बुधवार, 24 मार्च 2010

राम - कृपानिधान ( राम नवमी के अवसर पर - एक दॄष्टिकोण )

प्रभु श्री राम पर कितना कुछ सब को पता है और कितना लिखा - पढ़ा जाता है इसे शब्दों मे बांधना एक साधारण मनुष्य के लिए अकल्पनीय है । दिन भर जाने अनजाने हम राम का स्मरण करते हैं । ऐसे मे मेरे जैसे एक साधारण व्यक्ति के लिए उनके जीवन चरित या महिमा की विवेचना , वह भी सीमित शब्दों मे थोड़ा मुश्किल सा लगता है । राम के कॄपानिधान रूप पर चर्चा करते हुए आज मै राम की उस प्रतिज्ञा को स्मरण करना चाहता हूं जो अक्सर ज्यादा चर्चित नहीं होती । इस घटना का ज़िक्र अरण्य कांड मे आता है ।

प्रभु श्री राम , लक्ष्मण और सीता जी चित्रकूट छोड़ कर वन के भीतरी भाग मे प्रवेश कर रहे हैं । वे सब ॠषि सरभंग के आश्रम मे पहुंचते हैं, वहां पर एक ऐसी घटना घटित होती है जो रामचरित मानस में अपनी तरह से अनूठी है । यहां ॠषि सरभंग श्री राम के स्वागत और सम्मान के बाद अपने तपोबल से उत्पन्न अग्नि मे जल कर प्राण त्याग देते हैं । उसके ठीक बाद आश्रम के पास अस्थियों का पहाड़ देख कर जब श्री राम के प्रश्न करने पर अन्य ऋषि लोग श्री राम को बताते हैं कि यह पहाड़ उन मुनियों की अस्थियों से बना है जिन्हे राक्षसों ने मार दिया है तो यह सुन कर प्रभु के नेत्रों मे आंसू भर आये और उन्होंने प्रतिज्ञा किया :

निशिचर हीन करहुं महि भुज उठाइ प्रण कीन्ह ।
सकल मुनिन्ह के आश्रमहिं जाइ जाइ सुख दीन्ह ॥

यह वह घटना है जो प्रभु के कॄपानिधान और दया सिंधु रूप को सामने लाती है । इस घटना के प्रभाव और महत्व को समझने के लिए हमे यह ध्यान देना होगा कि उस समय क्या हुआ होगा और उस समय क्या राजनैतिक और सामाजिक परिस्थितियां थी ।

ऐसा लगता है कि ॠषि सरभंग ने शायद राम का ध्यान पूरी तरह मुनियों और तपस्वियों की तकलीफों की तरह आकर्षित करने के लिए अग्नि समाधि ले ली इसे आप आत्म दाह भी कह सकते हैं । यह पूरी तरह से पूर्व नियोजित होगा क्यों कि रावण की लंका जैसे विकसित और शक्तिशाली साम्राज्य के मुकाबले अयोध्या ही दूसरा साम्राज्य था जो उसे परास्त कर सकता था । राम की कीर्ति अहिल्या उद्धार जहां राम दकियानूसी सामाजिक कुरीतियों से शापित अहिल्या को प्रतिस्थापित करते हैं ( इस पर चर्चा कभी फिर ) , विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा के समय और बाद मे सीता विवाह के समय शिव धनुष भंग आदि से पूरी तरह फैल चुकी थी, वे ही एक मात्र विकल्प जान पड़ते थे जो पीढ़ी दर पीढ़ी से नीरीह मुनियों के समाज को हर समय मौत के ग्रास बनने और भय और आतंक मे जीने के अभिशाप से मुक्ति दे सकने मे सक्षम थे । यदि बिना परिस्थिति को पूरी तरह समझे राम वहां से आगे चले जाते तो यह अवसर शायद फिर से नहीं मिलता । इसलिए यह स्वाभविक ही लगता है कि ॠषि सरभंग ने पूरे समाज के कल्याण के लिए राम का ध्यान पूरी तरह आकर्षित करना चाहते थे और इस लिए उन्होने अपने आप को न्यौछावर कर दिया । इस बात का प्रभु राम पर वांछित असर भी पड़ा और उन्होने आस पास के बारे मे पूरी जानकारी ली और वस्तुस्थिति से अवगत होने पर उनका मन ऐसा द्रवित हुआ कि उनके नेत्र भर आये । उन्होने दोनो हाथ उठा कर यह प्रतिज्ञा की कि धर्मपारायण जीवन यापन करने वाले निरीह मुनियों की अकारण हत्या करने और आतंकित करने वाले इन आतताइयों से इस पॄथ्वी को मुक्त कर दूंगा । यह किसी एक व्यक्ति या समूह को राहत देने की प्रतिज्ञा नहीं थी । यह पूरी पॄथ्वी को आतंक के राज से मुक्ति की प्रतिज्ञा थी । इसके बाद प्रभु सब मुनियों के आश्रमों मे गये और एक एक को ढ़ाढ़स दिया ।

