रविवार, 28 मार्च 2010

डेविड कोलमैन हेडली की स्वीकारोक्ति ( ३ ) - परिप्रेक्ष : भारत का राजनैतिक व सामाजिक द्वंद

जब मैने इस लेख की पहली कड़ी में यह मुद्दा उठाया था कि डेविड एक डबल एजेंट था और अमेरिकी सुरक्षा एजेन्सीज उसे भारतीय एजेन्सीज को नही सौपेंगी , तो वह प्रारंभिक समाचारों पर आधारित एक विश्लेषणात्मक अनुमान था, अब यह बात सही साबित हो रही है । अमेरिकी प्रतिनिधियों ने इस तरह का बयान दे दिया है और भारत के गॄह मंत्री श्री पी चिदंबरम सफाई दे रहे हैं कि हम कोशिश जारी रखेंगे और निराश नहीं हैं , जब कि आज हर समझदार व्यक्ति जो थोड़ा बहुत भी अन्तर्राष्ट्रीय मामलों पर नज़र रखता है उसे पता है कि अब हैडली से भारत जो भी जानकारी पायेगा वह केवल वही होगी जो अमेरिकी चाहेंगे या जितना और जैसा चाहेंगे जिसे अंग्रेजी मे कहेंगे " सूटेबल टू अमेरिका " । इसके विपरीत हमने अमेरिकी एजेन्सीज को खुली छूट दिया कसाब से पूछ-ताछ करने के लिए । हमने इस आशा मे यह कदम उठाया था कि अमेरिका पाकिस्तान पर यह दबाव डालेगा कि वह २६/११ से जुड़े लोगों पर कानूनी कार्यवायी करे चाहे वे स्टेट एक्टर हों या नॉन स्टेट एक्टर हों , डेविड हैडली का एंगल तो तब चर्चा में था ही नही । आज हाल यह है कि ’न खुदा ही मिला न विसाले सनम’ , आज हमे पाकिस्तान भी बहला और घुमा रहा है और अमेरिका भी केवल मीठी मीठी बातें कर रहा है ठोस बात कुछ नही । भारत सरकार अपनी झेंप मिटाने के लिए कोशिश जारी रखने वाले बयान दे रही है । भारत सरकार कर भी क्या सकती है भारत के आर्थिक वर्चस्व मे वृद्धि के बावज़ूद हमारा स्थान हमेशा पाकिस्तान के साथ जोड़ कर ही देखा जाता है । भारत की आज तक की सभी सरकारें इसके लिए जिम्मेदार हैं क्योंकि जैसे ही पाकिस्तान को अमेरिका कोई सहायता , आर्थिक या सामरिक , देता है हम चिल्लाना शुरू कर देते हैं । मै पूछता हूं क्यों भाई , आप क्यों अपने को पाकिस्तान से जोड़ते हो , उसे जो भी मिलता है मिलने दो , आप मे इतना आत्मविश्वास होना चाहिए कि हमारी जो भी जरूरते बढ़ेगीं वह हम अपने आन्तरिक सोर्स से पूरा कर लेगें । यह न होकर जब हम शोर मचाते हैं और वैसा ही पाकिस्तान भारत को लेकर शोर मचाता है, जो उसके हितों के हिसाब से सही भी है, ऐसे में अमेरिकी थिंक टैंक यह मान कर चलता है कि भारत और पाकिस्तान को अलग करके नही देखा जा सकता । यहां छुट-पुट प्रतीकात्मक बातों पर नही बल्कि संपूर्ण परिदॄश्य की बात हो रही है । इसीलिए अमेरिका पाकिस्तान पर न तो अपेक्षित दबाव बना रहा है न स्वंय ही भारत को २६/११ से जुड़ी जानकारियां खुले दिल से दे रहा है ।

