसी को तुच्छ या अति चापलूस बताने के लिए कुत्ता कहा जाता है । कुछ कम स्तर की गालियां ( वैसे कुछ लोग इन्हे गाली नही मानते ) भी हैं जैसे जब कोई छात्र बिना अर्थ समझे और आत्मसात किये अपने पाठ का रट्टा लगाता है तो उसे तोता - रटन्त से सम्बोधित करते हैं । नॉन वेज गालियां रिश्तों और रिश्तेदारियों पर केंद्रित होती हैं । ये उन रिश्तों के मूलभूत तत्व को सरेआम उजागर करके आपको अपमान सहने वाली अवस्था मे ला खड़ा करती हैं । वैसे देखा जाय तो रिश्ते इंसान को इंसान बनाते हैं परन्तु उन्ही रिश्तों का जिक्र गालियों के रूप मे , उसे हैवान बना देता है । ऐसा क्यों होता है ? इसका सीधा सपाट उत्तर है कि रिश्ते जिस नाम से पुकारे जाते वे तो इंसान को बहुत प्यारे लगते हैं , परन्तु उन रिश्तों के जो मूल भूत तत्व होते हैं वे सार्वजनिक तौर पर समाज मे चर्चा का विषय नही होते । बल्कि ज्यादातर लोग अकेले मे भी उन मूलभूत तत्वों को संज्ञारूप मे नहीं पुकारते , हां जब गाली देना हो तो भले ही कहें - तेरी ....... , वगैरह ।

वेज गालियों मे जहां पर किसी की व्यक्तिगत कमजोरी को सार्वजनिक करके उसे नीचा दिखाने की कोशिश होती है वहीं नॉन वेज गालियों व्यक्ति के महत्वपूर्ण रिश्तों से बिना जिम्मेदारी उठाये उनका आनन्द लेने की चेष्ठा की जाती है । इसकी थोड़ी सी व्याख्या की जाय तो अर्थ यह हुआ कि पिता को जो आनन्द एक पिता की जिम्मेदारी उठाने का कर्तव्य निभाने पर प्राप्त है वह जब कोई बिना जिम्मेदारी के प्राप्त करने का दावा करता है तो वह मां की गाली बन जाती है । यही प्रक्रिया अन्य रिश्तों के साथ भी है ।

गालियों का इतिहास बहुत पुराना है , इनका जिक्र रामायण और महाभारत मे भी आता है । याद कीजिए वह प्रसंग जब भरत और शत्रुघ्न ननिहाल से लौट कर आते हैं और राम , सीता व लक्ष्मण के वनवास और पिता की मृत्यु का समाचार उन्हे पता चलता है तो भरत द्वारा माता कैकेयी के प्रति कुछ अपशब्दों का जिक्र है जिन्हे गाली की श्रेणी मे कहा जा सकता है , भरत द्वारा माता कैकेयी के प्रति इन शब्दों को गोस्वामी तुलसीदास जी ने इस चौपायी के रूप मे दिया है :

"बर मांगत मन भ‍इ नहिं पीरा । गरि न जीह मुह परेउ न कीरा ॥"

इसी तरह मंत्री सुमंत जब गंगा तट पर वनवास गमन के समय पिता राजा दशरथ का संदेश सुनाते हैं , उस समय लक्ष्मण के द्वारा कुछ शब्दों का भी जिक्र है जो शायद अपशब्द ही हो सकते हैं , परन्तु उन्हे गोस्वामी जी ने मर्यादा के अनुरूप न पा कर कुछ इस तरह लिखा है :

पुनि कछु लखन कही कटु बानी । प्रभु बरजे बड़ अनुचित जानी ॥
सकुचि राम निज सपथ देवाई । लखन संदेसु कहिय जनि जाई ॥

कुछ और भी प्रसंग हैं रामायण मे जहां इस तरह के असंसदीय भाषा का अंदेशा होता है लेकिन अपशब्दों और गालियों का सबसे रोचक प्रसंग तो महाभारत मे है जहां श्री कृष्ण ने शिशुपाल को गालियां देने की एक लिमिट दे दी । यानी शिशुपाल को पूरी छूट थी कि वह १०० गालियां दे सकता था , जैसे ही उसने यह लिमिट पार किया , श्री कृष्ण ने उसका सिर सुदर्शन चक्र से काट दिया । इससे यह भी साबित होता है कि गालियां सहने की भी एक सीमा होती है , उसके बाद इसका परिणाम भयंकर हो सकता है ।