यह घटना राम के शेष वनवास के दिनों के लिए जो उनका उद्देश्य था उसको सार्थक करने मे एक महती भूमिका निभाती है । अब आप पूरी तरह अन्दाजा लगा सकते हैं कि आगे की घटनाएं इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए या तो स्वाभाविक तौर पर हुई होगीं या कुछ को प्रायोजित किया गया होगा । संक्षेप मे नीचे दी गयी बातें विचारणीय हैं :

१. क्या राम विश्वामित्र मित्र के आश्रम मे इसी अन्तिम संकल्प मे सफलता के लिए तैयारी के लिए युद्ध विद्या सीखने गये थे । विवाहोपरान्त राज्य प्रबंध संभालने से पहले इन आततायियों का समूल नाश आवश्यक था । क्या राम का वनवास इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए था ।

२. क्या भरत राम से मिलने पूरी सेना के साथ इस लिए वन गये क्यों कि वे चाहते थे कि यदि राम को सैन्य बल की आवश्यकता हो तो अयोध्या उसके लिए तैयार है और राम वन के प्रथम छोर चित्रकूट से आगे बढ़कर वन के भीतरी भाग मे स्थित मुख्य लक्ष्य तक पहुंचने मे देर न करें । राम इस युद्ध को स्थानीय वनवासियों की सहायता से ही लड़ना चाहते थे और उसके लिए उचित कारण भी चाहते थे जिससे रावण को किसी भी हालात मे पीड़ित होने और बाहरी शत्रु के आक्रमण का आरोप लगाने का अवसर न मिले । क्या इसी लिए भरत के जाने के बाद राम ने चित्रकूट छोड़ दिया और वन के अत्यन्त भीतरी भाग मे प्रवेश कर गये ।

सीता हरण वह नैतिक कारण बना और सुग्रीव के रूप मे स्थानीय लोगों की सहायता मिली जिसने रावण को सहानुभूति का पात्र नहीं बनने दिया, चाहे इसके लिए परिस्थितियां निर्माण हुईं या की गयीं । राम रावण युद्ध एक आततायी साम्राज्य के विनाश के लिए हुआ जिसने एक ऐसे क्षेत्र मे यानी वनांचल मे मौत, भय और आतंक का राज फ़ैला रखा था ,जहां शायद पूरी तरह अयोध्या साम्राज्य का अधिकार नहीं था और जो शायद रावण के अधिकार में भी नहीं था, जबकि खर और दूषण की चौकी इस क्षेत्र मे स्थापित थी । ऐसे मे रावण राज को इस तरह के राजनैतिक और नैतिक हथियार से मारने की आवश्यकता पड़ी जो केवल सीधे युद्ध जीत कर नहीं प्राप्त की जा सकती थी । एक बात और रावण युद्ध के बाद या कहें उसके पहले ही राम ने विभीषण को लंका का राजा घोषित करके यह स्पष्ट कर दिया था कि लंका पर जीत का अर्थ अयोध्या के साम्राज्य का विस्तार नहीं होकर एक आततायी साम्राज्य व उसके तंत्र का अन्त ही था और राज सत्ता स्थानीय लोगों के पास ही रहेगी ।

इन सारी बातों के बावज़ूद उपर्युक्त घटना का यह महत्व है कि राम शायद स्थानीय लोगों के दुखों को अपनी आखों से देखने के बाद इतने द्रवित हुए कि उन्होने यह प्रतिज्ञा की , यही बातें अयोध्या मे उन्हे बताई गयी थीं मगर कानो सुनी होने के कारण उतनी असरकारक नहीं हुई होगीं । अत: यह घटना राम को अपना सब कुछ दांव पर लगाने के लिए प्रेरित करती है और राम - रावण युद्ध का निर्णायक कारक बन कर उभरती है तथा राम के कॄपानिधान रूप को भी उभारती है ।

आज भी हम ऐसे ही आतंकवाद के दौर से गुजर रहे हैं जब नीरीह लोग बेवजह मारे जा रहे हैं , आतंकवाद एक पूर्ण विकसित साम्राज्य द्वारा प्रायोजित है और ऐसे क्षेत्र मे केंद्रित है जहां भारत पूरी तरह अपना अधिकार नहीं कर पा रहा और कई खर दूषण अपनी चौकी स्थापित किये बैठे हैं । इसका इलाज आतंक के तंत्र के समूल विनाश से ही होगा और उसके लिए राम जैसे त्याग व राजनैतिक कौशल की आवश्यकता होगी जहां हम विस्तारवादी से हट कर सुधारवादी भूमिका मे स्थानीय लोगों को प्रेरित करके उनका साथ प्राप्त कर सकें ।

3 टिप्‍पणियां:

  1. मुनीश जी, राम राम, बहुत दिनो बाद मरीचिका पर लौटे । धन्यवाद ।

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  2. आपका आलेख सुंदर है ...........जिन प्रश्नों को आपने रखा है वे विचारणीय हैं ...हार्दिक बधाई .

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