इन परिस्थितियों मे भारत की सरकार मे शामिल राजनैतिक पार्टियों मुख्यतया कांग्रेस को इस फ्रसट्रेसन से निकलने का रास्ता चाहिए , वह रास्ता कैसे पाया जा रहा है यह दिखाई दे रहा है । इस पर चर्चा से पहले मै २६/११ हमले के समय के माहौल पर ध्यान दिलाना चाहूंगा । उस हमले ठीक पहले के समय एक शब्दावली का प्रयोग मीडिया मे उछाला जा रहा था ’सैफ्रन टेरॉर’ । यह एक प्रायोजित कार्यक्रम था जिसके द्वारा आतंकवाद का एक संतुलन बनाने का प्रयास किया जा रहा था । जी हां अगर इस्लामिक आतंकवाद की जुमला प्रचलित है जिसे हिंदूवादी दल प्रयोग करते हैं तो उसके जवाब में सैफ्रन आतंकवाद चुनावी साल मे ढूंढा गया । ऐसा माहौल बनाने की कोशिश हुई थी कि उस दौरान बहुत सारी आतंक वादी घटनाएं हिंदूवादी ग्रुपों द्वारा की गयी और नागपुर एंगल रख कर उसे आर एस एस से भी जोड़ने की कोशिश हुई । पेड न्यूज के जमाने मे चुनाव जीतने के लिए ऐसे हथकंडों मे मीडिया का उपयोग भी भरपूर किया गया । यह शायद और बड़े स्तर पर होता लेकिन २६/११ ने फोकस वापस ला कर आतंक की मुख्य धारा पर केंद्रित कर दिया । जहां कांग्रेस अपने लिए माहौल बनाने मे प्रयासरत थी और भाजपा अपने वोट बैंक पर हमला होते देख मन मसोस रही थी , वहीं २६/११ ने अचानक ऐसा लगा कि पाशा पलट दिया , उसी दिन दिल्ली मे वोटिंग हो रही थी भाजपा को लाभ लेने की हड़बड़ी थी ऐसे मे गुजरात के मुख्यमंत्री श्री नरेंद्र मोदी घटना स्थल पर पहुंच गये । यह कार्य एक राजनैतिक दल द्वारा राष्ट्र के दुख की घड़ी का राजनैतिक लाभ उठाने के नंगे प्रयास के तौर पर देखा गया । इस सोच ने पाशा पलट दिया , बहुसंख्यक वर्ग इस बात से बिदक गया , साथ ही मुस्लिम समुदाय ने अधिक से अधिक संख्या मे निकल कर वोट किया और भाजपा का गणित उलट गया । इससे यह भी जाहिर होता है कि राजनैतिक लाभ लेने के मामले मे कोई दूध का धुला नहीं है । २६/११ के बाद सैफ्रन आतंक की चर्चा दब गयी मामला ठंडे बस्ते मे है शायद कभी उचित परिस्थितियां आयें तो इसका चर्चा को उछाला जायेगा ।

आज जब कूटनीतिक स्तर पर २६/११ के मामले मे धक्का लगा तो वापस अयोध्या और गुजरात मामले को गर्माया जा रहा है । मुझे लगता है कि भारत के राजनैतिक दल सामजिक वैमनस्य को हवा देकर हमेशा महौल को अपने लाभ के हिसाब से गर्माये रखना चाहते हैं । जब भाजपा शासन मे थी तो हमने देखा कि कैसे १९८४ के सिख विरोधी दंगो और बोफोर्स की दलाली को गर्माया जाता था । कांग्रेस उसके जवाब मे गुजरात के मुद्दे को और कारगिल युद्ध के समय कॉफ़िन इम्पोर्ट की दलाली का मुद्दा उठाती थी । आज बोफोर्स को दफ़न कर दिया गया , उसकी दलाली का पैसा लंदन के बैंक से निकल जाने दिया गया , उसको लेकर कोई जिम्मेदारी फिक्स नही हुई किसी बाबू की भी नही । कॉफ़िन मामला भी साथ ही साथ दफ़न हो गया , क्योंकि उसमे कुछ खास था भी नहीं केवल एक ओडिट ऑबजेक्सन को राजनैतिक मुद्दा बनाया गया था । अब १९८४ के दंगे और अयोध्या के बाबरी और गुजरात के २००२ के दंगों के मामले पर तमाशा जारी है ।

साथ ही यह सवाल भी जायज़ है कि हम किस अधिकार से पाकिस्तान और अमेरिका से यह अपेक्षा करते हैं कि वे खुले दिल से २६/११ के दोषियों को पकड़ने मे हमारी सहायता करें और सजा दिलवायें जब कि हमारी सरकार यह खुलासा करने के लिए तैयार नहीं है कि २६/११ के आरोपियों की सहायता करने वाले लोकल कौन थे । लोकल मुस्लिमों के शामिल होने की तरफ पूरा इशारा है और सरकार इसके राजनैतिक दुश्प्रभाव का आकलन करके उसे छुपा रही है ।

इस पूरे परिदॄश्य से क्या समझा जाय कि भारत मे जो भी जांच होगी , जो न्यायिक प्रक्रिया होगी या जो भी आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था होगी वह वोट बैंक को नज़र मे रख कर होगी , चाहे उससे हिंदू मुसलमान मे वैमनस्य बढ़े , चाहे हमारे इस विद्वेष का लाभ देश के बाहर बैठे दुश्मन कैसे भी उठावें ।

4 टिप्‍पणियां:

  1. सार्थक और सटीक विश्लेषण. भारत में सत्ता में रीढ़ की कमी है. हिन्दू अपने निहित स्वार्थों के कारण निशाने पर हैं, दुर्भाग्य है.

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  2. भारतीय नागरिक जी, धन्यवाद ,

    अब तीनो भागों को एक साथ पढ़ें तो पूरी तस्वीर उभर कर सामने आती है ।

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