इन सब के बीच मे मुझे लगता है कि गालियों से जुड़ी एक सबसे रोचक परम्परा के जिक्र किये बिना यह पूरी चर्चा अधूरी रह जायेगी , वह है उत्तर भारत खास कर अवधी और भोजपुरी भाषी क्षेत्र मे ससुराल मे दूल्हे और उसके सगों के स्वागत में गायी जाने वाली गालियों के गीत । जो लोग इस परम्परा से सम्बद्ध हैं , इस बात की याद आते ही उनके चेहरे पर मुस्कान जरूर आ गयी होगी । जब कोई बारात आती है या शादी के बाद दूल्हा या दूल्हे के सगे ससुराल जाते हैं , तो उनके भोजन के समय जब वे खाना खाने बैठते हैं , उस समय व्यंजनो की थाली तो उनके सामने सजा कर परोसी ही जाती है साथ ही साथ , महिला मंडली द्वारा , नेपथ्य से गाली भरे गीत ढोलक की मधुर थाप के साथ गाये जाते हैं । यह एक शगुन जैसा होता है । लोग खूब मजे लेकर इसका आनंद उठाते हैं , खास-खास लोगों के नाम लिख कर , गाने वाली महिला मंडली के पास पंहुचाये जाते हैं , ताकि किसी का नाम छूट न जाय और वह बाद मे इस बात को लेकर बुरा न मान जाय या नाराज न हो जाय । इस तरह हर खास खास को नाम से और बाकी सबको आम तौर पर गाली मिलती है । बिल्कुल रामलीला के मंच से होने वाली उद्दघोषणाओं की तरह । मेरी जानकारी मे कुछ ऐसे किस्से भी हैं जब खाने के समय गाली वाले गीत न सुनाई पड़ने पर लोगों ने खाना खाने से मना कर दिया और खाना तभी खाया जब गालियां गाने वाली महिला मंडली आ गयी और गाना शुरू कर दिया ।

गाली पुराण के महाग्रंथ मे गाली देने वाले बड़े बड़े महारथी हैं । समाज का कोई क्षेत्र नही बचा है , सबके अपने अपने तरीके हैं कोई खुलकर गाली देता है कोई परिमार्जित शब्दों मे गाली देता है , मैं तो यहां तक कहूंगा कि इनके बिना समाज अधूरा है । गाली देने से आपकी भड़ास निकल जाती है , चित्त को शांति मिलती है , गाली देने वाले का स्ट्रेस रिलीज होता है । ये सबसे बड़ी स्ट्रेस बस्टर हैं । इनकी वजह से सुनने वाले को परेशानी हो सकती है परन्तुं इन्हे देने वाला सही इस्तेमाल करे तो हर तनाव से मुक्त होकर आनन्द का अनुभव करता है । गालियों मे मंत्रों जैसी शक्ति है , आत्मानंदित करने की और विनाश करने की भी। सब कुछ बस इनके उपयोग के तरीके पर निर्भर है ।

6 टिप्‍पणियां:

  1. गालियों मे मंत्रों जैसी शक्ति है , आत्मानंदित करने की और विनाश करने की भी। सब कुछ बस इनके उपयोग के तरीके पर निर्भर है -:) आजमा कर देखते हैं. :)

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  2. गालियाँ मनुष्य के सामाजिक अस्तित्व की अभिव्यक्ति हैं। समाज कुछ नियम कुछ रिश्ते तय चुका है। उन्हें तोड़ने वालों को विभूषित करने वालों के लिए गालियाँ हैं।

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  3. ' यजुर्वेद में लिखा है-''कुर्वन्नेवेहं कर्माणि जिजीविषेच्छत समा।'' अर्थात् सत्कर्म करता हुआ मनुष्य सौ वर्ष जीने की इच्छा करे। वेदों में दीर्घायु की कामना की गई है, किंतु सत्कर्म करते हुए। और गाली देना सत्कर्म तो नहीं हो सकता ,किसी भी तरीके से नहीं हो सकता. सन्मार्ग पे चलना कभी भी किसीके प्रति दुर्भावना रखना नहीं हो सकता है ,

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  4. समीर जी, सचमुच जब आप अपने मन की भड़ास गालियों द्वारा निकाल देते हैं तो आप तनाव मुक्त महसूस करते हैं , इसे आप मेरा निजी अनुभव समझिये ।

    द्विवेदी जी आप से पूर्णत: सहमत हूं । आप टिप्पड़ी पाकर अभिभूत हूं, बहुत बहुत धन्यवाद ।

    अमित जी , गालियों को सत्कर्म की संज्ञा बिलकुल नहीं दी जा सकती , लेकिन ये अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम आदि काल से हैं क्योंकि ये एक विशेष मनोदशा को प्रकट करती हैं ।

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  5. अच्छे विचार है इस तरह के विचार यदि सभी के हो तो चारो तरफ अराजकता ही फैल जायेगी।

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  6. सुनीता जी, बहुत दिनो बाद मरीचिका पर पधारने के लिए धन्यवाद । वैसे मै भी इन दिनो ज्यादा कुछ लिख नहीं सका । हां , एक बात जरूर कहूंगा , अराजकता होने का सवाल ही नहीं , मेरा मानना है कि सचमुच गालिओं से भड़ास निकल जाती है , बस संभल कर उपयोग करने की आवश्यकता है , कहीं लेने के देने न पड़ जाय ।

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